छत्तीसगढ़। होली पर्व को सुरक्षित मनाने हेतु कृषि विज्ञान केन्द्र दन्तेवाड़ा द्वारा हर्बल गुलाल का उत्पादन किया जा रहा है। हर्बल गुलाल के निर्माण में प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। प्राकृतिक रंगों के उत्पादन हेतु प्रमुखतः सिंदूर, टेशू, चंदन, मेंहदी, कत्था, हल्दी तथा साग-भाजियों का इस्तेमाल किया जाता है। हर्बल गुलाल के उत्पादन में रंगों का उत्पादन विभिन्न प्रक्रियाओं के तहत किया जाता है। तत्पश्चात निस्कर्षित रंग कों मक्का या अरारोट के स्टार्च से संयोजित कर हर्बल गुलाल प्राप्त किया जाता है। सम्पूर्ण प्रक्रिया मानव श्रम द्वारा सम्पन्न किया जाता है। रंगों का निस्कर्षण एवं माध्यम में सम्मिश्रण पूर्णतः मशीन रहित कार्य है। इस कार्य हेतु केन्द्र के प्रसंस्करण भवन में सांई बाबा स्व-सहायता समूह हारम, हिंगलाजिन स्व-सहायता समूह कासोली, झारा नंदपुरीन माता स्व-सहायता समूह झोडियाबाडम एवं गमावाडा की महिलाएं कार्य कर रही है। कृषि विज्ञान केन्द्र दन्तेवाड़ा द्वारा आज से चार वर्ष पूर्व हर्बल गुलाल का उत्पादन की शुरूआत की गई थी। इस वर्ष आदिवासी उपयोजना अंतर्गत राज्य के आठ कृषि विज्ञान केन्द्रों के वैज्ञानिकों को कृषि विज्ञान केन्द्र दंतेवाडा द्वारा प्रशिक्षित किया गया। जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में राज्य के लगभग समस्त जिलों में हर्बल गुलाल का उत्पादन किया जा रहा है। जिसका प्रमुख उद्देश्य सुरक्षित होलिकोत्सव मनाना एवं महिलाओं हेतु आय सृजन गतिविधि संचालित करना है।
दन्तेवाड़ा जिले के महिला समूहों द्वारा निर्मित हर्बल गुलाल को इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एस. के. पाटील द्वारा राजभवन में महामहिम राज्यपाल श्रीमती अनुसुईया उईके को भेंट किया गया। जिसका महामहिम द्वारा प्रंशसा की गई। कृषि विज्ञान केन्द्र के वैज्ञानिकों ने दन्तेवाड़ा जिले के कलेक्टर श्री दीपक सोनी (आई.ए.एस.) को हर्बल गुलाल भेंट कर होली की शुभकामनाएं प्रदान की। इस अवसर पर कलेक्टर श्री दीपक सोनी द्वारा हर्बल गुलाल की विक्रय की जानकारी ली गई तथा उन्होंने इस कार्य की प्रशंसा की। उन्होंने गुलाल उत्पादन को और बेहतर कर महिलाओं के लिये आजीविका सृजन का माध्यम बनाने की सलाह दी।
बाजार में उपलब्ध गुलाल भारी रासायनिक तत्व युक्त होता है जो मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। रासायनिक गुलाल में कॉपर सल्फेट होने के कारण आंखो में एलर्जी या अस्थाई अंधापन होने की संभावना होती है, इसी प्रकार क्रोमियम आयोडाईड के कारण ब्रोन्कियल अस्थमा, एलर्जी, एल्यूमिनियम ब्रोमाईड की उपस्थिति से कैंसर, लेड आक्सिाईड से गुर्दे की विफलता एवं लर्निंग स्कील में कमी तथा बुध सल्फेट से त्वचा संबंधी विकार उत्पन्न होता है तथा बुखार आने की सम्भावना बनती है। रासायनिक रंग, त्वचा, आंख, बाल, कान आदि पर बुरा प्रभाव डालता है।
कलेक्टोरेट के मुख्य द्वार पर सांई बाबा स्व-सहायता समूह द्वारा प्राकृतिक रंगों का अस्थाई स्टॉल लगाया गया है। स्टॉल में रंगों को विक्रय करते हुए समूह की महिलाओं में सरिता नाग, शांति कश्यप एवं शिवबती यादव ने बताया कि लोगों का अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है। स्टॉल लगाकर दो दिन हुए हैं और हमने इन दो दिनों में लगभग 60 हजार रूपये का आय अर्जन किया है। स्टॉल को देखकर सड़क पर जाते हुए कोई भी राहगीर इन प्राकृतिक रंगों को हाथों हाथ ले रहे हैं। इन समूहों के द्वारा सौ-सौ ग्राम के पांच कलर के छोटे पैकेट को मिलाकर 500 ग्राम का एक बड़ा पैकेट बनाया गया है जिसकी कीमत 200 रू. रखा गया है। उन्होंने बताया कि कोरोना महामारी के चलते रंगो की बिखरी को थोड़ा प्रभावित किया है अन्यथा और अच्छे से स्टॉल में रंगों की बिक्री हो सकती थी।