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उत्तर प्रदेश
Shivmurti के उपन्यास “अगम बहै दरियाव” पर आयोजित परिचर्चा: संगोष्ठी की रिपोर्ट
Gulabi Jagat
10 July 2024 12:28 PM GMT
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Lucknow लखनऊ: सुविख्यात साहित्यकार शिवमूर्ति जी का उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ ग्राम्य जीवन का ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज़ है जो कई दशकों के अपने फैलाव के साथ वर्तमान ग्रामीण भारत की ऐसी तस्वीर पेश करता है जिसका ‘अध्ययन’ करते हुए पाठक किसी ना किसी पात्र से ख़ुद की शिनाख़्त बआसानी कर लेता है। 7 जुलाई 2024 को कैफ़ी आज़मी एकेडेमी सभागार, लखनऊ में ‘अगम बहै दरियाव’ पर जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के तत्वाधान में एक परिचर्चा-संगोष्ठी का आयोजन किया गया। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष व प्रसिद्ध आलोचक प्रो० रविभूषण की अध्यक्षता में आहूत इस कार्यक्रम में हरिन्द्र प्रसाद, रुपम मिश्रा, सूरज बहादुर थापा, रामजी राय, प्रो० रमेश दीक्षित के एक समृद्ध पैनल ने ‘अगम बहै दरियाव’ के अनेक पहलुओं, कथानक, भाषा शैली, सरोकारों और विमर्शों पर अनेक कोणों से अच्छी तादाद में उपस्थित श्रोताओं के सामने समग्र चर्चा की गयी।
कार्यक्रम की बाक़ायदा शुरुआत जन संस्कृति मंच, लखनऊ इकाई के सचिव फ़रज़ाना महदी ने कार्यक्रम की रूपरेखा बयान करते हुए वक्ताओं और श्रोताओं के प्रति शुक्रिया अदा करते हुए हुए की। इसके बाद गोरखपुर से पधारे युवा आलोचक राम नरेश राम ने कार्यक्रम के संचालन का दायित्व सम्भाला। वक्ताओं को मंच पर आमंत्रित करने के बाद राम नरेश राम ने उपन्यास के चर्चित होने के मूल में विद्यमान कारणों एवं कारकों पर संक्षेप में बात रखी। उन्होंने कहा कि इसका मुख्य आकर्षण ‘साहित्य में उपेक्षित वर्ग की भाषा’ बनाम ‘स्थापित वर्ग की भाषा’ के सम्बंध में उपन्यास भाषा का नया क्रिटीक पेश करता है। चार दशक की कथा भूमि में मज़दूर, किसान, उपेक्षित स्त्री के जीवन की पहचान की अनेक धाराओं को पेश करते हुए वह सब बयान हुआ है जो स्पष्ट रूप से आज हमको राजनीति, सामाजिकी, न्यायनीति इत्यादि में दिखायी दे रहा है। किसानों की आत्महत्या, लिंचिंग, आनर किलिंग, कोर्ट-कचहरी, पुलिसिया छल, सामन्तवाद के उभार और उसके क्षरण, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और संस्थाओं का ‘ग़रीब का दुश्मन’ होने की प्रक्रिया पर यह उपन्यास एक सार्थक हस्तक्षेप है। चूँकि, उपन्यास के कथानक में अनेक क़ानूनी पहलू भी आए हैं तो उन पर चर्चा हेतु इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील हरिंन्द्र प्रसाद को सबसे पहले आमंत्रित किया गया।
