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अकेले उन रास्तों में वह सहम सी गई थी।
वह चार थे और बेचारी अकेली खड़ी थी।।
बेदर्द है जमाना सुना था उसने।
लग रहा था वह बेदर्दी देखने वाली थी।।
कोमल से हाथो को कस के पकड़ा था उन जालिमों ने।
और वो बस दर्द से वह चीख रही थी रो रही थी।।
शर्म का पर्दा उठ रहा था।
और वो बेबस किसी के इंतजार में पड़ी थी।।
दुपट्टा फाड़कर मर्दानी दिखा रहे थे, वह कुछ बेदर्द लोग।
हद पार उन्होंने की, दुनिया उन्हें बेशर्म बता रही थी।।
निर्दोष हूं मैं, निर्दोष हूं मैं बस यही चिल्ला रही थी।
गिर रही थी और फिर खुद संभल रही थी।
तमाशा देख रहे थे कुछ लोग इस खौफनाक मंजर का।
और वो बेबस अकेली ज़माने को देख रही थी।
मंजू धपोला
कपकोट, बागेश्वर
उत्तराखंड
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