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डाक्टरों के लिये अपने पसंद के ब्रांड की दवाएं लिखना भारी पड़ेगा
मेरठ: अब डाक्टरों के लिये अपने पसंद के ब्रांड की दवाएं लिखना भारी पड़ जाएगा। अब डाक्टरों को परचे में दवा के नाम के साथ उसका साल्ट भी लिखना पड़ेगा। अगर ऐसा हुआ तो डाक्टरों के क्लीनिकों में चलने वाले मिनी मेडिकल स्टोरों पर संकट के बादल आ जाएंगे क्योंकि मरीज अपनी पसंद के मेडिकल स्टोर से दवाएं खरीदना शुरु कर देगा। नये आदेश से एक फर्क यह भी पडेÞगा कि कंपनियां जो महंगे गिफ्ट दवाएं लिखने के लिये डाक्टरों को देती हैं वो अब नहीं दे पाएंगी, क्योंकि मरीज अपनी पसंद की दवाएं लेंगे और जेनरिक कंपनियों का लाभ सीधे ग्राहकों को मिलेगा।
जेनेरिक में जो टेबलेट तीन से पांच रुपये की मिल सकती है, वहीं दवा कंपनी ब्रांड के नाम से 20 से 25 रुपये की मिल रही है। लोगों को इसके लिए कई गुना पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं। जेनेरिक मेडिसिन को लेकर 2016 में कानून भी बनाया गया था। इस कानून के तहत डॉक्टर जेनेरिक दवाइयां लेने की सलाह देंगे। अधिकतर डॉक्टर दवाइयों का ब्रांड लिख रहे हैं। इससे महंगी दवाई मिल रही है।
इस कारण डाक्टर जेनेरिक दवाएं लिखने को तैयार नहीं होते है। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि डाक्टरों को ब्रांडेड कंपनियों की तरफ से मंहगे गिफ्ट मिलते हैं और कमीशन भी आकर्षक होता है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री जन औषधि केन्द्र में मिलने वाली दवाओं के बारे में इनकी सोच भी निगेटिव रहती है और मरीजों को उसी तरह फीड भी करते हैं। एक बड़ा कारण यह भी है कि जो डाक्टर दवा लिखता है वो उसके सेटिंग वाले मेडिकल स्टोर पर ही मिलती है।
इस कारण कंपनियां दवाओं की एमआरपी भी मनमाना लिखती हैं। मेरठ ड्रगिस्ट एंड केमिस्ट एसोसिएशन के महामंत्री रजनीश कौशल का कहना है कि काफी लंबे समय से मांग की जा रही थी कि डाक्टर जेनेरिक दवाएं लिखे, लेकिन सरकार के आदेश को डाक्टर मानने को तैयार नहीं थे। अब साल्ट लिखने से कंपनियां एमआरपी भी कम करेंगी और डाक्टरों को महंगे गिफ्ट देने में कंपनियों को होने वाले खर्च में कटौती भी होगी।
यह गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों के लिये काफी लाभकारी भी होगा। अब मरीज जहां मन करेगा साल्ट देखकर मेडिकल स्टोर से दवाएं लेगा। आदि मेडिकल स्टोर के दीपांश जैन का कहना है कि जेनेरिक दवाओं को लेकर भ्रम फैलाया जाता है कि दवाएं कम असर करती हैं, लेकिन डाक्टर जब परचे में साल्ट लिखेंगे तब मरीजों के सामने विकल्प रहेगा कि वो ब्रांडेड दवाएं ले या फिर जेनेरिक।
इससे सीधे तौर पर मरीज को फायदा रहेगा। गत वर्ष 29 जून को डिप्टी सीएम और स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक ने सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त अस्पतालों में जेनेरिक दवाओं को लिखने के आदेश दिये थे। हालात यह हैं कि कुछ डाक्टर ब्रांडेड दवाएं लिखने से बाज नहीं आ रहे हैं।
जेनेरिक दवाओं और ब्रांडेड में क्या है अंतर
किसी बीमारी की दवा एक तरह का केमिकल सॉल्ट होता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसके नाम से जानी जाती है। कंपनी जब इसे अपना नाम दे देती हैं, तो यह ब्रांडेड हो जाती है। जैसे दर्द या बुखार में काम आने वाली दवा में पैरासिटामोल सॉल्ट होता है, लेकिन जब इसे कोई ब्रांड बनाता है, तो उसे अपना नाम दे देता है। जहां सर्दी, खांसी, बुखार जैसी बीमारियों की जेनेरिक दवाएं 1-2 रुपये प्रति टेबलेट में उपलब्ध होती हैं, तो वहीं, ब्रांडेड के लिए ग्राहकों को इनकी कीमत कई गुना तक देनी पड़ती है।