हरिंन्द्र प्रसाद ने अपने लिखित वक्तव्य को इस बात को रेखांकित करते हुए शुरू किया कि शिवमूर्ति जी की विधिक पृष्ठभूमि न होने के बावजूद अपने कथानक में क़ानून के पहलुओं जिन बारीकी से पेश किया, वह आश्चर्यचकित कर देता हैं। इसके बाद उन्होंने भारतीय न्यायिक प्रक्रिया के विकास के इतिहास पर संक्षेप में बात को रखा। इसके साथ वर्तमान में जजों, अदालतों की संख्या के सापेक्ष केसों की संख्या पर भी स्थितियों से अवगत कराया। उन्होंने नॉवल के उन प्रसंगों को उद्धृत किया जो प्रशासन और न्याय व्यवस्था में मौजूद उन तत्वों और व्यवस्थाओं की पहचान कराते हैं, और अधिकारी के हित के पक्ष में होने के कारण उनके माध्यम से आर्थिक-सामाजिक शोषण का रास्ता खुलता है। इसके अतिरिक्त उपन्यास के पात्रों- संतोखी, सोना से जुड़े ग़रीबों के मामलों में न्याय व्यवस्था की उदासीन धीमी प्रक्रिया, सम्मन के सर्व किए जाने का सिस्टम, जिरह-बहस, गवाहों को होस्टाइल होना जैसे अनेक वास्तविकताओं से उन्होंने अपने पर्चे के माध्यम से अवगत कराया। हरिंन्द्र प्रसाद ने ज़ोर दे कर इस बात को रखा कि 29 वर्ष के कैरियर में डंब विट्नेस (इंडियन एविडेन्स ऐक्ट 1872 की धारा 119) का केस उन्होंने नहीं देखा जो हक़ीक़त बयानी के साथ शिवमूर्ति के इस नॉवल में बयान हुआ है। ज्ञातव्य है कि ब्रिटिश जासूसी उपन्यासकार आगथा क्रिस्टी के एक उपन्यास का नाम डंब विट्नेस है जिसका वायर फॉक्स टेरियर नस्ल का कुत्ता, बॉब मूक गवाह है। इस प्रकार ‘अगम बहै दरियाव’ उस न्याय बोध से परिचित कराता है जो वंचितों में पलते हुए संघर्ष में तब्दील हो रहा है।
उपन्यास में विशेष तौर पर स्त्री विमर्श के संदर्भ में प्रतापगढ़ से तशरीफ़ लायी कवि और लेखिका रूपम मिश्रा ने अपने वक्तव्य में इस बात को रेखांकित किया कि नॉवल मुकम्मल तौर पर एक गाँव की ज़िंदगी से परिचित कराता है जिसमें सभी वर्ग उपस्थित और समाहित हैं। उपन्यास की भाषा और कथा व कथानक का ऐसा प्रवाह है कि कहीं शिथिलता नहीं है। चार दशकों की सामूहिकता और अकेलेपन को समेटे इस नॉवल में सियासी गतिशीलता का बयान इस तरह है कि उपन्यास सामयिक भारतीय राजनीति के क्षरण पर एक दस्तावेज़ भी बन जाता है। सुश्री रुपम नारीवादी मीडिया प्लैटफॉर्म ‘फेमिनिज़म इन इंडिया’ से संबद्ध हैं, लिहाज़ा उपन्यास के हवाले से स्त्री विमर्श पर उनके विचारों को सुनने की सभी को तमन्ना थी, इस मामले में उन्होंने पूरी तरह से इंसाफ़ से काम लिया। सोना और बबलू के प्रेम प्रसंग के संदर्भ में रुपम ने बहुत ही सारगर्भित चर्चा पेश की कि कैसे सोना के पति को उसके भविष्य और वर्तमान की चिंता नहीं बल्कि वह अतीत के अन्वेषण में डूबा रहता है। स्त्री अस्मिता और उसकी गरिमा के उज्जवल आदर्श सोना सहित अनेक पात्र हैं जो श्रमशील समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो न्याय-अन्याय का अंतर समझती हैं और सामंती मूल्यों का विरोध और उनका संघर्ष उनके कथित अपनों के खिलाफ़ कर देता है। वह समाज से ही नहीं बल्कि सत्ता से भी प्रतिरोध करती है। एक प्रसंग “उपन्यास में जब संतोखी कहते हैं ‘आपसे नहीं राजा, अन्याय से लड़ूँगा। लड़ूँगा नहीं तो दुनिया को कौन सा मुँह दिखाऊँगा?’ के माध्यम से रूपम ने संतोखी जैसी की तमाम लड़ाइयों को बल मिलने की बात भी कही। रुपम ने संप्रदायिकता की समस्या के हवाले से भी बात रखते हुए कहा कि इसे चिन्हित करते हुए उपन्यास मिली-जुली संस्कृति की याद दिलाते हुए धर्म के मानवीय पक्ष में खड़ा नज़र आता है।
