हल्द्वानी: दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश भारत का 70 प्रतिशत भाग जल से घिरा हुआ है. ऐसे में यदि देश में जल कल है या नहीं? यह विचारणीय प्रश्न बन जाए तो यह समझा जा सकता है कि देश में जल संकट की समस्या विकराल हो चुकी है. अक्सर गर्मियों की शुरुआत होते ही पीने के पानी की समस्या शहर व ग्रामीण क्षेत्रों की मुख्य समस्या बन जाती है और होगी भी, क्योंकि 70 प्रतिशत भाग में केवल 3 प्रतिशत ही पीने योग्य पानी है. जनसंख्या की दृष्टि से आंकलन किया जाए तो यह एक ज्वलंत समस्या नज़र आती है. नीति आयोग द्वारा 2018 में एक अध्ययन में भी अंकित किया गया था कि विश्व के 122 देशों में जल संकट की सूची में भारत का स्थान 120वां है. जिसमें और भी उछाल देखने को मिल रहा है.
शहरों की चकाचौंध अक्सर सबको अपनी ओर आकर्षित करती है. तीव्र शहरीकरण इसका ज्वलंत उदाहरण है. जहां कंक्रीट की ऊंची ऊंची बिल्डिंगें तो खड़ी कर दी गई हैं, लेकिन वहां पानी की समस्या का कोई स्थाई निदान नहीं किया गया है. यह समस्या केवल दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में ही देखने को नहीं मिल रहे हैं बल्कि पहाड़ी राज्य उत्तराखंड भी इसकी मिसाल है. राज्य का हल्द्वानी शहर जो कुमाऊ व गढ़वाल के लोगों की आवास की पहली पंसदीदा जगह है. इस शहर में आबादी का घनत्व तेजी से बढ़ रहा है तो साथ ही समस्याएं भी जिसमें जल की कमी प्रमुख है, बढ़ती जा रही हैं. लेकिन यहां जल विभाग की तारीफ करनी होगी, कि भले ही जनता को समय पर पानी मिले या न मिले, लेकिन भारी भरकम बिल अवश्य समय पर मिल जाते हैं.
पर्वतीय समुदाय के लिए आजीविका का सर्वोत्तम साधन कृषि है. लेकिन आज वही सबसे अधिक इसकी कमी से जूझ रही है. सिंचाई तो दूर की बात है, पानी के स्रोतों में पीने का पानी तक नहीं बचा है. जलवायु परिवर्तन ने भी भूमिगत जल संकट को बढ़ावा दिया है. सरकार द्वारा जल संकट में कमी लाने के लिए कई स्थानों पर हैंडपंप लगवाए गए हैं, मगर इन्हें लगाते समय इस बात का ध्यान तक नहीं दिया गया कि जल जो स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उनको किन स्थानों पर लगाया जा रहा है. कई हैंडपंप को देखकर इनका पानी पीने का मन तक नहीं करता है. इस संबंध में नैनीताल स्थित ग्राम सेलालेख के पूर्व ग्राम प्रधान गणेश लाल वर्मा बताते हैं कि उनके क्षेत्र में हर तीसरे दिन पानी सिर्फ 15 से 20 मिनट के लिए आता है जो उस इलाके के लोगों की पूर्ति नहीं कर पाता है. जिसके लिए प्रशासन को सूचित भी किया गया है. लेकिन उनके द्वारा सिर्फ आश्वासन दिया जाता है, समस्या का अंत आज तक नहीं हो पाया है. आज भी पानी का निर्धारित समय पर न आने से समुदाय का अधिकांश समय पानी के इंतजार में व्यतीत होता है अथवा महिलाओं को दूर दराज़ जाकर पानी लाना पड़ता है. जो उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है.
