रायपुर. छत्तीसगढ़ के हर खासो आम की जुबान पर जिनके गाए गीत रचे बसे हैं उनमें श्रीमती जयंती यादव का नाम अव्वल दर्जे पर है। बालपन से गरीबी और तंगी से गुजरी जयंती और उनका पूरा खानदान छत्तीसगढ़ी गीतों को लेकर बेहद संवेदनशील रहा है। अभी उनकी बिटिया अन्नपूर्णा की गायकी भी कमाल की है।
पांच दशक से भी ऊपर होने को आया जयंती जी की गायकी और उनकी आवाज की बानगी आज भी हरेक श्रोता के कान से सीधे दिल में उतर कर घर कर जाती है । प्रेम -प्यार, विरह- मिलन, धर्म- कर्म, जीवन -दर्शन आदि पर केंद्रित गीत इनकी आवाज में ऐसे छनकर बाहर आते हैं जैसे अमराई में कोयल की कुक आती है। लोककला क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए छत्तीसगढ़ राज्य शासन की ओर से देय दाऊ मंदराजी पुरस्कार से उन्हें अलंकृत होने का गौरव( वर्ष 2022) प्राप्त है।
सपने सुहाने लड़कपन के
विश्व रंगमंच दिवस पर उनके निवास कुंदरा पारा दुर्ग में उनसे कला यात्रा पर खुलकर बातचीत हुई। तब अपनी जिंदगी की कड़वी मीठी यादों का पिटारा खोलते हुए वे बताईं- धार्मिक नगरी डोंगरगढ़ के निकट पथरी ग्राम में उनका जन्म वर्ष 1953 में हुआ था।उनके पिता समय लाल मरकाम नाचा के सिद्धहस्त कलाकार थे और मां कारी भी गाने का शौक रखती थीं।तब परिवार का खर्च नाचने-गाने से हुई आमदनी के आधार पर चलता था।
पिताजी ढोलक बजाया करते थे और मैं पुराने हिट फिल्मी गीतों जैसे - उनसे मिली नजर कि मेरे होश उड़ गए, कौन परदेशी मेरा दिल ले गया, सपने सुहाने लड़कपन के-----को गाते हुए नृत्य करती थी। चौक चौराहे, बाजार में गाती , नृत्य करती थी तो लोग मेरी मोहक अदाएं देखकर वाह वाह करते मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे।नजराना न्योछावर करते थकते नहीं थे।
*नर्तन से गायन की दुनिया में*
सूदूर पथरी गावं की ऐसी प्रतिभा की पहचान राज्य और राष्ट्रीय कला जगत में कैसे हुई पूछने पर वे बताईं- मेरे भीतर जन्मजात ईश्वर प्रदत्त अद्भुत नर्तन-गायन कला को रवेली (राजनांदगांव) मालगुजार परिवार के दाऊ दुलार सिंग मंदराजी की पारखी आंखों ने सर्वप्रथम परखा था। वे छत्तीसगढ़ी नाचा कलाकारों को लेकर रवेली साज नामक बेहद लोकप्रिय संस्था का संचालन करते थे। उसी संस्था में कलाकारी करने के लिए उन्होंने मेरे पिताजी से मुझे बेटी के रूप में मांग लिया था। दरअसल मेरे पिताजी को टी बी की बीमारी ने जकड़ रखा था।उनके मुंह से खून आने लगता था। इसे देखकर दयालु दाऊ जी ने पिता जी की बीमारी का ईलाज, घर खर्चा हेतु आर्थिक सहायता देने के साथ ही मेरी प्रतिभा को बड़े मंच देने की बात मेरे पिता से की तो वे राजी हो गए थे।दाऊ जी के घर में मुझे धरम बेटी का दर्जा मिला गया।अपने घर में रखते हुए उन्होंने हीरे को तराशने वाले जौहरी की तरह मुझे तराशा।कला की बारिकियों को सतत अभ्यास से सिखाया।कला में जान डाल कर मंच में उसे बेधड़क प्रस्तुत करने में माहिर किया।