इसके बाद रूपम के बयान को मज़ीद बढ़ाते हुए संचालक ने यह बात भी रखी कि भारत के सामाजिक ज्ञान की स्थिति में बदलाव तैयार हुआ तो बहुजन परंपरा विकसित हुई और यहीं से उपन्यास एक कमंडल की राजनीति के रूप में एक प्रस्थान बिंदु देता है जहां बहुजन परंपरा ख़ात्मे की ओर गामज़न हुई। बातचीत को नयी दिशा देने के क्रम में रामनरेश राम ने अगले वक्ता के रूप में आलोचक प्रो सूरज बहादुर थापा को आमंत्रित किया, जिन्होंने ‘अगम बहै दरियाव’ को मुक्तिबोध की कविता और गोदान, मैला आँचल, राग दरबारी की परंपरा से जोड़ते हुए बात को शुरू किया और कहा कि जो विमर्श का दौर आया है, उसने विमर्श को एक ‘पैशन’ में बदल दिया है। उनके अनुसार यह नॉवल अमृतकाल के नैरेटिव को हर स्तर पर खंडित करता है। पूरा उपन्यास भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियों का लेखा जोखा है जिसमें हर तबक़े में पैदा होने वाली चेतना में महीन और बारीक तरीक़े से आने वाले बदलाव का खामोशी से प्रस्तुतिकरण है। कांशीराम के जागरण से शुरू होने वाला विमर्श, जो दायीं बाज़ू के गठजोड़ के समीकरण पर आधारित सियासत पर ख़त्म होता है, वहीं मार्क्सवादी विमर्श जैसे अनेक प्रसंग मौजूद हैं जो नवीन आलोचनात्मक डिबेट की नींव रखते हुए लेखक की जागरुक बेचैनी पेश करते हैं। अपने वाक्तव्य में थापा जी ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात रखी कि जिस प्रकार बिपिन चंद्र समकालीन भारत इतिहास लेखन की विशेष शैली के लिए मशहूर हैं, शिवमूर्ति जी ने विशेष साहित्यक शैली में वर्तमान को निर्मित किया है। ‘अगम बहै दरियाव’ में रूपकों के बेहतरीन इस्तेमाल की मिसाल के तौर पर ‘बनकट’ की व्याख्या करते हुए थापा जी ने कहा कि ‘बनकट’ वास्तव में लोकतंत्र को निरूपित करता है जिसकी संस्था रूपी तमाम शाखाओं को काटा जा रहा है। इस प्रक्रिया में शिवमूर्ति की बेचैनी नेपथ्य में मातमी धुन बजाने वाली बस्ती के दुःख दर्द में शामिल करा देती है। थापा जी कहते हैं कि उपन्यास में पठनीयता को धार देने के लिए लोक गीतों के बल से बातों को रखा गया है। उन्होंने उपन्यास के स्त्री नायकों का ज़िक्र करते हुए इसमें इस स्तर पर ख़ास संवेदना और सेंसिविटी है।
इसके बाद, ‘समकालीन जनमत’ के प्रधान संपादक रामजी राय ने स्पष्ट करते हुए अपनी बात शुरू की कि वह उपन्यास के प्रति मूल निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं, विमर्श से वाबस्तागी के तक़ाज़े के तहत थोड़ा और समय चाहिए। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि उपन्यास के नाम में ही धारा दिखायी दे रही है, जिसका मुख्य केंद्र बिंदु आज़ादी के बाद का जीवन है, उसकी धारा है और समय की धारा है जिस पर किसी का कोई वश नहीं चलता। उपन्यास प्रतिरोध के फैलाव को बयान करता हैं। उपन्यास के प्रसंगों के संदर्भ में संवैधानिक सरोकारों के हवाले से रामजी राय फ़रमाते हैं कि क़ानून ग़रीबों को डराने और अमीरों को चैन की नींद की ज़मानत देता है। अगम बहै दरियाव बहेगा, बस हमको अपनी भूमिका तय करना है कि बहाव में कैसे आगे बढ़ा जाए?
