
लोकतंत्र : जब अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप के लोकतांत्रिक देश भारतीय लोकतांत्रिक प्रांगण में वसुधैव कुटुंबकम् को प्रोत्साहन देने वाले आयोजन में जुड़ रहे हों और भारत को जी-20 की अध्यक्षता प्रदान कर उसकी लोकतांत्रिक नेतृत्व क्षमता स्वीकार कर रहे हों, तब राहुल गांधी ने विदेशी धरती पर भारतीय लोकतंत्र को लेकर सवाल उठाया और उसके बाद से वह लगातार विवादों में हैं।
मानहानि मामले में दंडित होने के बाद लोकतंत्र को लेकर उनके सवाल और मुखर हो गए हैं। क्या राहुल की यही समझ है कि जब कांग्रेस और उसके समर्थक वामपंथी सत्ता में हों, तभी देश में लोकतंत्र है? अगर ऐसा है तो उनकी समझ जनता की लोकतांत्रिक समझ से मेल नहीं खाती। स्वतंत्रता के बाद अनेक विद्वानों ने अपने विमर्श में गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन को आधार बनाकर भारतीय लोकतंत्र पर सवाल उठाया।
आपातकाल ने उस संदेह को बढ़ाया। पिछली सदी के अंतिम दशक में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के समय विमर्श गढ़ा गया कि ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ यानी एकसमान अवसर न होने से भारत ‘आर्थिक साम्राज्यवाद’ का बंधक बन जाएगा। ऐसा कुछ हुआ क्या? जब भी भारतीय लोकतंत्र की स्वायत्तता और गत्यात्मकता पर सवाल उठे तो वह और सशक्त होकर उभरा है। आपातकाल के बाद भारतीय लोकतंत्र और दृढ़ हुआ। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था और मजबूत हुई। कहीं भारतीय लोकतंत्र को कठघरे में खड़ा करना बाह्य शक्तियों द्वारा प्रायोजित तो नहीं? क्या इसके लिए वे किसी देसी नेता को ‘साफ्ट टारगेट’ तो नहीं बनाते?
