कर्नाटक

कोरोना महामारी और लोकलुभावन योजनाओं से जूझती कर्नाटक की वित्तीय स्थिति पर पड़ा प्रभाव

Deepa Sahu
26 Feb 2022 11:41 AM GMT
कोरोना महामारी और लोकलुभावन योजनाओं से जूझती कर्नाटक की वित्तीय स्थिति पर पड़ा प्रभाव
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वाहन, कृषि, सूचना प्रौद्योगिकी, एयरोस्पेस, कपड़ा, बायोटेक और भारी इंजीनियरिंग उद्योग से परिपूर्ण कर्नाटक में कोरोना महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव के कारण एक चिंताजनक प्रवृत्ति दिखने लगी है।

बेंगलुरु: वाहन, कृषि, सूचना प्रौद्योगिकी, एयरोस्पेस, कपड़ा, बायोटेक और भारी इंजीनियरिंग उद्योग से परिपूर्ण कर्नाटक में कोरोना महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव के कारण एक चिंताजनक प्रवृत्ति दिखने लगी है। स्टार्टअप्स की भूमि होने के बावजूद देश की सिलिकॉन वैली कहे जाने वाले कर्नाटक ने 2020-21 से अब तक वित्तीय संसाधनों के मामले में भारी नुकसान झेला है। राज्य का ऋण 2019-20 और 2020-21 के बीच बढ़कर 31.38 प्रतिशत हो गया, जिससे एक अनिश्चित वित्तीय स्थिति पैदा हो गयी है। महामारी का परिणाम ऐसा रहा है कि, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा प्रकाशित 2020-21 की वित्त और विनियोग लेखा रिपोर्ट के अनुसार, राज्य सरकार ने कर संग्रह में 14,535 करोड़ रुपये की तेज गिरावट दर्ज की है।

