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आखिर कैसे ढह गया शरद पवार का किला, जाने फूट की वजह

Admin Delhi 1
4 July 2023 5:20 AM GMT
आखिर कैसे ढह गया शरद पवार का किला, जाने फूट की वजह
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मुंबई: 2 जुलाई को महाराष्ट्र की राजनीति (Politics of Maharashtra) में एक बार फिर भूचाल आ गया। जब शरद पवार की एनसीपी (NCP) में फूट पड़ गई। उनके भतीजे अजित पवार ने अपने चाचा को झटका देते हुए, अलग राह लेकर एनडीए (NDA) में शामिल होने का फैसला कर लिया। अजित पवार (Ajit Pawar) के साथ शरद पवार(Sharad Pawar) के करीबी माने जाने वाले छगन भुजबल (Chhagan Bhujbal), प्रफुल्ल पटेल (Praful Patel) और दिलीप वलसे पाटिल (Dilip Walse Patil) भी पार्टी से अलग हो गए हैं।

अजित पवार बतौर उपमुख्यमंत्री प्रदेश की एकनाथ शिन्दे सरकार में का भी हिस्सा बन गए हैं। उनके साथ 8 और मंत्रियों ने भी शपथ ग्रहण की। आखिर ऐसा क्या हुआ जो इन नेताओं को ये कदम उठाना पड़ा? एनसीपी में इस फूट के पीछे की वजह क्या है? कैसे राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले शरद पवार को अपना किला ढहने की खबर नहीं हुई? इन सवालों के जवाब बताते हैं।

अजित पवार को पार्टी में साइड लाइन किया जाना: अगर अजित पवार कि बात करें तो एक समय एनसीपी में वो बड़ी हैसियत रखते थे, उनकी पार्टी और संगठन में गहरी पकड़ थी। कई बार तो लगा कि वो शरद पवार के उत्तराधिकारी बन सकते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से उनकी लगातार उपेक्षा की जा रही थी। उनका पार्टी में कद कम हो गया था। इसकी बड़ी वजह उनका 2019 में शरद पवार से बगावत कर बीजेपी (BJP) से हाथ मिलाना थी।

दरअसल अजित पवार ने 2019 में भी पार्टी से बगावत की थी और देवेन्द्र फडणवीस (Devendra Fadnavis) के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। लेकिन ये सरकार 80 घंटे में ही गिर गई, क्योंकि शरद पवार के कड़े रुख के बाद उनके साथ बगावत करने वाले नेता पार्टी में वापस लौट गए। मजबूरन अजित पवार को भी पलटी मारनी पड़ी और वापस पार्टी में लौटना पड़ा। लेकिन उन्हें वो सम्मान नहीं मिल सका, जो पहले हासिल था।

अजित पवार अपमान का घूंट पी कर रह गए। उस समय उनकी हालत धोबी के कुत्ते वाली हो गई थी, जो न घर का रहा था और न ही घाट का। क्योंकि बिना एमएलए के वो बीजेपी के किसी काम के नहीं थे और जब उन्होंने घर वापसी की तो उसके बाद उनकी अहमियत कम हो चुकी थी। अब अजित फिर से पार्टी में अपनी पुरानी पोजीशन बनाने के प्रयास में जुट गए।

अजित पवार भूले नहीं अपना अपमान: अजित पवार ने 2019 के घटनाक्रम के बाद पार्टी में वापसी जरूर की, लेकिन वो अलग-थलग पड़ गए। उनके प्रयासों के बाद भी उन्हें पार्टी में साइड लाइन लगा दिया गया। इस अपमान को अजित पवार भूले नहीं, लेकिन वो विवश थे, इसलिए कड़वा घूंट पी गए। इस साल मई कि शुरुआत में में शरद पवार ने अपना अध्यक्ष पद छोड़ने का निर्णय किया।

हालांकि बाद में अपने निर्णय को बदल कर उन्होंने अपना इस्तीफा वापस ले लिया। साथ ही पवार ने पार्टी में 2 कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का फैसला भी किया, तो यहाँ भी अजित पवार का नाम इस लिस्ट में नहीं था। जिन 2 लोगों को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था, वो थे प्रफुल्ल पटेल और शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले (Supriya Sule)। अजित पवार को फिर से दरकिनार कर दिया गया था।

राजनीतिक महत्वाकांक्षा का हावी होना: राजनीति में महत्वाकांक्षा होना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कभी-कभी ये महत्वाकांक्षा सिद्धांतों और नीतियों पर हावी हो जाती है। नेता सत्ता के लिए हर तरह के समझौतों के लिए तैयार हो जाते हैं। शरद पवार ने भी कॉग्रेस और शिवसेना के साथ जाकर यही किया और अजित पवार आदि नेता भी अब एनडीए के साथ जाकर ऐसा ही कुछ कर रहे हैं।

पहले शरद पवार ने सिद्धांतों और नीतियों को दरकिनार कर दिया था। अब अजित पवार और उनके सहयोगियों ने भी सिद्धांतों और नीतियों से समझौता कर लिया है। वैसे ये भी माना जा रहा है कि अपने ऊपर चल रहे भ्रष्टाचार के केसों में सरकारी जांच एजेंसियों से बचने के लिए इन्होंने एनडीए के साथ जाने का निर्णय लिया है, ताकि उनके खिलाफ चल रहे मामलों में ढील मिल जाए।

फिर पड़ा वंशवाद अनुभव पर भारी: जैसा कि आधुनिक राजनीति में होता है, परिवारवाद पार्टियों पर हावी रहता है, खासकर क्षेत्रीय पार्टियों में तो ये आगे बढने का एकमात्र माध्यम बन गया है। अब तो बात परिवारवाद से निकल कर सिर्फ पुत्र-पुत्री तक ही सीमित हो गई है। पार्टी कोई भी हो, अधिकांश पार्टियों की स्थिति यही है कि योग्यता नहीं पार्टी के सर्वेसर्वा की संतान होना ही सबसे बड़ी योग्यता बन गई है।

अनुभवी और योग्य लोगों को दरकिनार कर संतान को आगे बढ़ाया जाता है, चाहे वो योग्य हो या नहीं। इसका नतीजा ये होता है कि पार्टी से जुड़े लोगों में असंतोष की भावना आ जाती है। जब उन्हें लगता है कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है, तो इसी तरह का परिणाम होता है, जैसा एनसीपी में हुआ है। पहले भी अन्य कई दलों में ऐसा हो चुका है।

अगर महाराष्ट्र की ही बात करें तो शिवसेना (Shiv Sena) को ऐसे झटके एक बार नहीं दो बार लग चुके हैं। पहली बार जब बाला साहेब ठाकरे के अपने पुत्र उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) को आगे बढ़ाने के प्रयास से असन्तुष्ट होकर उनके भतीजे राज ठाकरे (Raj Thackeray) उनसे अलग हो गए थे। दूसरी बार जब उद्धव ठाकरे से असन्तुष्ट होकर एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) के नेतृत्व में शिवसेना दो फाड़ हो गई थी।Maharashtra Politics NCP Crisis

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