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लालू ने कहा था कि ‘राहुल बाबू, उम्र बढ़ रही है, दुनियादारी तो चलती रहती है। अब शादी करा लो और घर गृहस्थी बसा लो।’ कहीं इसका यह अर्थ तो नहीं कि राजनीति तुम्हारे बस का खेल नहीं है। अपना परिवार ही बना लो। लालू ने तो यह बात आज कही है, लेकिन लगता है कि सोनिया गांधी और उसके सलाहकारों को यह बात कुछ साल पहले ही समझ में आ गई थी। शायद इसीलिए ग्याहरवें खिलाड़ी प्रियंका गांधी को भी मैदान में बुला लिया गया था। विपक्षी एकता एक कठिन विषय है…
आगामी: लोकसभा के चुनाव 2024 में होंगे। लेकिन उसकी आहट से सभी दल परेशान हैं। परेशानी दो प्रकार की है। पहली राजनीतिक और दूसरी पारिवारिक। लेकिन दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। राजनीतिक परेशानी तो स्पष्ट समझ में आती है। हर राजनीतिक दल चाहता है कि वह सत्ता प्राप्त करे और उसके बाद अपनी विचारधारा के अनुसार प्रशासन को चलाए। लेकिन यदि कुछ दलों को लगता हो कि अपने बलबूते चुनाव में जीत हासिल करना नामुमकिन है तो कुछ राजनीतिक दल एक सांझी टीम बना कर भी चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन उसके लिए जरूरी है कि उनकी विचारधारा और दिशा आपस में मिलती हो। पिछले कुछ महीनों से देश के अनेक राजनीतिक दल आने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ इसी प्रकार की सांझी टीम बनाने की कवायद में जुटे हुए थे। यह सांझी टीम बनाने के लिए अनेक नेता अपने अपने तरीके से देश भर में घूम कर माहौल को सूंघ रहे थे। बंगाल की ममता बनर्जी, तेलंगाना के के चन्द्रशेखर राव, दिल्ली के अरविन्द केजरीवाल ने इसके लिए लम्बी यात्राएं कीं। लेकिन मामला जम नहीं रहा था। उसका कारण सोनिया कांग्रेस को लेकर था। सांझी टीम में सोनिया गान्धी की कांग्रेस को शामिल किया जाए या न? ज्यादातर दल इस सांझी टीम में कांग्रेस को शामिल करने के पक्षधर नहीं थे। इसलिए जिस सांझी टीम को जन्म देने के प्रयास हो रहे थे, उसे राजनीतिक शब्दावली में तीसरा मोर्चा कहा जा रहा था। यानी पहला मोर्चा भारतीय जनता पार्टी का, दूसरा मोर्चा सोनिया गान्धी की कांग्रेस का और तीसरा मोर्चा सांझी टीम बनाने के अनेक प्रयासों में जुटे दूसरे राजनीतिक दलों का।
वैसे तो सैद्धान्तिक तौर पर इन सभी दलों को कांग्रेस को भी सांझी टीम में रखने में कोई एतराज नहीं है। लेकिन सोनिया कांग्रेस इस टीम की कप्तान बनना चाहती थी और कांग्रेस को कप्तानी देने में किसी भी दल की रत्ती भर भी रुचि नहीं थी। ऐसा नहीं कि सांझी टीम बनाने का प्रयास कर रहे इन राजनीतिक दलों में कप्तान को लेकर आपस में भी कोई सहमति बन गई हो। कप्तान कौन हो, इस प्रश्न से तो ये राजनीतिक दल किसी भी तरह बचने का ही प्रयास कर रहे थे। लेकिन इस बात पर सभी सहमत थे कि कांग्रेस को तो सांझी टीम की कप्तानी किसी भी हालत में नहीं सौंपी जा सकती। लेकिन पिछले दिनों भारत की राजनीति में दो ऐसी घटनाएं हुईं जिससे पूरे परिदृश्य में गणनात्मक परिवर्तन हुआ। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में हुए चुनावों में सोनिया कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को हरा कर उससे सत्ता छीन ली। उससे वातावरण बदला। सोनिया कांग्रेस के भीतर भी राजनीतिक प्राण वायु का संचार हुआ। पार्टी के भीतर भी हलचल हुई। इसलिए निर्णय किया गया कि सोनिया गान्धी के सुपुत्र राहुल गान्धी को देश भर में घूमना फिरना चाहिए। आखिर जो भी किसी टीम का कप्तान बनना चाह रहा हो, उसका व्यक्तित्व कम से कम कप्तान की तरह का दिखना तो चाहिए। इसलिए राहुल गान्धी तथाकथित पैदल यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा को भारत जोड़ो यात्रा का नाम दिया गया। मीडिया का फोकस राहुल गान्धी की चालढाल, वेशभूषा, खानपान पर रहे, इसका ध्यान रखा गया। बीच में राहुल गान्धी को एक ट्रक पर भी बिठाया गयाॉ। हवा बनने लगी कि राहुल गान्धी भी कप्तान बन सकते हैं। यह भी अफवाह फैला दी गई कि कर्नाटक में कांग्रेस ने जो चुनाव जीते हैं उसका कारण राहुल गान्धी की भारत जोड़ो यात्रा ही है। इसका सांझी टीम बनाने वालों की मानसिकता पर भी प्रभाव पड़ा। उनको भी लगा कि टीम में कांग्रेस को भी शामिल करना चाहिए। उधर कांग्रेस ने इसका अर्थ यह निकाला कि हमारे बिना राजनीतिक धरातल पर कोई सांझी टीम बन ही नहीं सकती। यदि ऐसी टीम बनाई भी गई तो वह बेकार सिद्ध होगी।
