जनता से रिश्ता के 13वें स्थापना दिवस पर कॉन्फ्रेंस हाल में हुई वर्तमान परिदृश्य में पत्रकारिता विषय पर परिचर्चा

वर्तमान परिदृश्य में पत्रकारिता का स्तर : प्रधान संपादक पप्पू फरिश्ता
जनता से रिश्ता के स्थापना दिवस के अवसर पर बोलते हुए प्रधान संपादक पप्पू फरिश्ता ने कहा कि वर्तमान में भारत की पत्रकारिता बहुत ही लाचार हो चुकी है जिसको सीबीआई का डर दिखा कर या पूरे न्यूज चैनल को ही किसी ऐसे उद्योगपति द्वारा खरीदा गया है जिसके सर पर वर्तमान की सरकार का हात है। नाम बताने कि जरूरत नहीं है (देश में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाला लगभग हर इंसान उस व्यक्ति की कंपनी का इंटरनेट इस्तेमाल करता है। ) ये ऐसे न्यूज एंकर्स बेमतलब की खबरें दिखा कर लोगों का दिमाग़ फालतू बातों से भर रहे है।
अगर कोई शहर में कोई किसी समस्या के बारे में स्थानीय अखबार में खबर छपती है तो दूसरे दिन ही सारे उस विभाग के अधिकारी सकते में आ जाते है और उस समस्या को दूर करने का प्रयास करते है। जब स्थानीय अखबार में खबर आने के बाद ये बदलाव आ सकता है तो सोचिए कि देश का नागरिक जिसको देश में क्या चल रहा है ये टीवी पे न्यूज चैनल लगाने के बाद पता चलता है वो क्या चमत्कार नहीं कर सकता। आज अगर देखा जाए तो देश की बहोत सारी समस्या न्यूज चैनल पे दिखा कर सरकार के सामने रखी जा सकती है पर न्यूज चैनल के हिसाब से देश में सब ठीक है और अच्छे दिन आ चुके है। देश में दो चार पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो सभी अभी किसी के गुलामी में जी रहे है और अपनी रोजी रोटी कमा रहे है पर अपना जमीर बेच रहे है। जब की अगर देश में बदलाव लाया जाए तो सबसे पहले रुख मीडिया का हो होगा पर आज की स्थिति बहुत ही गंभीर बनी हुई है आने वाली पीढ़ी को सच्ची पत्रकारिता क्या होती है ये जानने के लिए रवीश कुमार, पुण्यप्रसुन वाजपेई जैसे बेहतरीन और बेबाक और ईमानदार पत्रकारों को खोजना पड़ेगा।
भटकाव की राह पर पत्रकारिता...
समाचार पत्र और पत्रकार समाज के दर्पण कहे जाते हैं। समाज को आज भी इनसे काफी उम्मीदें हैं। समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति न्याय की खातिर अपनी बात को शासन-सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति तक पहुंचाने में जब असमर्थ हो जाता है तो वह इस दर्पण रूपी समाचार पत्र और पत्रकार की शरण में आता है। वह इस खातिर कि मीडिया के माध्यम से उसकी आवाज को संबंधित व्यक्ति तक ज़रूर पहुंचाया जा सकता है। उसे विश्वास होता है, आखिरकार हो भी क्यों न, पत्रकारिता का इतिहास ही इतना गौरवमई है। जनता से रिश्ता के समाचार संपादक अतुल्य चौबे ने आज की पत्रकारिता पर अपनी राय देते हुए कहा- अगर बात करें देश के आजादी या नौकरशाही के विरुद्ध बिगुल बजाने की तो ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब समाचार पत्रों और पत्रकारों ने समाज के शोषितों, पीडि़तों, गरीबों और मजलूमों की आवाज बनकर शासन-सत्ता से लेकर नौकरशाहों को आड़े हाथ लिया है। देश की आजादी में भी पत्रकारिता का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसको भुलाया नहीं जा सकता है। स्वतंत्रता आंदोलन के महानायकों के साथ-साथ पत्रकारिता के महानायकों ने भी अपनी कलम रूपी तलवार से अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने का कार्य किया। तब जब संसाधनों का अभाव हुआ करता था, पत्रकारिता का अपना एक लक्ष्य और मिशन था। इस मिशन भरी पत्रकारिता में तमाम तरह की परेशानियां थीं, बावजूद इसके उस दौर की पत्रकारिता के महानायकों ने कलम की ताकत को कभी झुकने नहीं दिया था। उनकी कलम आग उगला करती थी।
