रायपुर। '' संसार में अनासक्ति और शांति से जीने का पहला मंत्र है- जीवन के प्रत्येक कार्य को सजगता पूर्वक करें। हर गलती के प्रति हमेशा सावधान रहें। जिंदगी बड़ी गजब की है कि व्यक्ति शरीर रूपी काली मिट्टी को स्वर्ण रूपी चमकीली मिट्टी से सजाता है अर्थात् मिट्टी को मिट्टी से सजाता है और मुस्कुराता है। भगवान महावीर कहते हैं इसी का नाम मिथ्यात्व है। जड़ से जड़ को, पुद्गल से पुद्गल को सजाया जाता है और चेतना मुस्कुराती है। महावीर प्रभु कहते हैं- इसी का नाम मिथ्यात्व है। संसार में जीना हमारा धर्म है पर संसार में फंसना और भीतर संसार को उतार लेना ये हमारा धर्म नहीं है। संसार में रहें पर बहुत सजगतापूर्वक रहें, प्रत्येक कार्य को सजगता और शांतिपूर्वक कीजिए। और इस बोध को बनाए रखिए कि ये अलग है और मैं अलग हूं। मैं अलग हूं-शरीर अलग है, नाव अलग है-नाविक अलग है इसका बोध हो जाना, इसी का नाम भेद विज्ञान है। संसार में जीने का दूसरा मंत्र है- जो भी परिणाम आ जाए उसे हमेशा सहजता से स्वीकार कर लो। ठीक है ऐसा होना था, हो गया, कोई बात नहीं। जीवन में जितनी जरूरी सजगता है उतनी ही जरूरी सहजता भी है। संसार में अनाक्ति और शांति से जीने का तीसरा मंत्र है- जीवन को बहुत शांति से जियो। जो मिला है-भाग्य से ज्यादा मिला है। क्योंकि इच्छाएं तो आकाश की तरह अनंत हैं। जो व्यक्ति इन मंत्रों को अपनाकर जीवन जीता है वह जीवन में कभी दुखी नहीं होता है।''
ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग जीने की कला के अंतर्गत अध्यात्म सप्ताह के आठवें दिन सोमवार को व्यक्त किए। 'कैसे पाएं अनासक्ति और मुक्ति' विषय पर व्यक्त किए। प्रेरक भावगीत 'जीवन है पानी की बूंद, कब मिट जाए रे, होनी-अनहोनी कब क्या घट जाए रे...।।' के मधुर गायन से धर्मसभा का शुभारंभ करते हुए संतप्रवर ने कहा कि आसक्ति- जो आ सकती है पर जा नहीं सकती, इसका नाम है आसक्ति। जिंदगी में एक बार आदमी मोह-माया के मकड़जाल में अगर उलझ जाए तो फिर उससे निकल नहीं पाता। ये आ तो सकती है पर जिंदगी में वापस जाने का नाम नहीं लेती। मरते दम तक आदमी वही दुनियादारी, व्यवस्था-व्यवहार इन्ही सबमें लगा रहता है। और परिणाम जिंदगी का अंत समय आ जाता है। कहने के नाम पर तो हम उदाहरण देते हैं मकड़ी के जाले का, अरे मकड़ी के जाले की क्या जिंदगी है, उससे ज्यादा जाले तो हम बुनते हैं। और हमारी जिंदगी भी वैसी ही बनती है जैसे मकड़ी की बनती है। मकड़ी जाल बुनती है दूसरों को फंसाने के लिए, दूसरे फंसे या ना फंसे पर वह खुद ही उसमें फंसी रह जाती है। हमारी जिंदगी भी ऐसी ही चलती है।
हर आदमी को मरने से पहले मुक्ति की व्यवस्था कर लेनी चाहिए
संतप्रवर ने आगे कहा कि मृत्यु और मुक्ति में फर्क यही है कि जहां पर शरीर तो खत्म हो जाए पर इच्छाएं जीवित रह जाएं उसका नाम मृत्यु है और जहां पर इच्छाएं मर जाएं और शरीर भले ही जिंदा रहे इसका नाम मुक्ति है। हर आदमी को मरने से पहले अपनी जिंदगी में मुक्ति की व्यवस्था जरूर कर लेनी चाहिए। जैसे सागर अनेक नदियों से बनता है, वैसे ही हमारा जीवन है जो अनंत-अनंत रहस्यों से भरा हुआ है। भगवान हमें जीवन का पाठ पढ़ाते हुए अनासक्त योगी बनने की पावन प्रेरणा देते हैं। भगवान कहते हैं- हे श्रावक, हे साधक, हे मुनि तू पूरे महासागर को पार कर गया है लेकिन किनारे पर आकर अटक गया है। तू सोच अगर इस तरह बार-बार सागर पार करता रहेगा और किनारे पर आकर अटकता रहेगा तो तू भवसागर को कैसे पार करेगा। तू किनारे पर आकर अपने मन को क्यूं भटका रहा है, अपनी मुक्ति, शांति और आत्म आराधना की व्यवस्था कर।
