इस समय देश के कई राज्यों में बाढ़ आई हुई है. पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन हो रहे हैं. या फ्लैश फ्लड आ रहे हैं. चारों तरफ जानमाल के नुकसान की खबर आ रही है. ऐसे समय में लोगों की मदद करने आती है आपदा प्रबंधन यानी डिजास्टर मैनेजमेंट की टीम. लेकिन क्या आपको पता है कि देश में पहली बार आपदा प्रबंधन की शुरुआत कहां से हुई? ये कहानी शुरू हुई उत्तराखंड के नैनीताल से. कम से कम स्थानीय इतिहास तो यही बताता है. स्थानीय लोग और जानकार भी इस बात को प्रमाणित करते हैं.
ये बात है 142 साल पुरानी. 16 से 18 सितंबर 1880 की. इन 48 घंटों में से 40 घंटे लगातार बारिश हुई. 838 मिलिमीटर बारिश दर्ज की गई. 18 को नैनीताल में भयानक भूस्खलन हुआ. 151 लोगों की मौत हो गई. मां नयना देवी मंदिर भी इससे नहीं बच पाया. इसी हादसे की वजह से वर्तमान राजभवन के बनने की वजह बनी. पहले राजभवन की नींव शेर का डांडा पहाड़ी पर रखा गया. फिर अल्मा हिल पहाड़ी पर स्नो व्यू पर स्थित मॉल्डन स्टेट में राजभवन बनाया गया. इन दोनों पहाड़ियों के पास भूस्खलन होने के बाद राजभवन को नई जगह ले जाने की बात हुई. फिर राजभवन को अयारपाटा पहाड़ी पर बनाया गया.
1880 से पहले 1867 में भी नैनीताल में भूस्खलन हुआ था. इसमें एक बड़ी चट्टान चार्टन लॉज क्षेत्र से गिरी पर उस वक्त बरसात नहीं हो रही थी. इसलिए जानमान का नुकसान नहीं हुआ. इसके बाद ही अंग्रेजों ने हिलसाइड सेफ्टी कमेटी बनाई. 13 साल बाद जब विनाशकारी भूस्खलन हुआ तो 1867 में बनाई गई कमेटी की सिफारिशों को देखा गया. नुकसान का आकलन करने के बाद सेफ्टी कमेटी की सिफारिशों को तत्काल लागू कर दिया गया. अंग्रेजों ने आपदा प्रबंधन के एक्सपर्ट्स से राय लेकर कई सख्त नियम और कानून बनाए. कई व्यवस्थाएं कीं. सख्ती से अमल नहीं करने और कानून तोड़ने वालों पर कड़ी सजा का प्रावधान था.
क्या-क्या काम किया था तब अंग्रेजों ने सुरक्षा के लिए
1856 से 1884 तक कमिश्नर रहे सर हेनरी रामसे ने जीएसआई के वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक डॉ. मिडलिमिस्ट से राय ली थी. नैनीताल के चारों ओर पहाड़ियों से पानी निकालने के लिए 79 किमी लंबे 60 नालों का निर्माण हुआ. ये आज भी भूस्खलन रोकने में मदद करते हैं. साथ ही पूरे शहर में नालियां बनाई गईं. इनके ऊपर किसी भी तरह के अतिक्रमण की अनुमति नहीं थी.
नैनीताल से किलबरी तक बांज के जंगल उगाए गए
अंग्रेजों के समय में नैनीताल में निर्माण के नाम पर कुछ ही खूबसूरत कोठियां थी. हर कोठी में एक टेनिस कोर्ट हुआ करता था. हिलसाइड सेफ्टी कमेटी ने यह भी व्यवस्था दी थी कि इन टेनिस कोर्ट में टर्फिंग की जाए. इनके नीचे ड्रेनेज की व्यवस्था हो. ताकि पानी निकल सके. अंग्रेजों ने बांज (Oak) की पांच प्रजातियों (बांज, रिंगाज, फलीहाट, तिलौंज और खरसू) के जंगल नैनीताल से किलबरी तक लगाये. बांज की जड़े वर्षा जल को अवशोषित करने व भूमिगत करने में मदद करती हैं. इससे जलस्रोतो में लगातार बहाव बना रहता है. बांज की जडे़ मिट्टी को जकडे़ रखती हैं. भूस्खलन की आशंका कम हो जाती है.
