झारखंड

आज है बिरसा मुंडा की 146वीं जयंती, 25 साल से भी कम उम्र का रहा जीवन, आदिवासियों के लिए अंग्रेजों से लिया था लोहा

Renuka Sahu
15 Nov 2021 6:03 AM GMT
आज है बिरसा मुंडा की 146वीं जयंती, 25 साल से भी कम उम्र का रहा जीवन,  आदिवासियों के लिए अंग्रेजों से लिया था लोहा
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फाइल फोटो 

अंग्रेजों के दमनकारी शासन के खिलाफ आदिवासी आंदोलन के लोकनायक बिरसा मुंडा की आज 146वीं जयंती है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अंग्रेजों के दमनकारी शासन के खिलाफ आदिवासी आंदोलन के लोकनायक बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की आज 146वीं जयंती है. मुंडा जनजाति के लोकगीतों में अमर बिरसा को आज भगवान धरती आबा (Dharti Abba) जयंती के रूप में याद किया जा रहा है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आजादी और आदिवासी अस्मिता के प्रतीक बिरसा मुंडा का जन्म आज के ही दिन 15 नवंबर 1875 में झारखंड के रांची जिले के इलिहतु गांव में हुआ था. बिरसा मुंडा मात्र 25 साल की उम्र में अपने हक और स्वयत्तता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए थे.

बिरसा ने आदिवासियों को अंग्रेजी दासता से मुक्त होकर सम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया. झारखंड के सिंहभूमि और रांची में रहने वाले मुंडा जनजाति के लोग बिरसा को आज भी भगवाने के रूप में पूजते हैं. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बिरसा मुंडा एक प्रमुख आदिवासी विद्रोह के नेता रहे हैं.
बिरसा मुंडा का शुरुवाती जीवन
बिरसा मुंडा का आरम्भिक जीवन बेहद गरीबी में बीता. उनके पिता के नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था. बिरसा के माता-पिता घुमंतू खेती के द्वारा अपना गुजर-बसर करते थे. बचपन में बिरसा भेडों को चराने जंगल जाया करते थे और वहां बांसुरी बजाते थे. बिरसा बहुत अच्छी बांसुरी बजाने थे. इसके अलावा बिरसा ने कद्दू से एक तार वाला वादक यंत्र तुइला का भी निर्माण किया था.
गरीबी के चलते बिरसा के माता-पिता ने उन्हें उनके मामा के पास अयुबत्तु गांव भेज दिया था. जहां उन्हें स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया. बिरसा के शिक्षक ने उनकी पढाई में रूचि देख कर उन्हें क्रिश्चयन स्कूल में जाने जा सुझाव दिया. यह वह दौर था जब क्रिश्चियन स्कूल में केवल ईसाई बच्चे ही पढ़ते थे. जिसके चलते बिरसा ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया और अपना नाम बदलकर डेविड रख लिया.
बिरसा पर हिंदू धर्म का प्रभाव
बिरसा ने ईसाई स्कूल को छोड़ने के बाद हिंदू धर्म के प्रभाव में आ गए. जिसके बाद वो ईसाई धर्म परिवर्तन का विरोध करने के साथ ही आदिवासियों में जागरूकता फैलाने लगे. दरअसल उसी समय इस इलाके में रेललाइनें बिछाने का काम चल रहा था. अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों का शारीरिक और चारित्रिक शोषण किया जा रहा था. आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया जा रहा था. बिरसा ने सरकार की इन नीतियों का जमकर विरोध किया. लोगों को अपने धर्म का ज्ञान दिया, गौ हत्या का विरोध किया.
1895 में बिरसा ने अपने को अलौकिक ईश्वरीय क्षमता से युक्त विष्णु का अवतार घोषित किया. लोगों ने बिरसा को भगवान का अवतार मान कर विश्वास करने लगे. बड़ी संख्या में लोग उसकी बातों को सुनने के लिए इकट्ठा होने लगे. बिरसा की बातों से लोग बहुत तेजी से प्रभावित हो रहे थे. जिसके चलते ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या में तेजी से कमी आई. साथ ही ईसाई बन चुके मुंडा फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे.
अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन

आगे चल कर बिरसा ने लगान माफी को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया. बिरसा ने आदिवासियों की एक सेना बनाकर अंग्रेजो के खिलाफ छापामार लड़ाई शुरू कर दिया. 1897 से 1900 के बीच मुंडा आदिवासियों ने बिरसा के नेतृत्व में छापामार लड़ाई द्वारा अंग्रेजों के नाक में दमकर दिया था. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला.
1898 में तांगा नदी के किनारे बिरसा ने अंग्रेजी सेना पर हमला किया और अंग्रेजों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. बाद में अतिरिक्त अंग्रेजी सेनाओं के आने के बाद आदिवासियों की पराजय हुई और कई आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया. 3 फरवरी 1900 को अंग्रेजी सेना ने बिरसा को उसके समर्थकों के साथ जंगल से गिरफ्तार कर लिया.
बिरसा की जेल में संदेहास्पद मौत
बिरसा की जेल में संदेहास्पद अवस्था में 9 जून 1900 को मौत हो गई. अंग्रेजी सरकार ने बताया कि हैजा के चलते बिरसा की मौत हुई है. हालांकि आज तक यह स्पष्ट नहीं है कि बिरसा की मौत कैसे हुई. बिरसा मात्र 25 साल की उम्र में देश के लिए शहीद होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को प्रेरित किया. जिसके चलते देश आजाद हुआ. मुंडा आदिवासियों द्वारा बिरसा को आज भी धरती बाबा के नाम से पूजा जाता है.
बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी. बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ भी जंग का ऐलान किया था. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. यह मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.
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