मैदानी क्षेत्र के लोग दो स्तरों पर जल संकट का दर्द झेल रहे हैं. एक बिना पानी के जल विभाग के बिलों का भुगतान और दूसरा टैंकरों से पानी खरीदने का आर्थिक बोझ. हल्द्वानी स्थित बजवालपुर गांव के आनंद सिंह बताते हैं कि उनके क्षेत्र में 24 घंटे में मात्र आधे घंटे के लिए पानी आता है. जो 1000 लीटर की टंकी भरने में सक्षम नहीं होता है. उन्हें इसके साथ 8-10 दिन में एक टैंकर पानी खरीदना भी पड़ता है जिसके लिए 700 प्रति टैंक का भुगतान करते हैं. देखा जाए तो यह उनके ऊपर अतिरिक्त व्यय जल की कमी से हुआ है. अक्सर प्रशासनिक बैठकों में उच्च अधिकारी पर्वतीय व मैदानी क्षेत्रों में शुद्ध जल उपलब्ध करवाने का दावा करते हैं, पर हकीकत बयां करते समुदाय के लोग बताते हैं कि ग्रामीण इलाकों में लगातार जलस्तर में गिरावट के चलते ग्रामीण हैंडपंप से पानी लेने के लिए विवश होने लगे हैं, जिसका पानी अक्सर गंदा ही होता है. लेकिन इसके बावजूद वह इसे पीने के लिए मजबूर हैं. इस संबंध में राधा देवी कहती हैं कि शाम को वह हैंडपंप से पानी लेकर रखती हैं तो सुबह तक बाल्टी का सारा पानी पीला हो जाता है व बाल्टी तक पीली हो जाती है. वहीं हल्द्वानी शहर की ममता देवी का कहना है पहाड़ों में वर्षा अधिक होने से उनके घर में इतना गंदा और काला पानी आता है जिसे देख पाना भी अत्यंत ही मुश्किल होता है.
हम सब जानते हैं कि जल कितना अनमोल है. इसकी महत्ता को समझना हम सबकी जिम्मेदारी है. इस संबंध में ग्राम नाई के पर्यावरणविद् चंदन नयाल का कहना है कि यदि हमें जीवन और सभ्यता को बचाना है तो जल संरक्षण और संचयन के उपाय करने होंगे. जल स्रोत घट रहे हैं लेकिन इसके विपरीत जनसंख्या प्रतिवर्ष तेज़ी से बढ़ रही है. आने वाला समय और भयानक होगा. इसके लिए हमें अपने जंगलों को भी बचाना होगा. यदि जंगल रहेंगे तो जल संकट नहीं होगा. उनका कहना था कि इसके लिए हमें वन पंचायतों व बंजर क्षेत्रो में खाल खन्तियों का निर्माण करना चाहिए, साथ ही चौड़ीदार पत्ते वाले पेड़ो का रोपण व उनका रखरखाव को बढ़ावा देना होगा. चंदन विगत 6 वर्ष में 40000 पौधों के रोपण के साथ 1000 खाल खन्तियों का निर्माण कर चुके हैं. जिससे स्रोतों, नालों व गधेरों के जलस्तर में वृद्धि देखने को मिल रही है. बदलते मौसम की मार का प्रकोप राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों ने बाढ़ो के रूप में देखे हैं.
वैज्ञानिक और विशेषज्ञ कई मंचों पर लगातार जल संकट में कमी लाने पर ज़ोर दे रहे हैं. इसके लिए हम सभी को जल उपयोग में सतर्कता बरतने की ज़रूरत है. कृषि अनुसंधानों को भी ऐसे बीजों को बढ़ावा देना होगा जो पानी की कम खपत करे और अधिक पैदावार दे. सिंचाई कार्यों के लिए स्प्रिंकलर ड्रिप सिंचाई जैसी स्कीमों को ज़्यादा बढ़ावा देने की ज़रूरत है. इसके साथ साथ वर्षा जल का समुचित संग्रह किया जाना भी आवश्यक है जो बदल रही जलवायु परिवर्तन के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है.
लेकिन सबसे पहले जल प्रबंधन एवं जल संरक्षण की दिशा में जल जागरूकता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इसे जन-जन की मुहिम बनाने की आवश्यकता है. स्कूली पाठ्यक्रमों में न केवल इसे अनिवार्य करने की ज़रूरत है बल्कि विद्यार्थियों के साथ इसे प्रैक्टिकल के रूप में भी करने की ज़रूरत है ताकि वह इसकी महत्ता को समझ सकें. शायद नई पीढ़ी में जागरूकता ही जल के संकट को दूर करने में कारगर साबित हो सकती है. वहीं औद्योगिक विकास की आड़ में जल के अंधाधुन दोहन को रोकने के लिये भी कड़े पारदर्शी कानून बनाये जाएं. यदि संकट हर मोर्चे पर खड़ा है तो उसका निदान भी सभी मोर्चों से करने की ज़रूरत है.
(चरखा फीचर)
नरेन्द्र सिंह बिष्ट
हल्द्वानी, उत्तराखंड