नैनीताल को सुरक्षा के आधार पर तीन ज़ोन में बांटा गया
अंग्रेजों ने नैनीताल में तीन जोन बनाए. पहला- सुरक्षित क्षेत्र (Safe Zone), दूसरा - असुरक्षित क्षेत्र (Unsafe Zone) और तीसरा- निषिद्ध क्षेत्र (Prohibited Zone). सेफ ज़ोन में निर्माण की अनुमति थी. असुरक्षित क्षेत्र में व्यक्ति अपने ज़ोखिम पर निर्माण कर सकता था. इस क्षेत्र में अगर किसी आपदा में उसका नुकसान होता तो उसकी जिम्मेदार सरकार नहीं होती. न मुआवजा मिलता, न ही उसका पुर्नवास होता. निषिद्ध ज़ोन में किसी निर्माण की अनुमति नहीं थी. लेकिन आज स्थिति यह है कि नैनीताल में 90% निर्माण निषिद्ध क्षेत्र में और 10% निर्माण असुरक्षित क्षेत्र में हो रहे हैं.
नैनीताल में कहां हैं सुरक्षित और असुरक्षित इलाके
नैनीताल का बड़ा बाजार क्षेत्र, तल्लीताल का रिक्शा स्टैंड इलाका, सेंट जोसेफ कॉलेज, जिला न्यायालय, कलेक्ट्रेट सेफ ज़ोन में था. चीना पीक पहाड़ी के नीचे वाला हिस्सा, मेल रोज कंपाउंड, अयारपाटा पहाड़ी में डिग्री कॉलेज के ऊपर वाला हिस्सा, तल्लीताल में लॉन्ग व्यू एरिया, गुफा महादेव और किशनापुर असुरक्षित ज़ोन में था. निषिद्ध जोन में अल्मा हिल पहाड़ी, शेर का डांडा पहाड़ी, बलिया नाले के ऊपर का रईस होटल का हिस्सा और मनोरा पीक निषिद्ध ज़ोन में था. मनोरा पीक में हनुमानगढ़ी मंदिर के अलावा आजतक कोई निर्माण नहीं हुआ. मनोरा पीक पर उत्तराखंड सरकार ने हेलीपैड बनाने का प्रयास किया था लेकिन भारी विरोध के बाद उसे टाल दिया गया.
ये था भूस्खलन को लेकर अब तक का पहला आपदा प्रबंधन, जिसे अंग्रेजों ने शुरू किया था. यह बात इतिहासकार प्रो. अजय रावत ने अपनी किताब "पॉलीटिकल हिस्ट्री ऑफ उत्तराखंड" में लिखी है. अंग्रेजों ने नैनीताल में चाल और खाल बनाए थे. नैनीताल में चारों तरफ वाटर बॉडीज बनाई गई थीं, इनमें बारिश का पानी जमा होता था. इन वॉटर बॉडीज से साल भर पानी रिसता हुआ नैनी झील में जाता था. इसकी वजह से झील में कभी पानी की कमी नहीं होती थी.
प्राकृतिक वेटलैंड्स में निर्माण पर लगाया गया था रोक
अंग्रेजों के समय में प्राकृतिक वेटलैंड में निर्माण प्रतिबंधित था. वेटलैंड वह जगह होती है जहां 6 महीना पानी भरा रहता है. बाकी महीने दलदली रहते थे. इन वेटलैंड का मुख्य काम साल भर नैनी झील को अंदर ही अंदर पानी की सप्लाई करना था. नैनीताल झील का मुख्य वेटलैंड सूखाताल झील थी, जो बरसात में पानी से भरी रहती थी. दूसरा महत्वपूर्ण वेटलैंड अयारपाटा पहाड़ी पर शेरवुड कॉलेज के गेट के पास और टिफिन टॉप पहाड़ी पर है. लेकिन आज इन वेटलैंड्स में पूरी तरह से अतिक्रमण कर लिया गया है. जबकि, इन वेटलैंड्स पर निर्माण पूरी तरह से प्रतिबंधित था.
