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कोच्चि (आईएएनएस)। केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली को दोषियों को दंडित करने और निर्दोषों की रक्षा करने के बीच संतुलन बनाना होगा, क्योंकि इसने दो पुरुषों द्वारा दायर दो अग्रिम जमानत याचिकाओं पर विचार किया, जिन पर उनकी अलग हुईं पत्नियों ने उनकी नाबालिग बेटियों के साथ दुष्कर्म का आरोप लगाया था।
दोनों आरोपियों ने दलील दी कि उनकी पत्नियों ने पतियों को उनके बच्चों की कस्टडी से वंचित करने के लिए झूठा मामला दर्ज कराया है।
दलीलों पर गौर करने के बाद अदालत ने यह पाते हुए कि उसके खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है, एक आरोपी की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी।
दूसरे मामले में पुलिस ने बताया कि मामले को बंद कर दिया जाएगा, क्योंकि आरोपों के समर्थन में आरोपी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला और इसलिए उसे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
हालांकि, इन मामलों पर फैसले से पहले अदालत ने माना था कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 (4) दुष्कर्म के आरोपी व्यक्तियों को पूर्व-गिरफ्तारी या अग्रिम जमानत देने पर "पूर्ण" रोक नहीं लगाती है।
सीआरपीसी की धारा 438 (4) कहती है कि किसी बच्ची के साथ दुष्कर्म के आरोपी को गिरफ्तारी से जुड़े किसी भी मामले में अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह धारा 376 (3), 376-एबी, 376-डीए और धारा 376-बीडी के तहत दंड का भागी माना जाएगा।
अदालत ने बताया कि बच्चियों से दुष्कर्म के कई मामले "स्पष्ट रूप से झूठे" होते हैं और केवल निर्दोष व्यक्तियों को फंसाने के लिए दर्ज किए जाते हैं।
अदालत ने कहा, "यदि सीआरपीसी की धारा 438(4) में निहित गिरफ्तारी पूर्व जमानत के प्रावधान के बहिष्कार को पूर्ण माना जाता है, तो उन निर्दोष व्यक्तियों को कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी, जिनके खिलाफ झूठे और प्रेरित आरोप लगाए गए हैं। निर्दोष की रक्षा करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना दोषियों को दोषी ठहराना।”
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