उत्तराखंड

केदारघाटी में पांडव लीला की अनूठी परंपरा, देव निशानों को गंगा स्नान न कराने पर होती है अनहोनी

Shantanu Roy
13 Nov 2021 12:32 PM GMT
केदारघाटी में पांडव लीला की अनूठी परंपरा, देव निशानों को गंगा स्नान न कराने पर होती है अनहोनी
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सर्दियों के मौसम में केदारघाटी के ग्रामीण इलाकों में काफी चहल-पहल देखने को मिलती है. इसका कारण यहां होने वाले पांडव लीला का आयोजन है. जिसमें प्रवासी अपने गांवों की ओर लौटते हैं.

जनता से रिश्ता। सर्दियों के मौसम में केदारघाटी के ग्रामीण इलाकों में काफी चहल-पहल देखने को मिलती है. इसका कारण यहां होने वाले पांडव लीला का आयोजन है. जिसमें प्रवासी अपने गांवों की ओर लौटते हैं. ऐसे में यहां का माहौल काफी धार्मिक सा बन जाता है. ऐसे में खाली पड़े वीरान घरों में रौनक भी देखने को मिलती है. साथ ही गांव भी खुशहाल नजर आता है. पांडव लीला की परंपरा सदियों से चली आ रही है, जिसका निर्वहन ग्रामीण आज भी कर रहे हैं.

वैसे तो केदारघाटी के लगभग हर गांव में पांडव नृत्य की पौराणिक परंपपरा है, लेकिन दरमोला भरदार एक ऐसा गांव है. जहां हर साल एकादशी पर्व से पांडव नृत्य की शुरूआत होती है. स्थानीय ग्रामीण सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. गांव में हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों को गंगा स्नान के साथ ही पांडव नृत्य का आगाज होता है. एकादशी पर्व को इसलिए शुभ माना गया है, क्योंकि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था. पांडव काल का स्कंद पुराण के केदारखंड में पूरा वर्णन मिलता है. एक ओर जहां ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचा रहे है, वहीं दूसरी ओर आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो रही है.
मंदाकिनी-अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान से शुरू होती है पांडव नृत्यः गढ़वाल मंडल में हर साल नवंबर महीने से लेकर फरवरी महीने तक पूरी आस्था के साथ पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग रीति रिवाज और पौराणिक परंपराएं होती हैं. कहीं दो तो कहीं पांच सालों बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है, लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा आज भी विद्यमान है.
इस गांव में यह परंपरा सदियों पूर्व से चली आ रही है. एकादशी की पूर्व संध्या पर दरमोला व स्वीली, सेम के ग्रामीण भगवान बदरीविशाल, लक्ष्मी नारायण, शंकरनाथ, नागराजा, चांमुडा देवी, हीत भैरवनाथ समेत कई देवताओं के नेजा-निशान व गाजे बाजों के साथ अलकनंदा-मंदाकिनी के संगम तट पर पहुंचते हैं. यहां पर रात्रि को जागरण और देव निशानों की चार पहर की पूजा अर्चना की जाती है.


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