बहुमंजिला इमारत और ग्रुप हाउसिंग पर सुप्रीम कोर्ट की रोक
इतिहासकार एवं पर्यावरणविद डॉ. अजय रावत कहते हैं कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी. तब कोर्ट ने फैसला दिया था कि नैनीताल में ग्रुप हाउसिंग पूरी तरह से प्रतिबंधित की जाए. डॉ. अजय रावत बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 674/1993 में यह फैसला भी हुआ था कि नैनीताल में बहुमंजिला बिल्डिंग नहीं बनेंगी. लेकिन ये तो आज भी बन रही हैं. यह सारी बहुमंजिला इमारतें टूटनी चाहिए. उनका बनना सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना है. डॉ. अजय रावत ने प्रयास किया था कि नैनीताल को इको-सेंसिटिव ज़ोन घोषित कर दिया जाए. भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने यह कर भी दिया. लेकिन उत्तराखंड सरकार ने इसे वेटलैंड घोषित नहीं किया. जबकि, माथेरान और माउंट आबू वेटलैंड घोषित हैं. इससे उनके टाउन प्लानिंग बेहतर हो जाती. पैसे की कोई कमी नहीं रहती. पैसा फिर केंद्र सरकार देती.
अंग्रेजों ने सर्वे करके नाले बनाए थे, अब वो दिखते ही नहीं हैं
भूविज्ञानी प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया ने बताया कि अंग्रेजों ने नैनीताल के तीनों तरफ चूना पत्थर (Limestone) की पहाड़ियों पर बनी दरारों को सख्त चिकनी मिट्टी से भरवा दिया था. सर्वे कराकर नाले बनाए थे. अब बहुत से नाले दिखते ही नहीं. जबकि नाले वहां पर हैं. उस समय कितनी भी बरसात हो जाए पानी बाहर नहीं आता था, सीधा अंदर ही अंदर झील में जाता था. इन नालों को समानांतर बनाया गया था. चूना पत्थर के पहाड़ों की गहरी दरारों को चिकनी मिट्टी से भरा गया था. बाकी दरारों को हम भारतीयों के जिम्मे छोड़ दिया था. हमने उन्हें कभी भरा ही नहीं. नैनीताल में सात नंबर की पहाड़ी, कुमाऊं विश्वविद्यालय के पीछे की पहाड़ी यह सब चूना मिट्टी की पहाड़ियां हैं. इनमें बहुत बड़ी दरारें हैं. यह दरारें बहुत गहरी और एक 1 मीटर से भी ज्यादा चौड़ी होती हैं.
भूविज्ञानी प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया.
भूविज्ञानी प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया.
बरसात का पानी इन गहरी दरारों में घुसता है. इन चट्टानों के टूट कर गिरने का और भूस्खलन का कारण बनता है. अंग्रेजों ने 1880 के बाद नैनीताल में इमारतों के निर्माण पर रोक लगा दी थी. खनन पर पूरी तरह से रोक थी. छोटे-छोटे टेरेस जहां पर अब लोगों ने खोदकर घर बना लिए हैं, वहां निर्माण बिल्कुल बंद था. अंग्रेजों ने सात नंबर की पहाड़ी, चाइना पीक, अयारपाटा की पहाड़ी, टूटा पहाड़ इन सारे स्लोप (ढलान) को पेड़ लगाकर पूरी तरह भरने को कहा था. पर हमने पेड़ न लगाकर निर्माण कर दिया. अंग्रेजों ने मवेशियों को चराने और घास काटने पर भी रोक लगाई थी.
वन विभाग ने प्राकृतिक वेटलैंड में बनाया चाल खाल, ये गलत है
पद्मश्री अनूप साह कहते हैं कि वन विभाग ने नई जगह खोजने के बजाय प्राकृतिक वेटलैंड में चाल खाल बनाकर सरकारी पैसे का दुरुपयोग किया है. अयारपाटा पहाड़ी में टिफिन टॉप के पास जो वेटलैंड था, वह एक बड़ा मैदान था. जिसमें घास थी. उसको वन विभाग ने खोदकर चाल खाल बना दिया. घास खुद ही पानी को सोखती है. चारों तरफ देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ यह मैदान बहुत ही खूबसूरत था. नगर के अधिकांश लोग यहां पिकनिक मनाने आते थे. सरकार का बजट खपाने के लिए उस सुंदर मैदान को खोदकर खराब कर दिया गया. अयारपाटा पहाड़ी का सबसे बड़ा वेटलैंड पाइथन वैली है. उसे भी खोद कर वन विभाग ने चाल खाल बना दिया. वह तो वेटलैंड ही था. उसे खोदने की जरुरत नहीं थी.
