लोगों में लोकप्रिय होते जा रहे हैं हर्बल उत्पाद, प्रसंस्करण इकाईयों में मिल रहा वनवासियों को रोजगार
रायपुर। वनोपज वहां के रहवासियों के लिए जिविकोपार्जन का आधार बन रहा है। जंगलों में पाए जाने वाले बहूमूल्य ईमली, महुआ, चार, हर्रा-बेहड़ा व अन्य वनोपज के संग्रहणकर्ता को तो इसका लाभ मिल ही रहा है वहीं इसके प्रसस्करण से बनने वाले उत्पाद लोगोें के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं। इससे बनने वाले हर्बलउत्पाद बीमारियों से बचाव के लिए भी कारगार है। वनों में बिखरे इस खजाने को आमजनमानस को लाभ दिलाने के लिए राज्य सरकार इसे उचित मूल्य पर खरीदी कर रही है। धमतरी जिले के नगरी के दुगली में स्थापित वन धन विकास (लघु वनोपज प्रसंस्करण) केन्द्र में एलोवेरा शैम्पू, बॉडीवॉश, जैल, जूस के साथ ही मूसली लड्डू और वज्रदंती हर्बल पावडर का उत्पादन किया जा रहा है। विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने इस प्रसंस्करण कंेद्र पर कार्यरत स्व-सहायता समूह के सदस्यांे की तारीफ की थी।
वन विभाग द्वारा प्रसंस्करण केन्द्र में संसाधन के साथ ही समय-समय पर नई तकनीकों का प्रशिक्षण और मशीन उपलब्ध कराया जाता है। इसके बाद तैयार उत्पाद को स्थानीय स्तर पर अगर खरीददार तय दर पर लेने पहुंचे तो, उन्हें बेच दिया जाता है। साथ ही एन.एफ.डब्ल्यू.पी. मार्ट में तैयार उत्पाद बेचने के लिए भेज दिया जाता है। यहां पर सितंबर से जनवरी तक शतावर का पाउडर तैयार किया जाता है जो कि महिलाओं, खासतौर पर शिशुवती माताओं के लिए पौष्टिकता से भरपूर होता है। आंवला से मीठा व नमकीन कैण्डी, जूस, पाउडर बनाने का काम अक्टूबर से फरवरी में होता है। वहीं तिखुर पाउडर बनाने का काम दिसंबर से फरवरी तक, बैचांदी से चिप्स बनाने का काम दिसंबर से फरवरी तक होता है। जो कि कृमिनाशक होने के साथ ही फलाहारी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यहां कार्यरत महिला समूह को मार्च से जून तक केकती से सूखा रेशा बनाने का काम भी मिलता है। इसके रेशे से रस्सी बनाकर पायदान, थैला इत्यादि बनाया जाता है और वन विभाग के उत्पादन क्षेत्रों में भी इसे बाड़ी के तौर पर लगाया जाता है। हाल ही में यह प्रदेश का ऐसा पहला वन-धन केन्द्र बना, जहां एलोवेरा से जैल, बॉडीवाश, शैम्पू और जूस तैयार किया जा रहा है।
इस प्रसंस्करण केन्द्र में यहां रहने वाले कमार जनजाति के लोग शहद लाकर बेचते हैं। पहले यह शहद स्थानीय व्यापारियों को सस्ते दर में बेच दिया करते थे, किन्तु इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होने पर कमार जनजाति के लोग प्रसस्करण केंद्र में बेचकर उचित दाम पा रहे हैं।