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बड़ी खबर
मथुरा। कृष्ण नगरी मथुरा में रविवार से आठ दिवसीय सांझी महोत्सव की शुरुआत हुई। भगवान श्रीकृष्ण के भक्त रसखान की समाधि पर प्रारम्भ हुआ यह महोत्सव 25 सितंबर तक चलेगा। महोत्सव में पहले दिन राजकीय संग्रहालय मथुरा और ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के सहयोग से विभिन्न प्रकार की जल सांझी, फूलों की सांझी, गोबर सांझी, केले के पत्तों की सांझी, कैनवास सांझी और रंगों की सांझी का प्रदर्शन किया गया। वहीं शाम को भजन संध्या का आयोजन हुआ। इसके अलावा महोत्सव में अगले सात दिनों में सांझी सेमिनार और सांझी प्रतियोगिता भी आयोजित की जाएगी। सांझी कला के साथ-साथ श्रद्धालुओं के मन को मोहित करने और ब्रज की संस्कृति के बारे में अवगत कराने के लिए रोजाना सायं 4 बजे से रात्रि 7 बजे तक भजन संध्या, सांझी समाज गायन, बनी-ठनी नाट्य रूपक, बेणी गूंथन रासलीला, लावनी लोकगीत, रसिया, ब्रज भाषा कवि सम्मेलन, लोक नृत्य और जिकड़ी भजन आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस आयोजन की ख़ास बात यह है कि इस महोत्सव में ब्रज के कलाकार ही प्रतिभाग कर रहे हैं।
श्राद्ध पक्ष में होता है उत्सव
ब्रज में विलुप्त होती जा रही सांझी कला के संरक्षण एवं संवर्धन का बीड़ा अब उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद ने उठाया है। परिषद के डिप्टी सीईओ पंकज वर्मा ने बताया कि श्राद्ध पक्ष में जब कोई उत्सव नहीं होते तब ब्रज में सांझी उत्सव मनाया जाता है। शहरी इलाकों में रंग व फूल, जल की सांझी बनाई जाती है। वहीं ग्रामीण अंचलों में गोबर से सांझी बनाकर महोत्सव मनाया जाता है। ब्रज के मंदिरों, कुंज और आश्रमों में मिट्टी के ऊंचे अठपहलू धरातल पर रखकर छोटी-छोटी पोटलियों में सूखे रंग भर कर इस कला का चित्रण किया जाता है, जिसे सांझी कला कहते है। इसके तहत भगवान श्रीकृष्ण के भक्त रसखान की समाधि पर आज से आठ दिवसीय सांझी महोत्सव की शुरुआत हो गई है, जो 25 सितंबर तक चलेगा।
दरअसल, ब्रज के मंदिरों में शरद उत्सव के अवसर पर सांझी का चित्रण किया जाता है, जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक यानि 15 दिनों तक मनाया जाता है। एक समय था जब अश्विन मास में वृंदावन के सभी मंदिरों में सांझी कलाकृति रची जाती थी। किन्तु अब वृंदावन के केवल तीन मंदिर ही 500 वर्ष प्राचीन इस परंपरा पालन करते हैं। जिनमें राधारमण मंदिर, भट्टाजी मंदिर तथा शाहजहाँ पुर मंदिर शामिल हैं।
स्वयं राधा रानी ने की शुरुआत
सांझी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'संध्या' शब्द से हुई है। संध्या, गोधूलि की वह बेला है जब गायें गो शालाओं में लौटती हैं। भारतीय धर्म ग्रन्थों में किसी भी अनुष्ठान के लिए इसे अत्यंत पवित्र समय माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, राधा रानी ने स्वयं सांझी की परंपरा का आरंभ किया था जब गोपियों के संग उन्होंने सांझी की अप्रतिम आकृतियों की रचना की थी। रूठे कृष्ण को मनाने के लिए उन्होंने वन जाकर रंग-बिरंगे फूल एकत्र किये थे तथा भूमि पर उन फूलों से उनके लिए सुंदर आकृतियां बनायी थीं। यही से इस धार्मिक परंपरा की 'सांझी' शुरुआत हुई थी।
ब्रज की संस्कृति को सहजने के लिए योगी सरकार ने बृज तीर्थ विकास परिषद का किया गठन
ब्रज की संस्कृति, कला और धरोहरों को सहजने और संवारने के लिए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश बृज तीर्थ विकास परिषद का गठन किया है। भगवान कृष्ण से संबंधित सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होने के फलस्वरूप ब्रज क्षेत्र प्राचीन काल से ही विभिन्न लोक शैलियों का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। हस्तकला, संगीत, वास्तुकला, शिल्पकला इत्यादि उनमें प्रमुख हैं। ब्रज में प्रचलित अनेक कलाओं में से एक है सांझी कला। ब्रज की इस प्राचीन कला को सहजने में अब उत्तर प्रदेश बृज तीर्थ विकास परिषद जुट गया है। प्रदेश सरकार का उद्देश्य लोगों को उनकी संस्कृति एवं इतिहास से जोड़ना है।
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