नैनीताल झील के साथ भीमताल झील, सातताल झील, नौकुचिया ताल झील और खुरपाताल झील के भी सारे वेटलैंड अतिक्रमण की चपेट में है. अंग्रेज शासन के इस भूस्खलन आपदा प्रबंधन ने नैनीताल को आज तक बचा के रखा है. शहर की नालियों से अतिक्रमण हटाना बेहद जरूरी है. अंग्रेजों द्वारा यहां उठाए गए कदम भूस्खलन रोकने के लिए आज भी कारगर हैं बशर्ते उनका उपयोग सही से हो. नियमों को सख्ती से लागू किया जाए.
कुमाऊं के कमिश्नर दीपक रावत.
कुमाऊं के कमिश्नर दीपक रावत.
नैनीताल को बचाने का हर संभव प्रयास करेगी सरकारः कमिश्नर कुमाऊं
कुमाऊं के कमिश्नर दीपक रावत ने सचिव जिला विकास प्राधिकरण को नैनीताल में ग्रीन बेल्ट और असुरक्षित क्षेत्र में अवैध निर्माण को चिन्हित कर एक सप्ताह में रिपोर्ट देने का निर्देश दिया है. आयुक्त ने कहा कि नैनीताल में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 1995 से व्यावसायिक निर्माण पर प्रतिबंध है. नैनीताल में असुरक्षित क्षेत्र और ग्रीन बेल्ट की वर्ष 2015 एवं वर्तमान की गूगल इमेज का परीक्षण कर, वर्ष 2015 से अब तक ग्रीन बैल्ट और असुरक्षित क्षेत्र में हुए अवैध निर्माण की विस्तृत आख्या देने के निर्देश सचिव, जिला विकास प्राधिकरण को दिए है.
दीपक रावत ने बताया कि उत्तराखंड सरकार नैनीताल के भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करेगी. वह मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के रूप में इस अभियान की शुरुआत कर चुके हैं. नैनीताल के बुजुर्ग लोगों जिन्होंने अंग्रेजों के समय का आपदा प्रबंधन देखा है, उनके पास जाकर उनसे राय लेंगे. साथ ही पर्यावरणविदों, इतिहासकारों एवं भूविज्ञानियों से बात करके नैनीताल को बचाने का हर संभव प्रयास करेंगे.
अंग्रेजों ने सर्वे करके नाले बनाए थे, अब वो दिखते ही नहीं हैं
भूविज्ञानी प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया ने बताया कि अंग्रेजों ने नैनीताल के तीनों तरफ चूना पत्थर (Limestone) की पहाड़ियों पर बनी दरारों को सख्त चिकनी मिट्टी से भरवा दिया था. सर्वे कराकर नाले बनाए थे. अब बहुत से नाले दिखते ही नहीं. जबकि नाले वहां पर हैं. उस समय कितनी भी बरसात हो जाए पानी बाहर नहीं आता था, सीधा अंदर ही अंदर झील में जाता था. इन नालों को समानांतर बनाया गया था. चूना पत्थर के पहाड़ों की गहरी दरारों को चिकनी मिट्टी से भरा गया था. बाकी दरारों को हम भारतीयों के जिम्मे छोड़ दिया था. हमने उन्हें कभी भरा ही नहीं. नैनीताल में सात नंबर की पहाड़ी, कुमाऊं विश्वविद्यालय के पीछे की पहाड़ी यह सब चूना मिट्टी की पहाड़ियां हैं. इनमें बहुत बड़ी दरारें हैं. यह दरारें बहुत गहरी और एक 1 मीटर से भी ज्यादा चौड़ी होती हैं.
