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MP मध्यप्रदेश ; 1989 के बाद 2009 को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी को मध्यप्रदेश में कभी भी 25 से कम लोकसभा सीट नहीं मिली। प्रदेश ने तो इस बार 29 में से 29 सीट दी। किसी राज्य में भाजपा ने सारी सीट नहीं जीती है। यहां तक कि नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में भी पार्टी ये करिश्मा नहीं कर सकी फिर भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में भाजपा को केवल पांच मंत्री मिले। छठे मंत्री एल मुरुगन केरल के हैं। इसके उलट केवल पांच सीट देने वाले हरियाणा को तीन व 17 सीट देने वाले महाराष्ट्र Maharashtraको सात मंत्री पद दिए गए हैं। सातवें ने कैबिनेट मंत्री बनाए जाने की मांग को लेकर शपथ नहीं ली। इतना ही नहीं केवल 36 सांसद देने वाले उत्तरप्रदेश को मंत्रिमंडल में 12 स्थान मिले हैं। मप्र की तरह ही छत्तीसगढ़ को भी 11 में से दस सीटें भाजपा को देने के बाद भी केवल एक मंत्री पद मिला।
मध्यप्रदेश ने भाजपा को हमेशा दिल खोलकर वोट दिए। 1989 में, जब अविभाजित मध्यप्रदेश में 40 सीट हुआ करती थीं, भाजपा को 28 सीट मिली थी। तब से अब तक केवल 2009 में यह आंकड़ा 16 पर पहुंचा था। इसके बाद भाजपा को कभी भी 25 से कम सीट नहीं मिली। नरेंद्र मोदी सरकार की बात करें तो 2014 में 27 तो 2019 में 28 सीट भाजपा को दी लेकिन प्रदेश को मोदी मंत्रिमंडल में वैसा महत्व कभी नहीं मिला जैसी सीट प्रदेश ने भाजपा की झोली में डाली हैं। ऐसे में प्रदेश को अपने आप से यह पूछने का अधिकार है कि आखिर वो वोट किसलिए दे रहा है? क्या मप्र और छत्तीसगढ़ को भाजपा का वोट बैंक बनने का नुकसान हो रहा है?
चार सांसद पर एक मंत्री
मोदी मंत्रिमंडल में चार FOUR सांसदों पर एक मंत्री का फॉर्मूला तय किया गया था लेकिन कुछ सहयोगी दल इस फॉर्मूले से मंत्रिमंडल से बार हो रहे थे। ऐसे में उनको भाजपा ने अपने खाते से जगह दी हैं। जीतनराम मांझी अपनी पार्टी के अकेले सांसद हैं लेकिन वे इसी तरह कैबिनेट मंत्री बनाए गए। इस फॉर्मूले से मप्र MP को सात मंत्री मिलने चाहिए थे और छत्तीसगढ़ को कम से कम तीन लेकिन चुनाव वाले राज्य हरियाणा में सामाजिक समीकरण बैठाने के चक्कर में वहां पर भाजपा ने पांच सीट जीतने पर भी तीन सांसदों को मंत्री बनाया। 36 सीट देने वाले यूपी से 11 मंत्री बनाए गए।
चुनावी गणित में एमपी पीछे
महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन को केवल 17 सीट मिली। इनमें भी भाजपा को नौ सीट SEAT मिली लेकिन सात मंत्री पद दिए गए। छह ने शपथ ली लेकिन अजीत पवार वाली एनसीपी ने स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्री का पद लेने से इंकार कर दिया। इसके चलते उनके कोटे से किसी भी मंत्री ने शपथ नहीं ली। बताया जा रहा है जिन राज्यों में हाल में चुनाव होने हैं, वहां का विशेष ध्यान रखा गया। इसके चलते ही हरियाणा और महाराष्ट्र को लाभ हुआ है। मध्यप्रदेश में चुनाव के चार-पांच महीने बाद ही लोकसभा चुनाव का समय हो जाता है। इसके चलते यहां समीकरण साधने की जरुरत नहीं पड़ती।
वोट बैंक बनने का नुकसान?
मध्यप्रदेश 1989 तो छत्तीसगढ़ भी अलग राज्य बनने के बाद से भाजपा BJP के पीछे चट्टान की तरह खड़ा है। इन राज्यों को इसी का परिणाम भुगतना पड़ रहा है। इन लोगों ने अपने राजनीतिक विकल्प सीमित कर लिए हैं और बार बार एक ही पार्टीको मौका देकर खुद को भाजपा का वोट बैंक साबित किया है। संभव है इसके चलते दोनों राज्यों को कम प्रतिनिधित्व मिला।
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Tekendra
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