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By NI Editorial
लोग चीजें खरीदने की स्थिति में नहीं होंगे, तो कारखाना मालिक किसके लिए उत्पादन करेंगे? भारतीय अर्थव्यवस्था में नए सिरे से आ रही गिरावट का सामान्य अर्थशास्त्र है, जिसे समझने के लिए अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है।
भारत में सितंबर में महंगाई दर 7.41 प्रतिशत पर पहुंच गई। यानी अप्रैल के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर। इस बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने महंगाई पर काबू पाने के लिए कई किस्तों में ब्याज दरें बढ़ाई हैँ। लेकिन अब यह साफ है कि यह उपाय कारगर नहीं है। ऐसा होना भी नहीं था। इसलिए कि ब्याज दरें बढ़ाना तब कारगर होता है, अगर मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के ओवरहीटिंग से बढ़ रही हो। यानी तब जबकि आमदनी बढ़ने से उपभोग बढ़ रहा हो और मांग के कारण उत्पादक निवेश की 'एनिमल स्पीरिट' बेलगा हो गई हो। लेकिन इस बार की महंगाई ऐसी नहीं है। इस बार महंगाई सप्लाई साइड की मुश्किलों के कारण बढ़ी है। इसीलिए दुनिया भर में इसे रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ाने का तरीका फेल हो रहा है। उलटे ब्याज दरें बढ़ने से समाज के एक तबके की आमदनी पर और दबाव बढ़ा है। उधर महंगाई बेकाबू रहने की वजह से लगभग हर तबके की वास्तविक गिरी है। ऐसे में बाजार में पहले से ही घटी मांग अब गायब होती जा रही है। इस आंकड़ों से सबके ललाट पर चिंता की रेखाएं काफी गहरी हो जानी चाहिए थीं कि सितंबर में तेल-साबुन जैसी आम रोजमर्रा की जरूरत वाली चीजों की बिक्री लगभग दस फीसदी गिरी।
जब ये आलम हो, तो इस आंकड़े पर हैरत क्यों होनी चाहिए कि उसी महीने में औद्योगिक उत्पादन 0.8 प्रतिशत सिकुड़ गया। अगर लोग चीजें खरीदने की स्थिति में नहीं होंगे, तो कारखाना मालिक किसके लिए उत्पादन करेंगे? भारतीय अर्थव्यवस्था में नए सिरे से आ रही गिरावट का सामान्य अर्थशास्त्र है, जिसे समझने के लिए अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है। फिर भी यह देश का दुर्भाग्य है कि भारतीय मीडिया बदहाली के बीच चमकने वाली सुर्खियों की तलाश में लगा हुआ है। मसलन, आईएमएफ की ताजा रिपोर्ट का सार यह था कि भारत इस वर्ष जीडीपी की पहले अनुमानित दर को अब हासिल नहीं कर पाएगा। लेकिन सुर्खी यह बनी कि भारत की वृद्धि दर दूसरे देशों से बेहतर रहेगी। अब ये सुर्खी ऊपर से निर्देश के कारण बनी, या मीडियाकर्मियों का मानस खुद ऊपर की इच्छा को समझने लगा है, यह हमें नहीं मालूम है।

Gulabi Jagat
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