बरसात का पानी इन गहरी दरारों में घुसता है. इन चट्टानों के टूट कर गिरने का और भूस्खलन का कारण बनता है. अंग्रेजों ने 1880 के बाद नैनीताल में इमारतों के निर्माण पर रोक लगा दी थी. खनन पर पूरी तरह से रोक थी. छोटे-छोटे टेरेस जहां पर अब लोगों ने खोदकर घर बना लिए हैं, वहां निर्माण बिल्कुल बंद था. अंग्रेजों ने सात नंबर की पहाड़ी, चाइना पीक, अयारपाटा की पहाड़ी, टूटा पहाड़ इन सारे स्लोप (ढलान) को पेड़ लगाकर पूरी तरह भरने को कहा था. पर हमने पेड़ न लगाकर निर्माण कर दिया. अंग्रेजों ने मवेशियों को चराने और घास काटने पर भी रोक लगाई थी.
वन विभाग ने प्राकृतिक वेटलैंड में बनाया चाल खाल, ये गलत है
पद्मश्री अनूप साह कहते हैं कि वन विभाग ने नई जगह खोजने के बजाय प्राकृतिक वेटलैंड में चाल खाल बनाकर सरकारी पैसे का दुरुपयोग किया है. अयारपाटा पहाड़ी में टिफिन टॉप के पास जो वेटलैंड था, वह एक बड़ा मैदान था. जिसमें घास थी. उसको वन विभाग ने खोदकर चाल खाल बना दिया. घास खुद ही पानी को सोखती है. चारों तरफ देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ यह मैदान बहुत ही खूबसूरत था. नगर के अधिकांश लोग यहां पिकनिक मनाने आते थे. सरकार का बजट खपाने के लिए उस सुंदर मैदान को खोदकर खराब कर दिया गया. अयारपाटा पहाड़ी का सबसे बड़ा वेटलैंड पाइथन वैली है. उसे भी खोद कर वन विभाग ने चाल खाल बना दिया. वह तो वेटलैंड ही था. उसे खोदने की जरुरत नहीं थी.
नैनीताल झील के साथ भीमताल झील, सातताल झील, नौकुचिया ताल झील और खुरपाताल झील के भी सारे वेटलैंड अतिक्रमण की चपेट में है. अंग्रेज शासन के इस भूस्खलन आपदा प्रबंधन ने नैनीताल को आज तक बचा के रखा है. शहर की नालियों से अतिक्रमण हटाना बेहद जरूरी है. अंग्रेजों द्वारा यहां उठाए गए कदम भूस्खलन रोकने के लिए आज भी कारगर हैं बशर्ते उनका उपयोग सही से हो. नियमों को सख्ती से लागू किया जाए.
नैनीताल को बचाने का हर संभव प्रयास करेगी सरकारः कमिश्नर कुमाऊं
कुमाऊं के कमिश्नर दीपक रावत ने सचिव जिला विकास प्राधिकरण को नैनीताल में ग्रीन बेल्ट और असुरक्षित क्षेत्र में अवैध निर्माण को चिन्हित कर एक सप्ताह में रिपोर्ट देने का निर्देश दिया है. आयुक्त ने कहा कि नैनीताल में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 1995 से व्यावसायिक निर्माण पर प्रतिबंध है. नैनीताल में असुरक्षित क्षेत्र और ग्रीन बेल्ट की वर्ष 2015 एवं वर्तमान की गूगल इमेज का परीक्षण कर, वर्ष 2015 से अब तक ग्रीन बैल्ट और असुरक्षित क्षेत्र में हुए अवैध निर्माण की विस्तृत आख्या देने के निर्देश सचिव, जिला विकास प्राधिकरण को दिए है.
दीपक रावत ने बताया कि उत्तराखंड सरकार नैनीताल के भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करेगी. वह मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के रूप में इस अभियान की शुरुआत कर चुके हैं. नैनीताल के बुजुर्ग लोगों जिन्होंने अंग्रेजों के समय का आपदा प्रबंधन देखा है, उनके पास जाकर उनसे राय लेंगे. साथ ही पर्यावरणविदों, इतिहासकारों एवं भूविज्ञानियों से बात करके नैनीताल को बचाने का हर संभव प्रयास करेंगे.