काया, धन और परिजन यहीं रह जाते हैं साथ जाती है केवल आत्मा
एक राजा और उसकी चार रानियों की कहानी से मनुष्य के सांसारिक जीवन की व्यथा का चित्र खींचते हुए संतश्री ने कहा कि व्यक्ति जीवनभर अपनी काया, धन और परिवार के पीछे भागता-दौड़ता रहता है और उसकी स्वयं की आत्मा को वह देखना-पूछता और उसका हाल जानना भी नहीं चाहता। अंत समय जब आता है तो काया, धन, परिवार सब यहीं के यहीं रह जाते हैं और साथ जाती है तो केवल उसकी आत्मा। आदमी की जिंदगी भी बड़ी गजब की है, बचपन में वह खिलौना खेलता रहा, जवानी में दुनिया से खेलता रहा, बुढ़ापे में पोता-पोतियों के साथ खेलता रहा और अंत में जब मौत आई तो अकेला ही चला गया। जिंदगीभर आदमी के खेल चलते रहे, कभी वह संसार से खेलता रहा और कभी संसार में खेलता रहा।
मुक्ति को पाने बहिर्आत्मा से बाहर निकलो,
अंतरआत्मा में प्रवेश करो और परमात्मा का ध्यान करो
संतश्री ने कहा कि आदमी क्रोध में आउट आॅफ कंट्रोल हो जाता है, अपना विवेक खो बैठता है। हंसी की हत्या करता है, खुशी को खत्म और विवेक को नष्ट करता है। अपनी अन्तरदृष्टि को खत्म कर देता है, रिश्तों को मटियामेट कर देता है और गुस्से में आदमी वे सब बातें बोल जाता है जो उसे नहीं बोलना चाहिए। बेवजह खींचतान कर हम अपनी जिंदगी को नर्क बनाते रहते हैं। निर्विकल्प और अनासक्त जीवन जीने के लिए आदमी को तीन शब्द का ज्ञान जरूर होना चाहिए। वे हैं- बहिर्आत्मा, अंतरआत्मा और परमात्मा। जो हर समय बाहर की गतिविधियों में लीन रहता है वह बहिर्आत्मा है। जो बाहर की गतिविधियों से मुक्त होकर भीतर में प्रवेश करना शुरू कर चुका है वह अंतरआत्मा और जो व्यक्ति इन दोनों से मुक्त होकर सिद्धशिला और मोक्ष में चला गया है वह परमात्मा। अनासक्त जीवन जीने के लिए पहली शर्त है- बहिर्आत्मा से बाहर निकलो, अंतरआत्मा में प्रवेश करो और परमात्मा का ध्यान करो ताकि मुक्ति का मार्ग आपके हाथ लग सके।
अनासक्त होकर मुक्ति मार्ग पर चलना यही साधना है
संतश्री ने बताया कि संसार में जीने की पुरातन काल में जो व्यवस्थाएं थीं पहला था ब्रह्मचर्य आश्रम दूसरा-गृहस्थ आश्रम, तीसरा- वानप्रस्थ आश्रम और चौथा संन्यास आश्रम। इन आश्रम व्यवस्था में जीवन जीने से आदमी का जीवन सफल हो जाता था। संतप्रवर ने कहा कि जीवन को अनासक्त बनाने के लिए पहला मंत्र अपने-आपके लिए जोड़ना पड़ेगा और वह है- मरने से पहले हमें जागना पड़ेगा। वास्तव में दीक्षा लेना संसार से भागना नहीं है, संसार में जागना है। संसार में रहते हुए कैसे आदमी अनासक्त और मुक्ति का जीवन जी सकता है, यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि और साधना है।
संतश्री ने श्रद्धालुओं से कहा कि संसार में रहते हुए भी अनासक्त जीवन जीने के लिए पहला संकल्प हमें करना चाहिए कि मैं संसार में वैसे ही रहुंगा जैसे कीचड़ में कमल रहता है। संसार में ऐसे रहो जैसे अस्पताल में नर्स रहती है, सेवा जिसका धर्म और कर्तव्य है, सेवा करते हुए भी वह अनासक्त होती है। संसार में रहो सबके साथ रहो पर किसी से जुड़कर न रहो। जो व्यक्ति अनासक्त भाव से अपना फर्ज निभाता है वह व्यक्ति संसार में रहकर भी मुक्ति की साधना करता है।
श्रावक अपनी लक्ष्मी के सदा सदुपयोग के
लिए करे प्रार्थना: डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागर