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि बेटी नर्तन की दुनिया चार दिन की होती है, जबकि गायक-गायिकाओं की पहचान अमिट होती है। साथ ही जनमन के बीच स्थाई पहचान गायकी से जल्द बन जाती है।मैंने दाऊ जी के इस मंत्र को शिरोधार्य किया और उनकी गुरूवाई में सदा के लिए गायन की गहराई में डूबते चली गई। मेरी गायकी का डंका बजने लगा। दाऊ जी की संस्था के ख्यातिप्राप्त कलाकारों में शामिल मदन निषाद, गोविंदराम, बाबूदास भुलवाराम, लालूराम, गणेश यादव, फिदा बाई, माला बाई, राधा बाई आदि के साथ लगातार मंचीय कार्यक्रम का सिलसिला चल पड़ा।
*रायपुर कार्यक्रम के दौरान टाकीज बंद*
जीवन का ऐतिहासिक यादगार कार्यक्रम के संबंध में वे बताईं - रायपुर में हमारा कार्यक्रम सत्तर के दशक में चला तो टिकट लेकर देखने वालों की अपार भीड़ उमड़ पड़ती थी। सिनेमा हॉल में दर्शकों का टोटा हो जाता था।ऐसी लोकप्रियता के दौर में सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर जी ने हमारी कला को देखा और वे अपने साथ हमें दिल्ली ले गए।हमने उनके निर्देशन में चोर चरनदास,मोर नाव दमाद गांव के नाव ससुरार, आगरा बाज़ार, जैसे बहुचर्चित नाटकों की प्रस्तुति दी।
गायन कला सफर में शिखर की ओर बढ़ते हुए मुम्बई फिल्म जगत के मोहम्मद रफी,सुमन कल्याणपुर, लता मंगेश्कर, राजब्बर, स्मिता पाटिल, मनु नायक, मलय चक्रवर्ती जैसे कला विभूतियों का सानिध्य भी मुझे मिला।छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक क्रांति का शंखनाद करने वाले दाऊ रामचंद्र देशमुख की संस्था चंदैनी गोंदा,दाऊ महासिंह चंद्राकर कृत सोनहा बिहान सहित केदार यादव कृत नवा बिहान,और स्वयं की सांस्कृतिक संस्था आमा मंउर के मंचों में गाए और रिकार्ड हुए मेरे अनेक गीत कालजयी बने।जिनमें से अच्छे खासे लोकप्रिय हुए गीत है -तें अरझे कहां परबुधिया रे, देखे देवर बाबू तोर भइया के चाल, अंचरा ल रो रो भिजोंवत हंव, जिनगी पहाड़ होगे रे, आते जाते रहिबे रे छैला बाबू मोर गांव। आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित सुर सिंगार कार्यक्रम में मेरे गीतों की फरमाइश बड़ी संख्या में श्रोताजन करते हैं।
*तुम मुझे मैं तुम्हें बांध लूं*
आगे अपने जीवन में आए बदलाव के बारे में वे बताई - कला यात्रा में आगे बढ़ते मुझे गणेश यादव उर्फ गन्नू जी जीवन साथी के रूप में मिले।उनकी प्रबल निपुणता तबला - ढोलक वादन और छत्तीसगढ़ी गीतों को रोचकतापूर्ण संगीतबद्ध करने में थी।विवाह पूर्व एक कार्यक्रम के सिलसिले में हम सभी कलाकार नाव पर सवार होकर नदी को पार कर रहे थे। तभी ड्रमों को रस्सी से बांध कर बनाई गई नाव टूट गई थी।ऐसी आपदा की घड़ी में गन्नु जी ने मुझे डूबने से बचाया था।उस वक्त हम दोनों के दिल से आवाज निकली "तुम मुझे बांध लो मैं तुम्हें बांध लूं "।इसके बाद मैं जयंती मरकाम से जयंती यादव बन गई।तब दाऊ मंदराजी ने पिता की भूमिका का निर्वहन करते हुए मेरी विदाई की थी।
आज इस दुनिया में मेरे गुरु पति नहीं हैं।इतना बताते बताते वे भावुक हो गई थी।डबडबाई आंखें पोंछते, भरभराई हुई आवाज में अपने जीवन साथी स्व.गन्नू जी के संगीतबद्ध और बद्रीविशाल परमानंद जी के लिखे गीत को वे गुनगुना पड़ी- चोला चूरत रहिगे, जिनगी घूरत रहिगे,
