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हल्द्वानी, खतड़वा पर्व मुख्यतः शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार खतड़वा पर्व को कुमाऊं मंडल के लोग अपने सेनापति अपने राजा की विजय की खुशी में मनाते हैं। पहले जमाने मे संचार के साधन नही थे, उस समय ऊंची चोटियों पर आग जला कर संदेश प्रसारित किए जाते थे। संयोगवश अश्विन संक्रांति किसी राजा की विजय हुई हो या ऊंची चोटियों पर आग जला के संदेश पहुचाया हो, और लोगो ने इसे खतड़वा त्यौहार के साथ जोड़ दिया।
वैसे यह पर्व उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में पशुओं की रक्षा पर्व के रूप में मनाया जाता है। कुमाऊं में खतडुवा पर्व आज मनाया जाएगा। उत्तराखंड में लगभग प्रत्येक संक्रान्ति ( जिस दिन सूर्य भगवान राशी परिवर्तन करते हैं ) के दिन त्यौहार मनाने की परम्परा है। स्थानीय भाषा मे इसे सग्यान भी कहते है। इसी क्रम में आश्विन मास की संक्रांति के दिन उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के लोग खतडुवा मनाया जाता है। अश्विन संक्रांति को कन्या संक्रांति भी कहते हैं , क्योंकि इस दिन भगवान सूर्यदेव सिंह राशि की यात्रा समाप्त कर कन्या राशि मे प्रवेश करते हैं।
इस त्योहार को गैत्यार ,भैल्लो त्यौहार आदि नामों से भी मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष अश्विन संक्रांति को मनाया जाता है। अश्विन मास में पहाड़ों में खेती के काम की कम रहता है। लोग सुबह साफ-सफाई के साथ दिन में पूजा पाठ करके, पारम्परिक पहाड़ी व्यजंनों का आनन्द लेते हैं। घर के बच्चे की होती है। घर के बच्चे घर में मे जितने सदस्य होते हैं ,उतने डंडे बनाते हैं। उन डंडों को कांस की घास के साथ उसेअलग-अलग फूलों से सजाते हैं। डंडों के लिए, कास की घास और गुलपांग के फूल जरूरी माने जाते हैं। महिलाएं गाय के गोशाले को साफ करके वहां नरम घास डालती हैं। और अपनी पालतु गायों को आशीष गीत गाकर खतड़वे की शुभकामनाएं देती हैं।
औन्सो ल्यूला, बेटुलो ल्युला ,
गरगिलो ल्यूलो ,
गाड़ गधेरान बे ल्यूलो
त्यार गुसे बची रो ,तू बची रे।
एक गोरु बैटी गोठ भरी जो।
एक गुसैं बटी भितर भरी जो।
अर्थात , २ दूर दूर गधेरों पर्वतों से तेरे लिए अच्छी घास लाऊंगी ,बस तू सुखी सलामत रहे। तेरा मालिक सलामत रहे। एक गाय से पूरी गौशाला खुशहाल हो जाय। और तेरे मालिक का घर भी खुशहाल रहे। खतड़वा के दिन पहाड़ी ककड़ी का विशेष महत्व होता है। क्योंकि पहाड़ी ककड़ी खतडुवा पर्व के दिन प्रसाद के रूप में एक दूसरे को देते हैं। इसके लिए ककड़ी को एक दो दिन पहले से ही चयनित कर लिया जाता है। खतडवा मनाने वाले स्थान पर सूखी घास पूस इकट्ठा कर टीला सा बना दिया जाता है।
अब समय आता है, खतड़वा, भैलो मनाने का, चीड़ के लकड़ी की मशाल छिलुक जला कर ,खतड़वा के डंडों को गौशाले के अंदर से घुमा कर लाते हैं,और यह कामना की जाती है, कि आने वाली शीत ऋतु हमारे पशुओं के लिए अच्छी रहे और रोग दोषों से उनकी रक्षा हो। फिर उन डंडों को लेकर और साथ मे ककड़ी भी लेकर उस स्थान पर पर पहुंचा जाता है, जहां सुखी घास रखी होती है। उसके बाद सुखी घास में आग लगाकर ,उसे डंडों से पीटते हैं। और कुमाऊनी भाषा मे ये खतरुआ पर गीत गाये जाते हैं।
" भैलो खतड़वा भैलो ।
गाय की जीत खतड़वा की हार।
खतड़वा नैहगो धारों धार।।
गाई बैठो स्यो। खतड़ पड़ गो भ्यो।।"
फिर घर के सभी सदस्य खतडुवा, की आग को पैरों से फेरते हैं और उसे लांघते हैं। इसके पीछे मान्यता होती है कि जो खतडवा कि आग को कूद के ,या उसके ऊपर पैर घुमाकर फेरता है, उसे ठंड परेशान नहीं करती। खतड़वे कि आग में से कुछ आग घर को लाई जाती है। जिसके पीछे भी यही कामना होती है,की नकारात्मक शक्तियों का विनाश हो और सकारात्मकता बनी रहे । उसके बाद पहाड़ी ककड़ी काटी जाती है। थोड़ी आग में चढ़ा कर ,बाकी ककड़ी आपस में प्रसाद के रूप में बांट कर खाई जाती है। प्रसाद में कटी हुई पहाड़ी ककड़ी के बीजों का खतड़वा के दिन तिलक किया जाता है। अर्थात खतडुवा पर्व पर ककड़ी के बीजों को माथे पर लगाने की परम्परा होती है। किसी किसी गावँ में तो , खतरूवा मनाने के लिए विशेष चोटी या धार होती है,जिसे खतडूवे धार भी कहते हैं।
कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रों में , त्यौहार से 3-4 दिन पहले घास को मोड़ कर बूढ़ा और कांस के घास की बुढ़िया बना के ,गोबर के ढेर में रख देते है। खतडूवा पर्व की शाम को बूढ़े को उखाड़ कर ,घर के चारों ओर घुमा कर फेंक देते हैं। और बुढ़िया को जला के ,उसकी राख से आपस में तथा पशुओं को तिलक करते हैं।
कुछ लोग इसे कुमाऊनी और गढ़वाली की आपसी वैमनस्यता के रूप में भी जोड़ते हैं। जिसके अनुसार खतडुवा पर्व कुमाऊ के सेनापति गैंडा सिंह की जीत और और गढ़वाली सेनापति खतड़ की हार के रूप में मनाया जाता है। बहरहाल कोई भी इतिहासकार इसे स्पष्ट तौर से आज तक नहीं बता पाया। लेकिन ऐसा जरुर माना जाता है कि आज से मौसम करवट लेता है और और सर्दी बढ़ते चले जाती है।
अमृत विचार।
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