राज्य का कुल कर्ज 3.19 लाख करोड़ रुपये से 78,000 करोड़ रुपये बढ़कर 3.97 लाख करोड़ रुपये हो गया है, जिससे सरकार को कुछ महत्वाकांक्षी और लोकलुभावन कार्यक्रमों को स्थगित करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। एसजीएसटी, राज्य उत्पाद शुल्क, बिक्री कर, स्टाम्प शुल्क और पंजीकरण तथा वाहन कर संग्रह में हानि देखी गयी है। हालांकि, गैर-कर राजस्व 7,681 करोड़ रुपये से मामूली रूप से बढ़कर 7,894 करोड़ रुपये हुआ है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अनुसार, जीएसडीपी की वृद्धि 2019-20 में 9.28 प्रतिशत और 202-21 में 2.23 प्रतिशत घट गयी, जो 2017-18 में 10.71 प्रतिशत और 2018-19 में 11.50 प्रतिशत थी।
सरकार को 2019 में सत्ता संभालने के बाद भीषण सूखे की स्थिति से जूझना पड़ा था जबकि दूसरी तरफ राज्य का आधा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित था। इसके बाद कोविड महामारी ने राज्य की वित्तीय स्थिति को और मुश्किल में डाल दिया। मुख्यमंत्री बी ऐस यदियुरप्पा के कार्यकाल के दौरान कोई बड़ा लोकलुभावन कार्यक्रम नहीं चलाया जा सका। मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को मुश्किल दौर से गुजरना है क्योंकि उन्हें 4 मार्च को चुनावी वर्ष का बजट पेश करना है।
कैग की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि सरकार को अपनी उधारी बढ़ानी पड़ी। इसी वजह से ब्याज 22,666 करोड़ रुपये या राज्य की राजस्व प्राप्तियों के 14.6 प्रतिशत पर पहुंच गया है, जो वर्तमान में 1.56 लाख करोड़ रुपये है। कैग ने यह भी नोट किया है कि सिंचाई की 13 परियोजनायें, सड़कों की 41, पुलों की तीन और अन्य श्रेणी की एक परियोजनायें पांच वर्षों से अधिक समय से अधूरी हैं।
भाजपा के प्रदेश महासचिव अश्वत्नारायण ने आईएएनएस को बताया कि राजनीतिक दल तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की तरह सामाजिक कल्याण योजनाओं और मुफ्त उपहारों के साथ मतदाताओं को लुभाने की दौड़ में हैं, बोम्मई का झुकाव मध्यम वर्ग की ओर है और आगामी बजट एक फैंसी बजट नहंीं होगा।
यह पूछे जाने पर कि क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा लोगों को मुफ्त आवश्यक सेवायें देने के बाद भाजपा दबाव में नहीं है, उन्होंने कहा कि दिल्ली एक छोटा राज्य है, इसमें किसान, जन परिवहन प्रणाली, सिंचाई परियोजनायें, कानून व्यवस्था और यहां तक कि मेडिकल शिक्षा भी शामिल नहीं है। यह नगर निगम क्षेत्र की तरह है। कर्नाटक जैसे बड़े राज्य में मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और अन्य लोकलुभावन कार्यक्रम व्यावहारिक रूप से संभव नहीं हैं।
बसवराज तोनागट्टी, सेबी आरआईए, फी-ओनली फाइनेंशियल प्लानर, सीएफपी और फाइनेंस ब्लॉगर, ने आईएएनएस को बताया कि अगर आप पिछले साल के बजट को देखें, तो आप देख सकते हैं कि 2019-20 से 2020-21 तक कर्ज भुगतान बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया। हालांकि, पूंजीगत व्यय में महज 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इससे पता चलता है कि सरकार अधिक उधार ले रही है लेकिन उसे पूंजीगत व्यय की ओर नहीं ले जा रही है। यह यह भी दशार्ता है कि सरकार परिसंपत्ति बनाने विशेष रूप से सड़कों, रेलवे लाइनों, कारखानों, बंदरगाहों आदि जैसे भौतिक बुनियादी ढांचे पर खर्च नहीं कर रही है। उन्होंने कहा,इसलिए, मुझे उम्मीद है कि इस साल वे अपने कर्ज का प्रबंधन करेंगे और खर्च का इस्तेमाल पूंजीगत व्यय में करेंगे। हालांकि सरकार कह रही है कि सब कुछ ठीक है लेकिन निजी निवेश लंबे समय से कम होता जा रहा है, खपत कम है, बेरोजगारी अधिक है।
इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज (आईएसएसी), बेंगलुरु के मानद विजिटिंग प्रोफेसर अब्दुल अजीज ने कहा कि महामारी ने आर्थिक विकास की गति को धीमा कर दिया है, बेरोजगारी में वृद्धि हुई है और मुद्रास्फीति दबाव बढ़ा है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को झटका लगा है।
खपत को बढ़ावा देने पर ध्यान दिया जा रहा है। यदि खपत बढ़ती है, तो मुद्रास्फीति पर दबाव उच्च बना रहेगा। उन्होंने कहा कि पहले ही खुदरा महंगाई दर छह फीसदी और थोक महंगाई दर 11 फीसदी तक बढ़ चुकी है। उन्होंने कहा कि सरकार को उत्पादकों को आवश्यक सहायता प्रदान करने के बारे में सोचना चाहिये और उन्हें बिजली और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिये।
स्वतंत्र नीति शोधकर्ता पवन श्रीनाथ ने कहा, हमें विकासोन्मुख बजट की आवश्यकता है। हमें और अधिक खर्च करने की आवश्यकता है। केंद्रीय बजट में भी पूंजीगत व्यय में वृद्धि की गई है। ग्रामीण क्षेत्र में संकट है, अधिक बेरोजगारी है, सरकार को अधिक व्यय करके अपनी क्षमता का उपयोग करना चाहिये। कांग्रेस के शासन के दौरान, जब सिद्धारमैया सत्ता में थे, उन्होंने भाग्य योजनाओं के माध्यम से लोगों पर मुफ्त उपहारों की बारिश की थी। मुफ्त का इतना अधिक शोरशराबा था कि एक बहस छिड़ गयी थी कि क्या मुफ्त सेवा को आलसी बना रही है।
कन्नड़ लेखक एस.एल. भैरप्पा और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त चंद्रशेखर कंबर अन्न भाग्य योजना को लेकर सिद्धारमैया सरकार पर टूट पड़ते हैं। भैरप्पा ने कहा कि अन्ना भाग्य जैसी योजनाओं से गरीब लोगों को आत्मनिर्भर बनाना संभव नहीं है। यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है।
चंद्रशेखर कंबर ने कहा कि मुफ्त उपहारों ने श्रम के ²ष्टिकोण और कृषि क्षेत्र पर गहरा प्रभाव डाला है। जब आप लोगों की लगभग सभी बुनियादी जरूरतों का ख्याल रखते हैं - चाहे वह भोजन, वस्त्र, आश्रय, स्वास्थ्य देखभाल, बच्चों की शिक्षा हो, तो कड़ी मेहनत करने की प्रेरणा बहुत कम होती है। उन्होंने कहा कि इसके बजाय सरकार को गरीब लोगों को सम्मानजनक जीवन जीने में सक्षम बनाना चाहिये। आलोचना को खारिज करते हुये सिद्धारमैया ने कहा कि वह गरीब लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए योजनाओं को लागू करना जारी रखेंगे। भूखे लोग ही समझेंगे कि भूख क्या है। हालांकि, उन्हें अगले आम चुनावों में हार का सामना करना पड़ा।


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