केरल

केरल हाई कोर्ट का फैसला, पति का पत्नियों के साथ बराबरी का व्यवहार न करना तलाक का आधार

Kunti Dhruw
22 Dec 2021 4:46 PM GMT
केरल हाई कोर्ट का फैसला, पति का पत्नियों के साथ बराबरी का व्यवहार न करना तलाक का आधार
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केरल हाई कोर्ट

नई दिल्ली, केरल हाई कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के तलाक के अधिकार पर अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम पति का पत्नियों के बीच भेदभाव करना या बराबरी का व्यवहार न करना तलाक का वैध आधार है। कोर्ट ने फैसले में कहा कि दूसरी शादी के बाद पहली पत्नी के साथ वैवाहिक दायित्वों को निभाने से इन्कार करना कुरान के आदेशों के उल्लंघन के समान है जो पति द्वारा एक से अधिक विवाह करने पर पत्नियों के साथ समान व्यवहार करने का आदेश देता है। कोर्ट ने महिला की तलाक की याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि इन परिस्थितियों में याचिकाकर्ता इस आधार पर भी तलाक की डिक्री प्राप्त करने की हकदार है।यह अहम फैसला जस्टिस ए. मुहम्मद मुश्ताक और जस्टिस सोफी थामस की खंडपीठ ने दिसंबर माह की शुरुआत में सुनाया। फैसला बहुत महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाला है।

मालूम हो कि मुसलमानों में चार शादियों की इजाजत है, लेकिन कुरान कहती है कि अगर पति एक से ज्यादा पत्नियां रखता है तो वह सभी पत्नियों के साथ बराबरी का व्यवहार करेगा। मौजूदा मामले में महिला ने मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 के तहत याचिका दाखिल कर पति से तलाक मांगा था। परिवार अदालत से याचिका खारिज होने के बाद महिला ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। याचिका में मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम की धारा 2(2), 2(4) और 2(8) को तलाक का आधार बनाया गया था।
धारा 2(2) कहती है कि पत्नी तलाक की हकदार है अगर पति पत्नी की उपेक्षा करता है या दो साल तक भरण पोषण करने में नाकाम रहता है। धारा 2(4) कहती है कि जब पति बिना किसी उचित कारण के तीन साल तक वैवाहिक दायित्वों के निर्वहन में नाकाम रहता है। धारा 2(8)(ए) और (एफ) कहती है कि पति पत्नी के साथ क्रूरता का व्यवहार करता है। (ए) आदतन पत्नी पर हमला करता है और अपने क्रूर व्यवहार से उसकी जिंदगी दयनीय बना देता है, भले ही ऐसा आचरण शारीरिक दु‌र्व्यवहार के समान न हो। उपधारा (एफ) कहती है कि यदि पति एक से अधिक पत्नियां रखता है और कुरान के आदेशानुसार उनके साथ समान व्यवहार नहीं करता। याचिकाकर्ता पत्नी ने कानून में दिए गए उपरोक्त आधारों पर पति से तलाक मांगा था। हालांकि एक से अधिक पत्नी होने पर कुरान के आदेशानुसार सभी के साथ समान व्यवहार को महिला ने विशेष तौर पर याचिका में आधार नहीं बनाया था, लेकिन हाई कोर्ट ने उस पर विचार किया और उसे स्वीकार भी किया।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि वैसे तो कानून की धारा 2(8)(एफ) को याचिका में विशेष तौर से आधार नहीं बनाया गया, लेकिन उनका मानना है कि सिर्फ याचिका में उसे न दिया जाना, तलाक के हक का दावा करने से वंचित नहीं करता, अगर याचिका में उस बारे में चीजें कही गई हैं। कोर्ट ने कहा कि पहली पत्नी से पांच साल तक दूर रहना, साबित करता है कि वह उसके साथ समान व्यवहार नहीं करता। प्रतिवादी पति ऐसा कोई मामला नहीं बता पाया कि वह 2014 के बाद याचिकाकर्ता के साथ रहा है। कोर्ट ने कहा कि पहली पत्नी से शारीरिक संबंध बनाने और वैवाहिक दायित्वों को निभाने से इन्कार करना कुरान के आदेशों के उल्लंघन के समान है। कोर्ट ने परिवार अदालत का आदेश रद करते हुए याचिकाकर्ता पत्नी को कानून की धारा 2(4) और 2(8)(एफ) के तहत तलाक की डिक्री प्रदान की और 1991 को हुए विवाह को खत्म कर दिया।
यह था मामला
याचिकाकर्ता महिला की चार अगस्त, 1991 को शादी हुई थी। विवाह के बाद उनके तीन बच्चे हुए। पति ने विदेश में रहने के दौरान दूसरी शादी कर ली। पत्नी ने वैवाहिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करने के आधार पर पति से तलाक मांगा था। उसका कहना था कि 21 फरवरी, 2014 से प्रतिवादी पति ने उससे मिलना बंद कर दिया था। पति की ओर से इस बात से इन्कार नहीं किया गया बल्कि कहा गया कि वह दूसरी शादी को मजबूर हुआ क्योंकि याचिकाकर्ता उसकी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने में विफल रही। लेकिन कोर्ट ने पति की दलील नहीं मानी और कहा कि इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि इस विवाह से तीन बच्चे हुए जिनमें से दो ने शादी कर ली है।
प्रतिवादी इस बात का कोई सुबूत नहीं दे पाया कि वह याचिकाकर्ता के साथ रहने को तैयार था। इसका मतलब है कि वह वैवाहिक दायित्वों को निभाने में विफल रहा। कोर्ट ने कहा कि तलाक की यह याचिका 2019 में दाखिल हुई और इसके दाखिल होने के पांच साल पहले से वे अलग रह रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में धारा 2(4) के तहत तलाक का आधार बनता है।


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