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मध्य प्रदेश
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के उत्तराधिकारी घोषित, इन्हें मिली जिम्मेदारी
Admin2
12 Sep 2022 11:33 AM GMT
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नरसिंहपुर: मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में बीते रविवार को शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का निधन हो गया था. उनके निधन के बाद उनका उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया है. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के दो शिष्यों को अलग-अलग मठों की जिम्मेदारी मिली है. स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ और स्वामी सदानंद को द्वारका शारदा पीठ का प्रमुख बनाया गया है. इसकी घोषणा स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के पार्थिव शरीर के सामने उनके निज सचिव सुबोद्धानंद महाराज ने की. उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि अब से आप दोनों पीठों का कामकाज संभालेंगे.
बता दें, क्रांतिकारी साधु के रूप में मशहूर द्वारका पीठ के जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का रविवार को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले स्थित उनके आश्रम झोतेश्वर में हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया था. वह 99 साल के थे. वह धार्मिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर अमूमन बयान दिया करते थे और शिरडी के साई बाबा को भक्तों द्वारा भगवान कहे जाने पर सवाल उठाया करते थे. वह गुजरात स्थित द्वारका-शारदा पीठ एवं उत्तराखंड स्थित ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य थे और पिछले एक साल से अधिक समय से बीमार चल रहे थे.
लंबे समय से बीमार चल रहे थे स्वरूपानंद सरस्वती
वह स्वतंत्रता सेनानी, रामसेतु रक्षक, गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवाने वाले और राम जन्मभूमि के लिए लंबा संघर्ष करने वाले, गौरक्षा आंदोलन के प्रथम सत्याग्रही एवं रामराज्य परिषद् के प्रथम अध्यक्ष थे और पाखंडवाद के प्रबल विरोधी थे. वह डायलिसिस पर थे और पिछले कुछ महीनों से आश्रम में अक्सर वेंटिलेटर पर रखे जाते थे, जहां उनके इलाज के लिए एक विशेष सुविधा बनाई गई थी. इसके अलावा, वह मधुमेह से पीड़ित थे और वृद्धावस्था संबंधी समस्याओं से भी जूझ रहे थे.
सिवनी जिले में हुआ था जन्म
उनके शिष्य दंडी स्वामी सदानंद ने कहा कि ज्योतिष एवं शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में हुआ था. उनके बचपन का नाम पोथीराम उपाध्याय था. उन्होंने बताया कि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने नौ साल की उम्र में अपना घर छोड़कर धर्म यात्राएं प्रारंभ कर दी थीं.
1981 में बने थे शंकराचार्य
शंकराचार्य के एक करीबी व्यक्ति ने बताया कि अपनी धर्म यात्राओं के दौरान वह काशी पहुंचे और वहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्रीस्वामी करपात्री महाराज से वेद-वेदांग एवं शास्त्रों की शिक्षा ली. यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी. जब 1942 में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह क्रांतिकारी साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए. उन्होंने कहा कि उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दो बार जेल में रखा गया था, जिनमें से एक बार उन्होंने नौ माह की सजा काटी, जबकि दूसरी बार छह महीने की सजा काटी. वह 1981 में शंकराचार्य बने थे.
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