जमशेदपुर न्यूज़: 75 साल पहले जमशेदपुर में आये शरणार्थी आज भी शरणार्थी ही हैं. पूरी तरह भारतीय नहीं बन पाए हैं. वे जिस जमीन पर बसे हैं, उसका मालिकाना उन्हें आज तक हासिल नहीं हो सका है.
देश विभाजन के पश्चात वर्ष 1948 में इस शहर में पहुंचे लोगों को शरण देने के लिए बारा में एक रिफ्यूजी कैम्प स्थापित किया गया था. वर्तमान में उस जगह पर सिदगोड़ा सूर्यमंदिर है. वहां 485 परिवार थे, जो पश्चिम पाकिस्तान के सिंध, पंजाब व पूर्वी पाकिस्तान के बंगाल से शरणार्थी के रूप में पहुंचे थे. इन परिवारों को 1950 में दो स्थानों पर कॉलोनी बनाकर बसाया गया. एक का नाम पंजाबी रिफ्यूजी कॉलोनी गोलमुरी है, जिसमें पंजाबी, सिंधी एवं आर्या रहते हैं जबकि दूसरी ईस्ट बंगाल कॉलोनी है. यह पुराना सीतारामडेरा में है, जिसमें बंगाली समुदाय के लोग निवास करते हैं. सभी को छत मिली और नागरिक सुविधाएं भी उपलब्ध हुईं. लेकिन शरणार्थी के रूप में 75 वर्ष पूर्व पहुंचे लोग, जिनकी वर्तमान पीढ़ियां अब इस देश के नागरिक के रूप में अपनी पहचान रखती है,
उन्हें अब तक अपने मकान का पट्टा तक नहीं हासिल है. इसके कारण ऐसे अनेक कार्य अवैध रूप से किए जा रहे हैं, जो कि पट्टा रहने पर वैध होते. कालांतर में हर परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ी, जिसके कारण कॉलोनी वासियों को अपने मकान को बहुमंजिला करना पड़ा. जिन्होंने इस प्रक्रिया को अपनाया, पट्टा नहीं होने के कारण उसे अवैध माना गया. उसके कारण पूरी कॉलोनी के लिए सरकार द्वारा 2 रुपये में बिजली और पानी की सुविधा, जो टाटा स्टील द्वारा देय थी, खत्म कर दी गयी. अब पूरी कॉलोनी पर बिजली और पानी का शुल्क सामान्य दर से लागू है. वे लोग जो पट्टा पाकर वैध रूप से कार्य करना चाहते थे, वैध होकर भी ठगा सा महसूस कर रहे हैं. क्योंकि इस पट्टे के अभाव में वे स्थानीय होने के हक से वंचित हैं. उनके बच्चे, उनकी पीढ़ियां सरकारी नियमों के तहत नौकरी के योग्य नहीं हैं.