सुनना तो पड़ेगा, क्या नक्सली इकोसिस्टम को हराना इतना मुश्किल है
बरुण सखाजी
दिल्ली से कुछ तस्वीरें आईं। नक्सल हिंसा से पीड़ितों की तस्वीरें। जिंदगियों की जद्दोजहद की तस्वीरें। अब तलक दिल्ली में ऐसी तस्वीरें तो खूब देखी होंगी, जिनमें समझाया, बुझाया और बताया जाता फोर्स वहां बरबरता कर रही है। एके-47 पीठ पर लादने वालों का बस्तर में शोषण हो रहा है। किंतु ऐसा पहली बार दिखाई दिया जब नक्सल हिंसा के वास्तविक पीड़ितों ने सुनने और सुनाने की कोशिश की।
कहा जा सकता है कि यह सरकार प्रायोजित है। यह भी कह सकते हैं यह पूरी तरह से स्क्रिप्टेड इवेंट है। किंतु जो हुआ है या होता आया है उसे तो नहीं खारिज कर सकते। क्या टूटी टांगें, बुझे चेहरे, भुने हाथ नहीं दिखाई देंगे आपको? जब मानवाधिकार, न्यायिक स्ट्रक्चर, अंतरराष्ट्रीय मानक मानविकी एजेंसियां दूषित प्रसार करती हैं तब यूं प्रश्न नहीं आते। क्योंकि वे स्वयं ही प्रश्नकर्ता होते हैं जिन्हें उत्तर कभी देना ही नहीं पड़ते। बेहतर प्रश्न वही है जो उत्तर सुनता, समझता और मानता हो। अन्यथा प्रश्न दूषित है।
ऐसे अकादमिक सिस्टम को पल्लवित किया गया, जिसमें प्रश्न करना बौद्धिकता का पैमाना बनाया गया। उत्तरों से अपना कान और ध्यान दोनों हटा लेना इस समूह की पहचान रहा है। कुछ महीनों पहले जब नक्सलमुक्त प्रदेश व राष्ट्र का छत्तीसगढ़ की सरकार ने केंद्रीय गृहमंत्री के नेतृत्व में संकल्प लिया तो लोगों को अचरज हुआ। कुछ को अचरज नहीं हुआ, क्योंकि कइयों ने इसे सिर्फ सियासी जुमला माना। कइयों को विश्वास नहीं हुआ कि ऐसा हो सकता है। कइयों ने भ्रम भी फैलाया। कईयों ने कई तरह की राय व्यक्त की। लेकिन किसी ने भी यह नहीं सोचा कि आखिर भारत नक्सलमुक्त हो क्यों नहीं सकता? आखिर ऐसा क्या कारण है कि छत्तीसगढ़ नक्सलमुक्त नहीं हो सकता।
दरअसल, एक किस्म का इकोसिस्टम देश और प्रदेश में सक्रिय है। एक शाखा किताबें लिखकर मन-मानस में वैमनस्य और बस्तर में नक्सलियों के प्रति सहानुभूतियां पैदा कर रही है। दूसरी शाखा रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से यही काम कर रही है। तो अन्य शाखाएं नक्सल हिंसा में पीड़ित लोगों को हथियार बनाकर नक्सलियों का डिफेंस ऑर्डर तैयार करने में जुटी हुई हैं। एक बड़ा वर्ग तो न्यायिक स्ट्रक्चर में मौजूदा कायदों, कानूनों की अस्पष्ट व्याख्याओं का भरपूर लाभ उठाकर नक्सल को पल्लवित कर रहा है। ऐसा ही एक बड़ा वर्ग इनकी बातों और उद्देश्यों का राजनीतिक स्वरूप भी लेकर बैठा है।
इतनी सारी चुनौतियों के बीच से सिर्फ बंदूक से कोई समधान भला हो भी कैसे सकता है। यानि नक्सल को सिर्फ फोर्स के जरिए न खत्म किया जा सकता न यह करना ही चाहिए। नतीजतन जब ये ऐलान हुआ है कि तय समय में भारत नक्सलमुक्त होगा तो उसे ऐसे अकादमिक, मीडिया, राजनीतिक, न्यायिक, रचना स्ट्रक्चरों से भी मुक्त करना होगा, जो नक्सल का परोक्ष पोषण करते हैं। ऐसे मानसों से भी मुक्त करना होगा जो सिंपैथी क्रिएट करते हैं। तभी बस्तर में बंदूक की गोली काम कर पाएगी।
इन सब के लिए एक सीधा, सरल ऐसा मुख्यमंत्री चाहिए था जो उस वर्ग का विश्वास जीत सके जिस वर्ग पर इसका सबसे ज्यादा असर है। इसी रणनीति के तहत विष्णुदेव साय को प्रदेश की कमान दी गई है। साय सायलेंट हैं, किंतु भीतर से नक्सलमुक्ति के लिए वायब्रेंट हैं। धधक रहे हैं। खत्म करन चाहते हैं यह हिंसा और हथियार का वीभत्स खेल। अब ऐसे कुछ प्रशासनिक और बल के प्रमुखों की आवश्यकता है जो इस मन-मानस को भली तरह से समझते हों। इसीलिए फिलहाल के डिप्लॉयमेंट दिखाई दे रहे हैं।
इन सबमें सबसे अहम कड़ी है अंतरराष्ट्रीय और दिल्लीछाप मीडिया। इस वर्ग की कंडीशनिंग ऐसी की गई है कि इसे नक्सलियों की बंदूकों से फूल बरसते दिखते हैं और फोर्स की बंदूकों से गोलियां। इसमें इस वर्ग की बहुत कम ही गलती है। असल में इस वर्ग में बौद्धिक होने के इंडीकेटर्स ही ऐसे प्रचलित हैं। खैर, यह तो अलग बात हुई।
अब बात सबसे अहम मसले की। बस्तर शांति समिति के जरिए जो लोग दिल्ली पहुंचे उन्होंने अपनी कहानी सुनाई। अभियान के रूप में बनाए गए इस कार्यक्रम में अभी और भी कुछ बाकी है। फिलवक्त यह प्रयास प्रदेश की विष्णुदेव सरकार के नक्सलमुक्ति के लिए उठाए गए समग्र कदमों में से एक है। इसलिए इस कार्य को सराहनीय मान लिया जाए तो आपकी बौद्धिकता पर कोई संकट नहीं आ जाएगा।