पंचम काल में जो इंसान संत बने वो महान है, देवों से-राजा से बड़ा संत मुनि का मान है।।... इस प्रेरणास्पद गीत से शुभारंभ करते हुए डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागरजी ने कहा कि हमारी भारतीय संस्कृति में भोग को नहीं योग को महत्व दिया गया है। यहां पर वासना को महत्व नहीं दिया गया है, यहां हमेशा साधना को महत्व दिया गया है। जब जन्मों-जन्म के पुण्यों का उदय होता है तब व्यक्ति संसार के नहीं साधना के मार्ग पर अपने कदम बढ़ाता है। इसीलिए प्रभु परमात्मा से यह प्रार्थना करो कि हे प्रभु मैं भले ही इस संसार में जन्मा हूं, इस संसार में जी रहा हूं और इस संसारी काया को लेकर चल रहा हूं लेकिन प्रभु इतनी कृपा करना जब ये प्राण इस शरीर से निकले तो मेरे इस शरीर पर किसी संसारी का वेष न हो अगर हो तो मुनि का वेष हो। शास्त्रों में श्रावक को तीन बातों का हमेशा मनोरथ करते रहना चाहिए। पहला- प्रभु ऐसी कृपा करना कि मेरी लक्ष्मी का सदा सदुपयोग होता रहे, दूसरा- मेरे जीवन में कभी न कभी चारित्र्य का उदय जरूर आए, मैं भी मुनि बनुं, और तीसरी भावना यह भाएं कि अगर मेरे जीवन में मुनि जीवन का उदय न हुआ तो इतनी कृपा जरूर करना प्रभु की जब मैं प्राण त्याग तो संथारे के साथ इस शरीर का विसर्जन करुं।
अतिथियों ने प्रज्जवलित किया ज्ञान का दीप
दिव्य चातुर्मास समिति के अध्यक्ष तिलोकचंद बरड़िया, महासचिव पारस पारख व प्रशांत तालेड़ा, कोषाध्यक्ष अमित मुणोत ने बताया कि सोमवार को दिव्य सत्संग का शुभारंभ अतिथिगण सीए नीलमचंद बोथरा, वीरेंद्र डागा, किशोर जैन, श्रीऋषभदेव मंदिर ट्रस्ट के कार्यकारी अध्यक्ष अभय भंसाली, श्रीमती मंजू डागा, सुश्री वीणा जैन, श्रीमती नीलम बोथरा द्वारा दीप प्रज्जवलित कर किया। अतिथि सत्कार समिति के अध्यक्ष तिलोकचंद बरड़िया व वरिष्ठ सदस्य विमल गोलछा के हाथों किया गया।
अक्षय निधि, समवशरण, विजय कसाय तप
एवं दादा गुरूदेव इकतीसा जाप जारी
श्रीऋषभदेव मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष विजय कांकरिया, कार्यकारी अध्यक्ष अभय भंसाली, ट्रस्टीगण तिलोकचंद बरड़िया, राजेंद्र गोलछा व उज्जवल झाबक ने संयुक्त जानकारी देते बताया कि आज दिव्य सत्संग में अक्षय निधि, समवशरण, कसाय विजय तप के एकासने के लाभार्थी- नेवैद्य परिवार, श्रीमती शरद देवी नरेंद्र कुमार-संध्या देवी, अरिहंत विधि पारख परिवार, प्रकाशचंद अभिषेक अमित मालू परिवार, मोतीलाल गौतमचंद सम्पतलाल कमलेश झाबक परिवार, जेठमल मिश्रीलाल कांतिलाल दुग्गड़ परिवार, जितेंद्र कुमार अभिषेक प्राणकुमार गोलछा परिवार, श्रीमती बसंतीदेवी सुमन देवी मीना देवी लुंकड़ परिवार का बहुमान हुआ। साथ ही 20 व 21 अगस्त के एकासने के लाभार्थी परिवारों का भी ट्रस्ट मंडल व चातुर्मास समिति द्वारा बहुमान किया गया। इस प्रसंग पर श्रीमती मंजू बरड़िया ने धर्मसभा में स्वरचित अध्यात्मिक संदेशपरक कविता सुनाई। सूचना सत्र का संचालन चातुर्मास समिति के महासचिव पारस पारख ने किया। 21 दिवसीय दादा गुरुदेव इक्तीसा जाप का श्रीजिनकुशल सूरि जैन दादाबाड़ी में पिछले सोमवार से प्रतिदिन रात्रि साढ़े 8 से साढ़े 9 बजे तक जारी है।
आज प्रवचन का विषय 'आज की बात: सार की बात'
दिव्य चातुर्मास समिति के अध्यक्ष तिलोकचंद बरड़िया, महासचिव पारस पारख व प्रशांत तालेड़ा, कोषाध्यक्ष अमित मुणोत ने बताया कि मंगलवार 23 अगस्त को दिव्य सत्संग के अध्यात्म सप्ताह के नवमें दिन प्रात: 8.45 से 10.30 बजे के मध्य पूरे 45 दिनों की प्रवचनमाला के सार स्वरूप राष्ट्रसंत द्वारा 'आज की बात : सार की बात' विषय पर प्रवचन होगा।