उत्तराखंड की मांग कर रहे आंदोलनकारियों के साथ हुई थी क्रूरता
नैनीताल: दो अक्टूबर को हुए रामपुर तिराहा कांड का वो काला दिन भला कौन भूल सकता है। भले ही आज उस रामपुर तिराहा कांड को हुए 29 साल हो गए हों लेकिन उसे याद कर आज भी हर उत्तराखंडी सहम जाता है। उस मंजर को याद कर आज भी लोगों का खून गर्म हो जाता है। ये वो दौर था जब “बाड़ी मंडुआ खाएंगे उत्तराखंड बनाएंगे” जैसे नारे पूरे गूंज रहे थे। 29 साल पहले उत्तराखंड से दिल्ली इंसाफ मांगने दिल्ली जा रहे निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाई गई थी। महिलाओं के साथ भी बर्बरता की गई थी।
उत्तराखंडियों का कभी ना भरने वाला जख्म, रामपुर तिराहा कांड
एक और दो अक्टूबर सन 1994 की रात अलग राज्य निर्माण की मांग को लेकर प्रदर्शन के लिए दिल्ली जा रहे लोगों को रामपुर तिराहे पर रोका गया था। इस दौरान इंसाफ मांगने जा रहे निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाई गई। लाठियां भांजी गई। इस दौरान इस दौरान पुलिस फायरिंग में छह व्यक्ति शहीद हो गए थे, एक ने अस्पताल मे दम तोड़ दिया था और एक आज तक लापता है।
रामपुर तिराहा कांड उत्तराखंडियों के लिए कभी ना भरने वाले एक जख्म की तरह है। जिसे याद कर 29 साल बाद भी हर उत्तराखंडी का खून खौल उठता है। क्योंकि ना केवल आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाई गई थी बल्कि महिलाओं के साथ भी बर्बरता की गई थी। उत्तराखंड निर्माण के लिए चले संघर्ष में दो अक्टूबर का दिन अविस्मरणीय बन गया। ये वही दिन था जब उत्तराखंड प्रदर्शन के लिए जा रहे आंदोलनकारियों पर तत्कालीन सपा सरकार की गोलियां बरसी थीं।
महिलाओं की इज्जत हुई थी तार-तार, देखती रही सरकार
इस घटना को आज भी लोग कभी ना भरने वाला जख्म इस लिए मानते हैं क्योंकि ये वही काला दिन था जब उत्तराखंड की बेटियों की आबरू लूटी गई थी और सरकार केवल मूकदर्शक बनी हुई थी। बता दें कि एक और दो अक्टूबर की रात को पीएसी और पुलिस की गरजती गोलियों के बीच आंदोलनकारी महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़ के आरोप भी लगाए गए।
मुजफ्फरनगर के लोगों ने आंदोलनकारियों को न केवल आश्रय दिया बल्कि उनकी मदद भी की। निकटवर्ती गांव सिसोना, रामपुर और मेदपुर के लोगों ने रात के अंधेरे में पुलिस बर्बरता के शिकार लोगों और महिलाओं को शरण दी थी।
शहीदों की याद में बनाया गया स्मारक
उत्तर प्रदेश के रामपुर में जिस जगह पर रामपुर तिराहा कांड हुआ वहां उत्तराखंड के शहीदों की याद में स्मारक का निर्माण कराया गया। ये स्मारक आज भी उत्तराखंड निर्माण के लिए यादें समाए खड़ा हुआ है। उत्तराखंड के लोगों के लिए आज यह स्मारक किसी तीर्थ से कम नहीं है। खास तौर से रामपुर तिराहा कांड की बरसी पर हर साल यहां शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते रहे हैं।
सात आंदोलनकारी हुए थे शहीद, एक आज भी लापता
रामपुर तिराहा कांड में पुलिस फायरिंग और लाठीचार्ज में देहरादून के नेहरू कॉलोनी निवासी रविंद्र रावत उर्फ गोलू, भाववाला निवासी सतेन्द्र चौहान, बदरीपुर निवासी गिरीश भदरी, अजब पुर निवासी राजेश लखेडा, ऋषिकेश निवासी सूर्य प्रकाश थपलियाल तथा ऊखीमठ रुद्रप्रयाग निवासी अशोक शहीद हुए थे।
घटनास्थल पर घायल शिमला बाइपास निवासी बलवंत सिंह जगवाण ने बाद में अस्पताल में दम तोड़ दिया था। भानियावाला निवासी राजेश नेगी इस घटना के बाद लापता हुए जो आज भी लापता हैं। छह सालों तक चले लंबे आंदोलन के बाद उत्तराखंड तो बन गया। लेकिन दो अक्टूबर 1994 को हुए इस गोलीकांड को याद कर आज भी हर किसी की आंखें भर आती हैं।