नमामि गंगे के तहत गंगा से पहले उसकी उपनदियों की भी सफाई व उन्हें प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में काम किया जा रहा है। इसी क्रम में हिंडन नदी को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के बीच उसे प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में भारत और नीदरलैंड ने संयुक्त रूप से ‘हिंडन रूट्स सेंसिंग’ परियोजना पर काम शुरू किया है। इस नदी क्षेत्र में होने वाली कृषि विशेषकर करीब चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होने वाली गन्ने की फसल से होने वाले प्रदूषण पर फोकस किया जा रहा है।
चुनौती ये है कि इससे जुड़े लाखों किसानों की कृषि उपज को बिना कम किए विशेष तकनीक के जरिये कृषि प्रदूषण रोका जाना है। इसमें सीएसएसआरआई करनाल व आईआईटी रुड़की सहित देश के कई बड़े अनुसंधान केंद्र व संस्थाओं के साथ अंतरराष्ट्रीय भागीदार नीदरलैंड की कुछ यूनिवर्सिटी व तकनीकी केंद्रों ने मिलकर कवायद शुरू की है। जिसकी तीन दिवसीय कार्यशाला बुधवार को केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान केंद्र करनाल (सीएसएसआरआई) में शुरू हुई।
डॉ. डी. नागेश कुमार ने परियोजनाओं की गतिविधियों की जानकारी दी। बताया कि कई छात्र इस परियोजना में अपने पीएचडी का अनुसंधान कार्य कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय भागीदारी पर चर्चा करते हुए डच पार्टनर प्रो. जोस वान डैम ने गतिविधियों के साथ-साथ विशेष रूप से गन्ने की खेती में प्रभावी जल प्रबंधन के लिए इरीवॉच डेटा-बेस के उपयोग के बारे में विस्तार से बताया।
जल-निकाय में प्रदूषण की पहचान
सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ के निदेशक (विस्तार) डॉ. पीके सिंह ने हिंडन बेसिन में मौजूद अपने कृषि विज्ञान केंद्र के नेटवर्क के माध्यम से परियोजना के परिणामों को हितधारकों तक पहुंचाने में सहयोग देने की बात कही। धामपुर-मंसूरपुर चीनी इकाई के यूनिट प्रमुख हिमांशु के. मंगलम ने मंसूरपुर मिल कमांड क्षेत्र में गन्ना उत्पादन को और अधिक टिकाऊ बनाने में परियोजना से उभरे वैज्ञानिक जल और कीटनाशक प्रबंधन प्रथाओं काे अपनाने पर जोर दिया। आईआईटी-रुड़की के पूर्व निदेशक प्रो. शरद के. जैन ने उपचारात्मक उपायों को विकसित करने और लागू करने के लिए जल-निकाय में प्रदूषण की पहचान और मात्रा निर्धारण पर जोर दिया।
सीएसएसआरआई करनाल के निदेशक डॉ. राजेंद्र कुमार यादव ने प्रस्तावित मॉडलिंग अध्ययन के लिए आवश्यक क्षेत्र से लेकर बेसिन स्तर तक नियोजित गतिविधियों और डेटा उत्पादन के कार्यान्वयन में पूरा समर्थन देने को कहा। मौके पर तीन अंतरराष्ट्रीय साझेदारों में वैगनिंगन यूनिवर्सिटी एंड रिसर्च (डब्ल्यूयूआर), टेक्निकल यूनिवर्सिटी डेल्फ्ट (टीयूडी) और इरीवॉच, नीदरलैंड और पांच राष्ट्रीय और प्रेक्टिशनर साझेदारों में भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु के 50 से अधिक विशेषज्ञ, सीएसएसआरआई करनाल, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की, जैन इरिगेशन और डीसीएम श्रीराम, कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्र, आईपीएल-तितावी और डीबीओ-मंसूरपुर चीनी मिल के साथ-साथ कुछ एनजीओ के अधिकारी और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तथा भारत सरकार के वरिष्ठ सलाहकार मौजूद रहे।
कीटनाशकों के वैज्ञानिक प्रबंधन की आवश्यकता पर जोर
मुख्य अतिथि के रूप में पहुंचे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के उप महानिदेशक (प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन) डॉ. सुरेश कुमार चौधरी ने जल उत्पादकता बढ़ाने के साथ खाद एवं कीटनाशकों के वैज्ञानिक प्रबंधन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि परियोजना के परिणामों को बड़े स्तर पर ले जाने से पूर्व गहन सत्यापन की आवश्यकता है। विकसित की गईं अच्छी जल प्रबंधन तकनीक को अन्य नदी क्षेत्रों में भी अपनाना होगा।
किस खेत का पानी व मिट्टी कैसी बताएगा सेटेलाइट
सीएसएसआरआई में परियोजना के अन्वेषक डॉ. देवेंद्र सिंह बुंदेला ने कहा कि अब तक नदियों में औद्योगिक, शहरों के नालों आदि से प्रदूषण की बात होती रही है, लेकिन अब ये देखने का समय आ गया कि नदियों के प्रदूषण में कृषि प्रदूषण कैसे और कितना है। इसमें नीदरलैंड की कृषि आंकड़ों पर काम करने वाली इरीवॉच के वैज्ञानिकों की सहायता ली जा रही है, इनकी सेटेलाइट किस खेत में कौन सी फसल की कितनी वृद्धि है, पानी व मिट्टी कैसी है, बीमारी क्या है आदि बारीकी से बता सकती है।