उत्तर प्रदेश

जानिये इतिहास में ,लालकिले से फतेहपुर सीकरी तक कितनी धूमधाम से होती थी मुगलों के दौर की दीपोत्सव

HARRY
24 Oct 2022 10:11 AM GMT
जानिये इतिहास में ,लालकिले से फतेहपुर सीकरी तक कितनी धूमधाम से होती थी मुगलों के दौर की दीपोत्सव
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दिल्ली का लाल किला दिवाली और बसंत उत्सव के सेलिब्रेशन का गवाह रहा है. 1720 से 1748 के दौर के बीच मुहम्मद शाह के समय में दिवाली का उत्सव खास अंदाज में मनाया जाता था.

पूरे देश में दिवाली यानी रोशनी का जश्न मनाया जा रहा है. आमतौर पर लोगों को लगता है कि मुगलों के दौर में दिवाली का त्योहार उतनी धूमधाम से नहीं मनाया जाता होगा, लेकिन इतिहास में ऐसी कहानियां दर्ज हैं जो पुष्टि करती हैं कि उस दौर में भी दिवाली का जश्न मनाया जाता था. इतिहासकारों का कहना है, मुगल भी दिवाली के आकर्षण से खुद को दूर नहीं रख पाए थे.मुगलों के दौर में दिवाली को जश्न-ए-चिरागा के नाम से जाना जाता था.

हालांकि कुछ रूढ़िवादी उलेमा इसे गैर-इस्लामी प्रथा मानते थे और अपनी सल्तनत में इसे मनाने के लिए मुगलों पर तंज भी कसते थे. उस दौर में भी उल्लू की बलि दी जाती थी, लेकिन मुगलों के लिए दिवाली सिर्फ जगमगाती रात थी.

मुगलों के दौर में कैसा होता था रोशनी का जश्न

आउटलुक की रिपोर्ट में इतिहासकार एवी स्मिथ लिखते हैं, दिल्ली का लाल किला दिवाली और बसंत उत्सव के सेलिब्रेशन का गवाह रहा है. 1720 से 1748 के दौर के बीच मुहम्मद शाह के समय में दिवाली का उत्सव खास अंदाज में मनाया जाता था. महल के सामने बने बड़े-बड़े मैदानों को आयोजन किया जाता था. दीये महल की खूबसूरती में चार चांद लगाते थे.

दिवाली के बारे में उनकी सोच कैसी थी?

मुगलों में सही मायने में दिवाली मनाने की परंपरा अकबर के दौर में आगरा के किले और फतेहपुर सीकरी में शुरू हुई, जहां उनकी बेगम जोधाबाई और बीरबल रहा करते थे. शाहजहां, अकबर और जहांगीर के दौर की दिवाली की तुलना की जाए तो सबसे ज्यादा अकबर के दौर में दिवाली की रौनक दिखती थी. सबसे क्रूर मुगल शासक माने जाने वाले औरंगजेब के लिए दिवाली सिर्फ राजपूतों के घराने से आने वाले तोहफों का सेलिब्रेशन मात्र था. दिवाली के मौके पर जोधपुर के राजा जसवंत सिंह और जयपुर के महाराजा जय सिंह के घराने से औरंगजेब के लिए कई बेशकीमती तोहफे भेजे जाते थे.

मुगलकाल के शासक दिवाली को लेकर अलग-अलग सोच रखते थे. कुछ के लिए यह ईश्वर का पर्व था. कुछ के लिए यह खील-चूरे खाने भर तक सीमित था. वहीं, कुछ ऐसे थे जो इसे रंग-बिरंगे त्योहार के तौर पर सेलिब्रेट करते थे.

कहा जाता था कि दिवाली की रात महल के सबसे ऊपरी हिस्से में विशाल दीपक जलाया जाता था. इसमें करीब 1 किलो रूई और कई लीटर सरसों के तेल का इस्तेमाल किया जाता है. दीया रातभर जल सके इसके लिए तेल डालने के लिए एक इंसान की तैनाती की जाती थी जो सीढ़ी की मदद से दीये को रोशन करता था.इतना ही नहीं, उस दौर में भी पटाखे जलाने का चलन था.

मुगलों के दौर की आतिशबाजी

मुगल इतिहास की जानकारी रखने वाले प्रोफेसर नजफ हैदर का कहना है कि मुगलों के दौर की पेंटिंग्स देखने से पता चलता है कि उस दौर में भी लोगों में पटाखे जलाने में दिलचस्पी रही है. दारा शिकोह की शादी से जुड़ी पुरानी पेंटिंग्स में पटाखों को जलते हुए दिखाया गया है. ऐसा ही नजारा मुगलों से पहले बनी पेंटिंग में भी नजर आता है. इससे यह बात पुख्ता होती है कि पटाखों और आतिशबाजी का दौर उनसे ज्यादा पुराना है.

कहा जाता है कि फिरोजशाह के शासनकाल में भी आतिशबाजियों का दौर चलता था. इसका इस्तेमाल जंग में भी होता था. जब भी विरोधियों को पछाड़ना होता था तो पटाखे जलाए जाते थे ताकि हाथियों और दूसरे जानवरों को डराया जा सके. इतना ही नहीं मुगलों के दौर में शादियों से लेकर हर जश्न में पटाखों और आतिशबाजी का खास इंतजाम किया जाता था

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