प्रोफ़ेसर रमेश दीक्षित ने अपनी बात की शुरुआत इस तथ्य की ओर आकर्षित कराते हुए की कि उपन्यास में अवध के सुल्तानपुर ज़िले से आयी भाषा की धार का प्रयोग एक सुखद अनुभूति है, वहाँ का नक्शा इस प्रकार बयान हुआ है कि गाँव पहचान में आ सके। ‘बनकट’ समस्त ग्रामीण शैली का प्रतिनिधि है। डायनामिक्स, सामाजिकी, पारिवारिक माहौल, अर्थव्यवस्था के हवाले से तमाम प्रसंगों को अवध के संदर्भ में उपन्यास एक अहम और बड़ा फ़लक फ़राहम करता है। उपन्यास इस बात पर ज़ोर देता है कि शोषित समाज को लोकतंत्र, क़ानून के राज की सबसे ज्यादा ज़रूरत होने के बावजूद इस स्तर पर रिकार्ड सबसे ज्यादा ख़राब है क्योंकि सब ज्यादती क़ानून के दायरे में हो रही है। उन्होंने उपन्यास के हवाले से 1795 के पूर्व शूद्रों के संपति के अधिकार, वस्त्रों के धारण किए जाने के संदर्भ में ईस्ट इंडिया कम्पनी का ज़िक्र करते हुए तफ़सील से बात रखी। गाँव की जड़ता के संदर्भ में अम्बेडकर और गांधी जी के विचारों के आलोक में गाँव को इकाई न बनाए जाने की पृष्ठभूमि पर उन्होंने विचार रखते हुए कहा कि सामाजिक बदलाव ज़रूरी है। उपन्यास के बिंदुओं के पक्ष में महाजन बनाम बैंक, एम॰एस॰पी॰ जैसे उदाहरण पेश करते हुए इस संदर्भ में दीक्षित जी ने समकालीन भयावह स्थिती को पेश किया। उपन्यास में अन्याय को उजागर करने वाले प्रसंगों, दलित चेतना की समस्याओं, स्त्री विमर्श के सरोकारों, वर्ण-व्यस्था के अमानवीय पहलुओं के हवाले से दीक्षित जी ने अपने वक्तव्य में बदलाव की बाज़गश्त को मज़बूत बनाया।
प्रो० रविभूषण ने अपने ‘सदारती ख़ुत्बे’ में उपन्यास के विषय में ख़त ए कशीदा खींचते हुए कहा कि प्रस्तुत विमर्श किसी विशेष इलाक़े तक महदूद नहीं हैं बल्कि पूरे देश और समाज के मलामत में एक सशक्त हस्तक्षेप की हैसियत रखता है। 1972 से आज तक न्यायपालिका का क्षरण सबके सामने है। दिनांक 12 जनवरी 2018 के संकट का विशेष संदर्भ देते हुए, जबकि सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्ती चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ़ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से कतिपय राजनीतिक रूप से विवादास्पद मामलों को ऐसी पीठों को आवंटित करने का मामला उठाया था जो कथित तौर पर किसी राजनीतिक दल के पक्ष में अनुकूल निर्णय देते है, रविभूषण जी ने कहा कि यह प्रसंग भी उपन्यास में आता है। उन्होंने उपन्यास में उठाए गए तमाम मुद्दों, विमर्शों, सरोकारों पर स्पष्टता के साथ बात करने की आवश्यकता पर बल दिया। रवि जी ने उपन्यास के अनेक अध्यायों, विशेषकर अध्याय संख्या 8 व 9 को इंगित करते हुए जाति विमर्श को आगे बढ़ाने और वर्ण-आश्रम के खिलाफ़ मुखरता के साथ खड़े होने की बात रखी। उपन्यास के हवाले से यह बात भी रखी कि पूँजी एक रेफ़्री का किरदार निभा रही है, ऐसी अवस्था में वामपंथ को भी काफ़ी-कुछ सोचना होगा। उपन्यास की विशेषता यह भी है कि 200 से ज्यादा पात्रों में 15 से अधिक पात्र याद रखने वाले हैं। उपन्यास में इमर्जेन्सी, अयोध्या प्रकरण, संप्रदायिकता, टिकट वितरण प्रणाली, शिक्षा के महत्व इत्यादि के हवाले से जो प्रसंग आए हैं, उनका सारगर्भित विवरण रखते हुए उपन्यास की भाषा शैली की विशेषता पर रवि जी की चर्चा में जीओ-लिटरेरी ऐक्टिविटीज़ का ज़िक्र भी आया। रविभूषण जी ने उपन्यास के सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करते हुए इसमें नौटंकी, लोक गीतों, सांस्कृतिक रस्मों के समावेश पर विशेष चर्चा की। अंत में उन्होंने एक बहुत ज़रूरी और उपयोगी परामर्श दिया कि ‘अगम बहै दरियाव’ पर व्यापक चर्चा और समीक्षा के लिए ज़रूरी है कि इसके विभिन पक्षों और विमर्शों पर विभिन्न गोष्ठियों के ज़रिए अलग-अलग चर्चा की जाए।
इस आयोजन का मुख्य आकर्षण था चर्चा के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम का पेश किया जाना। कवि व लोक गायक ब्रजेश यादव ने उपन्यास के लोक-गीतों को ख़ास अवधी लहजे में मधुर आवाज़ में ऐसा पेश किया कि तमाम श्रोता मंत्र-मुग्ध नज़र आए। कार्यक्रम के अंत में सईदा सायरा ने धन्यवाद प्रस्ताव पढ़ा।
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