उत्तराखंड

गढ़वाल-कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी, जो नदी में बहाने जा रही थी अपनी अकूत दौलत

Deepa Sahu
10 May 2022 4:07 PM GMT
गढ़वाल-कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी, जो नदी में बहाने जा रही थी अपनी अकूत दौलत
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इस दुनिया में सब कुछ नश्वर है।

पिथौरागढ़: इस दुनिया में सब कुछ नश्वर है। धन-संपत्ति, बाहरी सुंदरता एक न एक दिन नष्ट होनी है, लेकिन जो बात शाश्वत है वो है सेवाभाव। आपके द्वारा निश्वार्थ भाव से की गई सेवा हमेशा याद रखी जाएगी। आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बनेगी।

आज हम आपको कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी की कहानी सुनाएंगे। सेठाणी जसुली शौक्याणी, वह महिला हैं, जिन्होंने कुमाऊं और गढ़वाल में कई धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। आज ये धर्मशालाएं भले ही जीर्ण-शीर्ण हो गई हों, लेकिन कभी यह यात्रियों के लिए आश्रय स्थल हुआ करती थीं। बात करीब पौने दो सौ साल पुरानी है। कुमाऊं की दारमा घाटी के दातूं गांव में जसुली दताल यानी जसुली शौक्याणी रहा करती थी। वो उस शौका समुदाय से थीं, जिनका तिब्बत के साथ व्यापार चलता था। उस वक्त जसुली शौक्याणी की गिनती गढ़वाल-कुमाऊं के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। जसुली के पास सब कुछ था, लेकिन दुर्भाग्य से वह कम उम्र में ही विधवा हो गईं। उनका इकलौता बेटा भी चल बसा।
हताशा भरे जीवन ने जसुली को तोड़ कर रख दिया। एक दिन उन्होंने फैसला लिया कि वह अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देंगी। संयोग से उसी दौरान उस दुर्गम इलाके में कुमाऊं के कमिश्नर रहे अंग्रेज अफसर हैनरी रैमजे का काफिला गुजर रहा था। साल 1856 में गढ़वाल-कुमाऊं के कमिश्नर रहे रैमजे नेकदिली के लिए मशहूर थे। रैमजे को जब जसुली के मंसूबों के बारे में पता चला तो वह तुरंत ही उनके पास पहुंचे और उन्हें कहा कि धन को पानी में बहाने की बजाय किसी जनोपयोगी काम में लगाएं। अंग्रेज अफसर का विचार जसुली को जंच गया। कहते हैं कि इसके बाद दारमा घाटी से वापस लौटते वक्त अंग्रेज अफसर के पीछे-पीछे जसुली की अकूत संपदा लेकर बकरी और मवेशियों का एक लंबा काफिला चला। रैमजे ने इस धन से कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत में व्यापारियों और तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। अब ये धर्मशालाएं भले ही खंडहर हो गईं हैं, लेकिन आज भी जसुली शोकायणि और रैमजे जैसे नेकदिल लोगों की याद दिलाती हैं।
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