मीडिया अपनी खबरों द्वारा समाज के असंतुलन एवं संतुलन में भी बड़ी भूमिका निभाता है। मीडिया अपनी भूमिका द्वारा समाज में शांति, सौहार्द, समरसता और सौजन्य की भावना विकसित कर सकता है। सामाजिक तनाव, संघर्ष, मतभेद, युद्ध एवं दंगों के समय मीडिया को बहुत ही संयमित तरीके से कार्य करना चाहिये। राष्ट्र के प्रति भक्ति एवं एकता की भावना को उभरने में भी मीडिया की अहम भूमिका होती है। शहीदों के सम्मान में प्रेरक उत्साहवर्द्धक खबरों के प्रसारण में मीडिया को बढ़-चढक़र हिस्सा लेना चाहिये। मीडिया विभिन्न सामाजिक कार्यों द्वारा समाज सेवक की भूमिका भी निभा सकता है। भूकंप, बाढ़ या अन्य प्राकृतिक या मानवकृत आपदाओं के समय जनसहयोग उपलब्ध कराकर मानवता की बहुत बड़ी सेवा कर सकता है। मीडिया को सद्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन हेतु भी आगे आना चाहिये। मीडिया की बहुआयामी भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि मीडिया आज विनाशक एवं हितैषी दोनों भूमिकाओं में सामने आया है। अब समय आ गया है कि मीडिया अपनी शक्ति का सदुपयोग जनहित में करे और समाज का मागदर्शन करे ताकि वह भविष्य में भस्मासुर न बन सके। पत्रकारिता समय के साथ काफी विकसित हुई है। आजकल बहुत सी पत्रकारिता डिजिटल रूप से की जाती है। इनमें से कुछ नाम हैं टेलीविजन, रेडियो, कंप्यूटर, फोन और सोशल मीडिया। आजकल, जो कुछ भी हो रहा है, उसके बारे में जागरूक होना बहुत जरूरी है। और यह इस हद तक आगे बढ़ गया है कि अब लगभग हर कोई पत्रकार है।
कालांतर में व्यवस्थाएं बदलीं हैं, संसाधन बदले हैं तो पत्रकारिता की जिम्मेदारियां भी बढीं हैं। काफी कुछ बदलाव भी हुआ है। खासकर सोशल मीडिया के युग में प्रिंट मीडिया की महत्ता कहने को भले ही घटी है, लेकिन देखा जाए तो इसकी उपयोगिता नहीं घटी है, बल्कि जिम्मेदारियां बढ़ी हैं। इन्हीं के साथ आज की पत्र और पत्रकारिता के समक्ष कई गंभीर चुनौतियां भी सामने खड़ी हुईं हैं। इन चुनौतियों में से सबसे प्रमुख चुनौती पत्रकारिता में बढ़ते घुसपैठ की है। आज की ‘मिशन पत्रकारिता’ में ऐसे घुसपैठियों की एंट्री तेजी से हुई है, जिन्हें पत्रकारिता के उसूलों और सिद्धांतों से कोई लेना-देना या सरोकार नहीं है। यदि उन्हें कुछ सरोकार है तो सिर्फ अपने निजी स्वार्थों का, जिनके चलते पत्रकारिता की गरिमा दिनोंदिन धूल धूसरित होती जा रही है। जिस प्रकार से पत्रकारिता में घुसपैठियों की भरमार होती जा रही है, वह न केवल चिंतनीय है, बल्कि पत्रकारिता की गरिमा के विपरीत भी है। जिनके काले-कारनामों की वजह से पत्रकारिता की गरिमा को ठेस भी पहुंचा है। यदि गौर से देखा जाए तो इस अव्यवस्था के लिए कोई और नहीं बल्कि अपने लोग ही जिम्मेदार हैं। चंद पैसों की खातिर पत्रकारिता के उसूलों और सिद्धांतों को ताक पर रख मिशन को ‘कमीशन’ में परिवर्तित कर दुकानदारी चलाने वाले कुछेक लोगों ने इस क्षेत्र का माखौल उड़ाने का कार्य किया है। जिनकी करतूतों से कहीं न कहीं मिशन पत्रकारिता को जीवित रखने वाले उन महान मनीषियों की आत्मा को ठेस पहुंच रहा है, जिन्होंने अपने जीवन प्रयत्न पत्रकारिता को मिशन की भांति जीने का कार्य किया है। बात करें यदि निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की, तो आज इनकी राह न केवल दुरूह हो चुकी है, बल्कि जोखिम के साथ काफी दुर्गम भी हो गई है। हाल के वर्षों में देश के कई राज्यों में पत्रकारों के ऊपर हुए हमले यह बताने के लिए काफी हैं कि वर्तमान पत्रकारिता की राह में अब रोड़े उत्पन्न किए जा रहे हैं। नौकरशाही जहां सत्यता से भरी पत्रकारिता को पचा नहीं पा रहा है तो वहीं अपराधी अपने कृत्यों को उजागर होने से रोकने के लिए पत्रकार के राह में रोड़ा बन रहा है।
व्यवसायीकरण और पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकार पत्रकारिता का कर रहे बेड़ागर्क : ज़ाकिर घुरसेना
