पुखराज प्राज
रायपुर। पुस्तकालय और पुस्तकालय संस्कृति के संदर्भ में समझ रखने वालों की हमारे देश में कमी नहीं है। लेकिन डिजिटलाइजेशन की इस दौर में इंटरनेट और इंस्टेंट इन्फोर्मेशन की सुलभता ने मनुष्य को स्वाध्ययन की परम्परा से किनारा ही कर बैठे हैं। स्कूल के विद्यार्थियों से लेकर विश्वविद्यालय के शोधार्थियों तक और रोजगार तलाशते युवाओं से लेकर वर्किंग प्रोफेशनल्स तक पुस्तक पढ़ने की परम्परा लगभग खंडित प्रतीत होने लगा है। शिक्षा शास्त्री मानते हैं की स्वाध्ययन का संबंध हमारे आत्मज्ञान होता है। जिससे हमें अपने दोषों का पता चलता है और इससे हमें अपनी गलतियां को सुधारने का अवसर मिलता है। हमारे अंदर संस्कारों का विकास होता है। स्वाध्ययन से हमारा अज्ञान मिटता है, अविद्या का नाश होता है और हमारे अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। पेस्टोलॉजी के अनुसार, 'शिक्षा मनुष्य की जन्मजात व्यक्तियों का स्वाभाविक समरूप तथा प्रगतिशील विकास है।' अर्थात् शिक्षा हमारे जीवन के लिए सभी अन्य सामाजिक मूल्यों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। शिक्षा के संदर्भ से दर्शन मानव-द्वारा संसार की समस्या/विषयों को समझने का एक प्रयत्न है और जिनका सम्बन्ध सीधे जीवन से है। शिक्षा जीवन के सतत् विकास की एक आरोही प्रक्रिया है। अतएव शिक्षा दर्शन का उद्देश्यिका जीवन के विभिन्न पहलुओं में विकास की प्रक्रिया को ज्ञान के आधार पर व्यवस्थित करना है। स्वाध्ययन या सेल्फ लर्निंग के वस्तुस्थिति पर पुस्तकालय संस्कृति का जन्म होता है। भारतीय चिंतकों और आदिकाल से ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी संचारित करने वाले महान शिक्षा शास्त्रियों ने अपने विद्यार्थियों को शिक्षा को प्रसार और पुनराभ्यास के संस्कृति को बनाए रखने की संदेश दिया है। जिसका पालन भी हुआ है। भारत के सबसे प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय, बिहार के पुस्तकालय में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल से सुसज्जित एक विराट पुस्तकालय अवस्थित था। जिसमें 3 लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह रत्नरंजक, रत्नोदधि और रत्नसागर नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। अध्ययन के परम्परा में विद्यार्थियों को नियमित पुस्तकालय की उपयोगिता और प्रलेखों को पृष्ठ दर पृष्ठ अध्ययन और उनका स्मरण कराया जाता था।
वर्तमान दौर में आधुनिक भारत में पुस्तकालय की अवधारणा पर आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट ओआरजी, वर्ष 2014 के अनुसार, भारत में सन् 1661 में चेन्नई में अंग्रेजी कॉलोनी पुस्तकालय से शुरू होने वाले दौर से वर्ष 2014 तक कुल 54,856 सार्वजनिक पुस्तकालय देश में है। 50 हजार सार्वजनिक पुस्तकालयों की औसत में 27 हजार लोगों में एक पुस्तकालय की उपलब्धता है। सुधार एवं पुनर्गठन की मांग तो है, लेकिन इसके प्रति लोगों की जागरूकता थोड़ी कम है। लोग पुस्तकालय जाने से कहीं ज्यादा तो इंटरनेट और ई-लाइब्रेरी के कॉन्सेप्ट को उत्कृष्ट मानने लगे हैं। जबकी उत्कृष्ट पुस्तकालयों की अवधारणा में हम भारत के अच्छे पुस्तकालय की फेहरिस्त में देखते तो, खुदाबक्श ओरिएंटल पुस्तकालय बिहार का नाम जरूर आता है। यह भारतवर्ष के सबसे प्राचीन पुस्तकालयों में से एक है। 29 अक्टूबर, 1891 ई. लगभग 21,000 प्राच्य पांडुलिपियों और 2.5 लाख मुद्रित पुस्तकों का अद्वितीय संग्रह इस पुस्तकालय में है।
ऐसे ही कई उदाहरण स्वरूप पुस्तकालय स्थापित हैं। जहाँ संग्रहित प्रलेख आज भी अपने पाठकों की प्रतिक्षा में हैं। डिजिटल स्क्रिन से पठन के बजाय भौतिक रूप में प्रलेखों के अध्ययन से मस्तिष्क पर पृथक प्रभाव पड़ता है जो लम्बे समय तक स्मृति में संकलित रहते हैं। वहीं प्रलेख के अध्ययन के लिए मस्तिष्क में एकाग्रता प्राथम्यता के साथ आने लगता है। यदि रूचिकर संवाद हो तो, पाठक और पुस्तक के बीच का संबंध बेहद उच्च दर्जे का होता है। जो प्रलेख के भीतर की यात्रा को पूर्ण करता है। प्रलेख के अंदर निहितार्थ ज्ञान को वह अपने स्वभाव में भी लक्ष्यित देख पाता है। वर्तमान दौर में केवल सूचना के लिए पाठ्य संसाधनों का उपयोग कहीं ना कहीं मार्केटिंग या बाजारीकरण की ओर धकेल रही है। सूचना सिर्फ उतनी जितनी आवश्यकता वाली मानसिकता लोगों को अल्पज्ञानी बनने की ओर आमादा है। यदि युवाओं में पुस्तकालय संस्कृति का संरक्षण नहीं हुआ तो, पुस्तकों में रहस्य स्वरूप विद्वानों के द्वारा दिये ज्ञान किताबों में सीमित रहकर इहलिला समाप्त कर लेंगे।