इस नए वातावरण का लाभ उठाकर सांझी टीम बनाने के लिए कुछ ऐसे लोग भी प्रकट होने लगे जिनकी अपनी झोली खाली थी। फिलहाल बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाले हुए बाबू नीतीश कुमार उन्हीं लोगों में शुमार हैं। ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद पवार जब विपक्षी एकता की फुलझडिय़ां जलाने की कोशिश करते थे तो सांझी टीम में शामिल दूसरे खिलाडिय़ों को एक डर सताता रहता था। मसलन उत्तर प्रदेश में लोकसभा की अस्सी सीटें हैं। यदि गठजोड़ का लाभ उठाकर अखिलेश यादव पचास साठ सीटें जीत गए तो जोड़ तोड़ में प्रधानमंत्री की दावेदारी ठोंक देंगे। इसी प्रकार का डर ममता बनर्जी या शरद पवार से लगा रहता था। इसलिए भीतर ही भीतर सांझी टीम बनने से पहले ही टूट जाती थी। उसका निराकार स्वरूप साकार नहीं हो पाता था। लेकिन बिहार के नीतीश कुमार से ऐसा खतरा किसी को भी नहीं है। पुराने जमाने में मुगल राजा अपने हरम की रक्षा के लिए उनको नियुक्त करते थे जिनकी मेडिकल रपट आ जाती थी कि इससे कोई खतरा हरम को हो ही नहीं सकता। सत्ता रूपी हरम का पहरेदार नीतीश कुमार बनते हैं तो सभी आश्वस्त हैं कि इससे उनके सत्ता रूपी हरम को कोई खतरा नहीं हो सकता। क्योंकि उनकी पार्टी का आधार वैसे भी बिहार में बहुत सिमट गया है। उसको बांटने वाली पार्टियां बिहार में बहुत हैं। लालू का परिवार तो है ही। इसके बाद कांग्रेस है। उसके बाद सीपीएम-एल है। सीपीएम और सीपीआई हैं। दो एक सीटें केजरीवाल भी मांगेंगे। उसके बाद नीतीश कुमार की पार्टी के हिस्से लोकसभा की सात आठ सीटें आ भी जाएंगी तो वे उसमें से जीत कितनी पाएंगे, इसके बारे में कौन भविष्यवाणी कर सकता है। इसलिए जब नीतीश बाबू ने सांझी टीम बनाने के लिए राजनीतिक खिलाडिय़ों को निमंत्रण भेजे तो काफी खिलाड़ी आ पहुंचे।
कुछ लोग इसे नीतीश कुमार की सफलता कह कर प्रचारित कर रहे हैं। जबकि इसका संकेत केवल इतना ही है कि भविष्य की राजनीति में उनकी उपयोगिता समाप्त हो गई है। अब वे राजनीतिक लिहाज से नख शिख दन्त विहीन हो गए हैं। सांझी टीम बनाने की उपक्रम में जुटे खिलाडिय़ों ने एक दूसरे के साथ कैसा व्यवहार किया, क्या क्या किया, यह किसी से छिपा न रह सका। नए नए उत्साह में आए राहुल गान्धी ने तो अरविन्द केजरीवाल के साथ चाय पीने तक से इन्कार कर दिया। केरल में सीपीएम की सरकार ने सबसे पहला काम वहां कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष को गिरफ्तार करने का किया। ममता बनर्जी ने पटना से लौटकर देश भर का मार्गदर्शन यह कह कर किया कि कांग्रेस और सीपीएम, दोनों ही भाजपा की बी टीम मात्र हैं। पटना में लालू यादव ने राहुल गान्धी को शादी करवाने की सलाह भी दी थी। कुछ राजनीतिक विश्लेषक उसमें भी राजनीतिक अर्थ देखते हैं। लालू ने कहा था कि ‘राहुल बाबू, उम्र बढ़ रही है, दुनियादारी तो चलती रहती है। अब शादी करा लो और घर गृहस्थी बसा लो।’ कहीं इसका यह अर्थ तो नहीं कि राजनीति तुम्हारे बस का खेल नहीं है। अपना परिवार ही बना लो। लालू ने तो यह बात आज कही है, लेकिन लगता है कि सोनिया गान्धी और उसके सलाहकारों को यह बात कुछ साल पहले ही समझ में आ गई थी। शायद इसीलिए ग्याहरवें खिलाड़ी प्रियंका गान्धी को भी मैदान में बुला लिया गया था। इस तरह विपक्षी एकता फिलहाल एक कठिन विषय लगता है। कांग्रेस को लेकर सबसे ज्यादा द्वंद्व है।