जनता से रिश्ता के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित परिचर्चा में राज.संपादक ज़ाकिर घुरसेना ने वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता विषय पर कहा कि मीडिया देश, सरकार और समाज का एक प्रमुख प्रहरी की तरह है। जो इन सबकी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों छवि को उजागर करता है । वैसे भी प्रेस को लोकतंत्र का प्रमुख या चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाता है परन्तु वर्तमान परिवेश में देखने में आ रहा है कि लोग मीडिया पर ही उंगली उठा रहे हैं। तरह तरह के नामों से सुशोभित भी कर रहे हैं, जो कहने बोलने के लिए जरूरी नहीं है। देखा जा रहा है कि वर्तमान परिवेश में सरकारें हों अधिकारी या जनता, सभी अपनी तारीफ ही सुनना पसंद करते हैं ऐसे में प्रेस वही लिखता है जिससे उसे भी फायदा हो। लेखनी में महारत हासिल किए मूर्धन्य पत्रकारों को भी देख समझ कर लिखना पड़ रहा है। यानी लेखनी से समझौता करना पड़ रहा है। हालांकि प्रेस का काम सरकारों और समाज को जवाबदेही तय करना भी होता है तभी तो चौथा स्तंभ बोला गया है लेकिन जब कोई अपनी जवाबदेही ही नहीं समझ रहे हैं तो प्रेस सिर्फ लिख सकते हैं उसके अलावा कुछ कर नहीं सकते। आज हम देख रहे हैं कि सरकार और सरकारी महकमों के कामों और नीतियों की पड़ताल कर उनके द्वारा किए गए गलत कामों या भ्रष्टाचार को उजागर करने के बावजूद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।
कहने को तो अख़बार का काम सरकार को जवाबदेह बनाना है लेकिन सच लिखने का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में प्रेस की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता उस वक्त प्रेस ने जबरदस्त भूमिका निभाई थी, देश प्रेम की भावना और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों को जागरूक करने में प्रेस की भूमिका महती रही है। प्रेस ने ही लोगों को उसके अधिकारों और कर्तव्यों से भी आगाह कराया था। लेकिन वर्तमान परिवेश में देखें तो कई बड़े पत्रकारों को जान भी गंवाना पड़ा है। जानकारी को लोगों तक पहुंचाने में प्रेस पीछे नहीं है। प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों की सकारात्मक भूमिका रही है आज भी है। जिस तरह से प्रेस मालिक बदल रहे हैं लोगों को सच्ची जानकारी मिलने में संशय हो रहा है। व्यवसायीकरण के गिरफ्त में प्रेस भी आ चुका है इसके बावजूद कई मीडिया घराना सच लिख रहे हैं, जनता की आवाज़ बने हुए हैं। प्रेस को कमजोर और वंचितों के आवाज के रूप में देखा जाता था परंतु प्रतिस्पर्धा और व्यवसायीकरण ने काफी हद तक इसे प्रभावित जरूर किया है, खबरें वही दिखाई जाती है जिसमें व्यावसायिक हित हो। आज के परिवेश में बात करें तो पत्रकारिता चुनौती भरा काम है कदम कदम पर खतरा बना हुआ है। हाल ही में बस्तर के पत्रकार की हत्या को लें या कर्नाटक और दूसरे राज्यों में जिस प्रकार पत्रकारों की हत्या हुई हैं इसी का परिणाम है। आज खबरों की क्रेडिबिलिटी नहीं है और झूठ के बुनियाद पर बनी खबरों की भरमार है, देखा जाए तो प्रेस स्वतंत्र नहीं है। यह भी देखने में आ रहा है कि आजकल पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकारों का एक तबका है जो पत्रकारिता का बेड़ागर्क करने पर तुला है। ऐसे पत्रकार नेताओं के सामने नतमस्तक होकर उनका महिमामंडन और स्तुतिगान करते नजऱ आते हैं।
वे सिर्फ सम्मान पाने की गरज से और भविष्य सुरक्षित करने ऐसा कर रहे हैं,जबकि पत्रकार, साहित्यकार कवि लेखकों को तो विपक्ष की भूमिका निभाना चाहिए। रीढ़ विहीन पत्रकारिता से बेहतर है कुछ दूसरा काम धंधा कर लिया जाए। स्वतंत्रता के पहले और अब की पत्रकारिता में जमीन आसमान का फर्क नजऱ आ रहा है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मीडिया घरानों के पास अखबार के अलावा बहुत सारे धंधे हैं जिसका परिणाम यह हुआ कि संपादक और पत्रकार सिर्फ लाइजनिंग करते नजऱ आते हैं। संपादक अपनी बात नहीं कह सकता यानी सच को उजागर करने में काफी मशक्कत करना पड़ती है ऐसा मौका भी आता है जब सच कहने पर संपादक और पत्रकार को नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। साथ ही व्यवसायीकरण के वजह से पत्रकारों को निष्पक्षता से समझौता करना पड़ता है या कई मीडिया घराना आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं उस संस्थान के पत्रकारों को इन सब बातों से समझौता करना पड़ता है जिसके चलते सब कुछ जानते हुए भी लिख नहीं सकते। और सच सामने आ नहीं पाती।