सुरता के सपना म, माड़े मुरत रहिगे।
*गालों पर चिकोटी काट लेते थे दर्शक*
उनकी बेजोड़ गायकी को सुन देखकर मैं अचंभित हो गया था।दरअसल जयंती जी 75 वर्ष की उम्र को पार कर चुकी हैं, किंतु आज भी डूबकर आरोह अवरोह के साथ गाने में सक्षम है।उनकी तरह गाना अच्छे अच्छे गायक गायिकाओं के वश की बात नहीं है।गीतों के बोल के अनुरूप चेहरे पर भाव लाते,उंगलियों से मुद्राएं बनाते हुए वे कई गीतों को उस वक्त अविरल सुनाते चली गई थीं।तब भी क्षणिक थकान जैसे कोई बात उनके भीतर नज़र ही नहीं आ रही थी।
बातचीत को आगे बढ़ाते हुए मैंने सवाल किया था आपको थकान नहीं लगती? इस पर वे हंसकर बोली- कलाकारों के जीवन में आराम कहां विजय बाबू। जानते तो होंगे ही संगीत एक ऐसी औषधि है, जिससे तन मन ऊर्जावान बना रहता है।गाते नाचते बजाते अगर कोई कलाकार थकता है तो तय मानिए कि उसके भीतर का कलाकार शेष नहीं है।रात रात भर हम लोग महीनों कार्यक्रम देते थे,फिर भी हमारे भीतर ताजगी भरी होती थी। महानगरों में कार्यक्रम के दौरान हमारी ताजगी के दीवाने दर्शकों की तालियां थमती नहीं थीं। विदेशी और शहरी महिलाएं बधाई देते हुए प्यार से मेरे गालों पर चिकोटी काट देती थी।दर्शकों से ऐसा सच्चा प्यार पाना ही एक ईमानदार कलाकार की कमाई है।
*ठूंठ हूं पर बेजान मत समझना*
बेहद सरल स्वभाव की जयंती को बालपन से ही सजना संवरना रत्ती भर नहीं भाता था।वे कहती हैं-संगीत से सजा मेरा तन मन सुंदर है। कलाकारों का हुनर ही उन्हें आम से खास बनाता है। विचारने लायक बात है कि दर्पण के सामने संवरना हर कोई चाहता है पर दर्पण की तरह साफ दिल कोई कोई ही रखता है।ऐसी साफ दिल के जयंती जी की बाडी लेंग्वेज उस समय यही बंया कर रही थी कि- ठूंठ हो चुकी हूं,
पर बेजान मत समझना लोकगीत संगीत के लहू
मेरी रगो मेंआज भी बहते हैं।
जिंदगी से कोई शिकवा तो होगी पूछने पर कहती हैं -मुझे अपनी जिंदगी से नहीं पर जमाने के लोगों से बहुत शिकायत है।आवेश में आकर दांतो को चबाते हुए वे बोली- छल कपट करके मेरे गाए गीतों को गाकर,रिकॉर्ड करके लोग प्रसिद्धि और पुरस्कार पा गए। ऐसे टांग खींचने वालों का नाम तो बताइए कहने पर एक हल्की मुस्कान के साथ बोली-नाम बताकर मैं अपना बड़प्पन खोना नहीं चाहती।इतना जान लीजिए कि मुझे गिराने वाले मेरे इतने अपने थे कि संभलने के लिए भी मैंने सिर्फ उन्हीं पर भरोसा किया।
*पुराने लोग नया हौसल देंगे*
उनसे मैने अंतिम सवाल किया आप अपनी जिंदगी में हासिल तजुर्बे और हकीकत के आधार पर नई पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगी ?इस पर वे बोलीं - सीखने की ललक जीवन भर बनाए रखें।लगातार सीखना ही जिंदादिली है।सीखना बंद करने की प्रवृत्ति पतन का कारण बन जाती है।लोक संस्कार हमारे सामाजिक रिश्तों में प्रगाढ़ता बनाए रखने का संदेश देते है,अतः सतही लोकप्रियता के लिए इन्हें कभी विकृत ना करें।
बातचीत को विराम देकर उनसे विदा लेने उठा तभी उनकी बहुरानी गरमा गरम चाय लेकर आ गई।चाय की चुस्कियां याद दिला रही थीं ए पंक्तियां "पुरानी लोग नया हौसला देंगे, बुजुर्गों से मिलते रहें वे दुआ देंगे।"