- Home
- /
- राज्य
- /
- जम्मू और कश्मीर
- /
- 34 साल बाद घाटी में...
जम्मू और कश्मीर
34 साल बाद घाटी में मुहर्रम, मोदी के लिए कैसे रामबाण साबित हो सकता है ये फैसला
Manish Sahu
28 July 2023 12:17 PM GMT
x
जम्मू और कश्मीर: श्रीनगर में गुरुवार को ये जुलूस निकला जो 1989 से रुका हुआ था. उपराज्यपाल के इस फैसले से कैसे केंद्र सरकार ने एक बड़ा संदेश दिया है और इसके राजनीतिक मायने क्या हो सकते हैं, जानिए...
34 साल बाद घाटी में मुहर्रम, मोदी के लिए कैसे रामबाण साबित हो सकता है ये फैसला
जम्मू-कश्मीर में साढ़े तीन दशक के बाद शिया समुदाय ने आठवीं मुहर्रम का जुलूस निकाला. इमाम हुसैन के छोटे भाई हजरत अब्बास की शहादत के गम में निकाले जाने वाले यह ऐतिहासिक जुलूस शहर के गुरु बाजार इलाके से शुरू होकर बुदशाह चौक होते हुए मौलाना आजाद रोड और फिर डलगेट से गुजरा. घाटी में 34 साल के बाद प्रशासन ने शिया मुस्लिमों को आठवीं मुहर्रम का जुलूस निकालने की अनुमति दी थी, जिसका शिया समुदाय के नेताओं और मौलवियों ने स्वागत किया है. इस ऐतिहासिक फैसले का सियासी फायदा बीजेपी को जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि देश के अन्य दूसरे राज्यों में भी मिल सकता है.
बता दें कि घाटी में 1989 से आठवीं मोहर्रम के जुलूस में अलगाववादियों के शामिल होने के चलते विवाद खड़े हो गया था. हुर्रियत नेता मौलाना अब्बास अंसारी के संगठन इत्तेहादुल मुस्लिमीन और यासीन मलिक की जेकेएलएफ का जुलूस को भरपूर समर्थन था. ऐसे में तमाम अलगाववादी जुलूस में हिस्सा लिया था. राज्यपाल प्रशासन ने इस डर से 8वीं और 9वीं मुहर्रम के जुलुसू पर प्रतिबंध लगा दिया था कि कहीं ये जुलूस भारत-विरोधी प्रदर्शन में तब्दील न हो जाएं. इसके बाद से श्रीनगर शहर के अंदरूनी शिया बहुल इलाकों में केवल छोटे शोक जुलूसों की अनुमति थी.
उपराज्यपाल ने दिया बड़ा संदेश:
इमामबाड़े के अंदर में मुहर्रम मनाया जाता रहा, लेकिन जैसे ही शिया समुदाय के लोग जुलूस बाहर लेकर निकलते तो अलगाववादी धारणा का हवाला देते हुए अधिकारी हमेशा जुलूस पर प्रतिबंध लगाते थे, जिसके वजह से शोक मनाने वालों और सुरक्षाबलों के बीच गंभीर झड़पें होती थीं. इस तरह घाटी में 34 साल से शिया समुदाय 8वीं और 10वीं मुहर्रम को जुलूस नहीं निकाल पा रहे थे, लेकिन अब उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने शिया समुदाय को इमाम हुसैन की शहादत का शोक मनाने वालों को पारंपरिक मार्गों से जुलूस निकालने की इजाजत दी थी. 8वीं मोहर्रम के जुलूस के शांतिपूर्ण तरीके से निकाले जाने के बाद शिया समुदाय को उम्मीद है कि 10वीं मुहर्रम जिसे आशूरा जुलूस के रूप में भी जाना जाता है, उस पर से भी प्रतिबंध हट जाएगा.
क्लिक करें: शियाओं के जुलूस पर क्यों था बैन?
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल ने बयान जारी करते हुए कहा कि मैं कर्बला के शहीदों को नमन करता हूं. उन्होंने कहा कि हजरत इमाम हुसैन के बलिदान और उनके आदर्शों को याद करता हूं. कश्मीर घाटी में शिया भाइयों के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है, क्योंकि 34 साल बाद 8वीं मुहर्रम का जुलूस गुरु बाजार से डलगेट तक पारंपरिक मार्ग पर निकल रहा है. 1889 से आठवीं के जुलूस पर प्रतिबंध लगा था, लेकिन शिया भाइयों की भावनाओं का सम्मान करते हैं. शिया समाज को आश्वासन देता हूं कि प्रशासन हमेशा उनके साथ खड़ा रहेगा. जम्मू-कश्मीर में बदलाव और सामान्य स्थिति का भी प्रमाण है.
उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने घाटी से शिया मुस्लिमों को मुहर्रम के जुलूस के निकालने की इजाजत देकर बड़ा सियासी दांव चला है. शिया मुसलमानों के लिए मुहर्रम की काफी अहमियत है. अहलेबैत से शिया मुस्लिमों का लगाव और उनकी शहादत के गम में तीन महीने तक शोक मनाते हैं. 14 सौ साल बाद भी शिया मुसलमान शोक में तीन महीने तक डूबे रहते हैं. देश और विदेश से मुहर्रम मनाने अपने गांव और शहर आते हैं. इमाम हसन, हुसैन और उनके परिवार की शहादत के गम में शिया मातत, मजलिस करते हैं. इस दौरान किसी तरह का कोई खुशी के मौके पर न शामिल होते हैं और न ही खुद मनाते हैं. ऐसे में शिया मुसमलानों के लिए मुहर्रम की अहमियत को समझा जा सकता है.
बड़े हैं फैसले के सियासी मायने:
जम्मू-कश्मीर में 8वीं मुहर्रम जुलूस की अनुमति दिए जाने को भले ही कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं बता रहा हो, लेकिन उसके सियासी मायने को समझा जा सकता है. बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले अपने राजनीतिक समीकरण को दुरुस्त करने में जुटी है. मुस्लिमों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए पार्टी पसमांदा और बोहरा मुसलमानों के बाद शिया मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो बीजेपी को आगामी जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में घाटी के इलाके में शिया मुस्लिमों को जोड़ने में मदद मिल सकती है.
देश में 14 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जिसमें 2 फीसदी शिया मुसलमान भी शामिल हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, मुंबई और जम्मू-कश्मीर में शिया मुस्लिमों की अच्छी खासी आबादी है. यूपी में लखनऊ, जौनपुर, अमरोहा, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, कानपुर, बाराबंकी, प्रयागराज में शिया मुस्लिम अच्छी खासी संख्या में है. जम्मू-कश्मीर में देखें तो श्रीनगर, कारगिल और लद्दाख के इलाके में शिया समुदाय की ठीक-ठाक आबादी है. ऐसे ही देश के दूसरे हिस्से में शिया मुसलमान है. बीजेपी के साथ शुरूआत से ही शिया मुसलमानों के बेहतर तालमेल रहे हैं. यूपी में बीजेपी के कई बड़े नेता शिया ही रहे हैं और आज भी हैं.
बीजेपी और शिया मुसलमानों का रिएक्शन:
अटल बिहारी वाजपेयी के लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़ने के चलते बीजेपी के साथ शिया समुदाय करीब आया है. एजाज हसन रिजवी, मुख्तार अब्बास नकवी और तनवीर हैदर उस्मानी जैसे शिया नेता बीजेपी से जुड़े. सांसद से एमएलसी तक बने. इसके बाद वसीम रिजवी, मोहसिन रजा और बुक्कल नवाब जैसे शिया नेता जुड़े. बीजेपी के साथ जुड़ने की शिया मुस्लिमों की वजह यह भी रही कि यह तबका पड़ा लिखा और खुले जहन के होते हैं. इसके चलते ही लखनऊ में शिया मुस्लिम अटल से लेकर लालजी टंडन और राजनाथ सिंह को वोट देता रहा है.
हिंदुस्तान में शिया मौलाना कल्बे सादिक और कल्बे जव्वाद के बीजेपी नेताओं के साथ गहरे रिश्ते रहे हैं. इसी का नतीजा है कि कल्बे सादिक के निधन के बाद मोदी सरकार ने पद्म भूषण सम्मान से नवाजा था. पिछले दिनों मौलाना कल्बे जव्वाद ने लखनऊ में शिया समुदाय की बड़ी रैली करके मोदी और योगी सरकार की तारीफ की थी. ऐसे में जम्मू-कश्मीर में शिया मुस्लिमों को मुहर्रम में जुलूस निकालने की इजाजत देकर बड़ा सियासी दांव चला है, जो 2024 के लोकसभा चुनाव और जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए सियासी मुफीद साबित हो सकता है?
Next Story