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बड़ों पर ग्लूकोमा, बच्चों पर पड़ रही माओपिया की मार
आगरा न्यूज़: स्कूली बच्चों के चश्मे का नंबर बढ़ रहा है. आखें कमजोर होती जा रही हैं. यह माओपिया का जाल है. इसमें बच्चे फंसते जा रहे हैं. दूसरी और ग्लूकोमा ने दायरा बढ़ा दिया है. बड़ी उम्र के लोगों को सर्जरी करानी पड़ रही है. दोनों में ही टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर स्क्रीन का अधिक प्रयोग, पौष्टिक आहार की कमी, हरी सब्जियों का इस्तेमाल कम करना बड़े कारण हैं.एसएनएमसी में दोनों बीमारियों का इलाज है. दिक्कत यही है कि 90 प्रतिशत लोग रोशनी में दिक्कतें हो जाने के बाद आते हैं. इसके बाद भी डाक्टरों की सलाह नहीं मानते, दवाइयां नियमित नहीं लेते. कइयों की रोशनी चली जाती है.
डा. हिमांशु यादव, नेत्र रोग विभागाध्यक्ष एसएनएमसी.
नस खराब कर देता है ग्लूकोमा
जब आखों पर अंदर से तेज दबाव पड़ता है तो इसकी नसें सूख जाती हैं. इन्हें वापस पाना असंभव है. कई मामलों में यह क्षतिग्रस्त हो जाती हैं. इलाज सिर्फ इतना कि आखों पर दबाव को कम किया जाए. ऐसा दवाइयों और सर्जरी से किया जा सकता है. सर्जरी के दौरान आखों को संतुलित दबाव पर ले आते हैं. दिक्कत यह कि 90 प्रतिशत मरीज रोशनी जाने के बाद आते हैं. डाक्टर की सलाह भी नहीं मानते. वरना इसका सफल इलाज संभव है. एसएनएमसी में 100 में से पांच मरीज ग्लूकोमा के होते हैं. 40 से 65 साल तक के मरीज सर्वाधिक हैं.
रोका नहीं जा सकता माओपिया
एसएनएमसी आने वाले 100 में से 20-22 प्रतिशत बच्चे माओपिया की चपेट में हैं. यह दरअसल चश्मे का नंबर है जो माइनस में बढ़ता है. ऐसा 18 साल तक हो सकता है. इसके बाद के मामले पैथोलाजिकल माओपिया होते हैं. हालांकि यह बहुत कम है. इस बीमारी में पर्दा कमजोर हो जाता है, खिसकने का खतरा बढ़ जाता है. इस बीमारी को रोका नहीं जा सकता, मगर इसके आगे बढ़ने का खतरा कम किया जा सकता है. मेडिकल कालेज में ही शोध के बाद दवाई तैयार की गई है. इस ड्रग कांबीनेशन के काफी बेहतर परिणाम आ रहे हैं.