इन सबका परिणाम यह हो रहा है कि समाचारों के लिखने में या टीवी डिबेट में ये पत्रकार कम प्रचारक ज्यादा नजऱ आने लगे हैं इन सब बातों से लोग अब मीडिया पर भरोसा कम कर रहे हैं। कई मौकों पर पत्रकार पर कार्रवाई भी हो जाती है। पत्रकार सुरक्षा कानून लागू नहीं होने से भी पत्रकारों को धमकी मिलते रहती है कई बार हमले भी हो जाते हैं। वाकई प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है तो पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने में देर किस बात की।
पत्रकारिता का मूलमंत्र पारदर्शिता है
जनता से रिश्ता के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित परिचर्चा में सह संपादक कैलाश यादव ने कहा कि पहले ख़बरें प्रिंट, रेडियो और टी वी से आती थीं. अब ऑनलाइन भी इसमें शामिल हो गया है। अब वैसी ही ख़बरें आती है,जो दर्शकों को पसंद आए।. मतलब दर्शक ही पत्रकारिता को तय कर रहे हैं। ख़बरें मतलब सूचना. हर कोई जल्दी से जल्दी सूचना पाना चाहता है। इसलिए ऑनलाइन का दरवाज़ा खुला। वैसे सोशल मीडिया जैसे यू ट्यूब, फ़ेसबुक, ट्वीटर, इन्स्टाग्राम बहुत ज़रूरी है. ये सभी बहुत सारी ख़बरें देते हैं, लेकिन मेन स्ट्रीम मीडिया को नकारा नहीं जा सकता है।
डिजिटल का जमाना और पत्रकारिता: कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता सिखाई जाती है। प्रैक्टिकल कराए जाते हैं। ये पहले भी होता था। लेकिन आज इसकी ज़्यादा ज़रूरत है. वैसे भी मेन स्ट्रीम मीडिया में नौकरी कम है। ऐसे में प्रैक्टिकल स्टूडेंट्स को ऑनलाइन पत्रकार बनने में मददगार है। आज पत्रकारिता पहले जैसी नहीं रही। अब विशेषज्ञ पत्रकार की ज़रूरत है और मांग भी है। जैसे राजनीतिक पत्रकार, आर्थिक पत्रकार, लीगल पत्रकार, क्राइम पत्रकार, खेल पत्रकार। पत्रकारिता में पारदर्शिता ज़रूरी है. पत्रकार का काम ही है सवाल पूछना. जवाब देना सरकार का काम है. शायद अब ये सब खोता जा रहा है. पत्रकारों को अपने नैतिक मूल्यों का सम्मान बनाकर रखना चाहिए और समाज के प्रति अपनी जि़म्मेदारी भी निभानी चाहिए।
विश्व पत्रकारिता के नैतिक मूल्य और सोशल मीडिया: सोशल मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ अमेरिका में सोशल मीडिया से आनेवाली ख़बरों में 49 फ़ीसदी फ़ेक होती हैं. मतलब फ़ेक न्यूज़ की संख्या बढ़ रही है. साथ ही फ़ैक्ट चेकिंग की मांग बढ़ रही है. भविष्य भी इसी का है. सबसे ज़्यादा नौकरियां भी इसी में हैं। विश्व सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर में विविधताओं से भरी हैं. विचारधारा में भी विविधता देखी जाती है. विचाराधारा का असर पत्रकारिता पर भी देखी जाती है। वैसे तो कहते हैं पत्रकारिता की कोई विचारधारा नहीं होती है, लेकिन इसे झलकने में तनिक देर नहीं लगती . सुधार की ज़रूरत है और प्रोफेशनल जर्नलिस्ट की भी बहुत ज़्यादा ज़रूरत है।
हमें गर्व से भर देते हैं: शरद कुमार साहू
मेरा देश भारत संस्कृति और परंपराओं का अनोखा संगम है। यहाँ हिमालय की ऊँचाई, नदियों की गहराई, और रेगिस्तान की चमक इसकी विविधता को दर्शाते हैं। अनेक धर्म और भाषाएँ होने के बावजूद यहाँ एकता की भावना है। भारत की धरोहरें और वीर इतिहास हमें गर्व से भर देते हैं।
बदल चुका है पत्रकारिता का स्वरूप?
जनता से रिश्ता के पत्रकार स्नेहलता पटेल ने कहा कि आधुनिक भारत में पत्रकािरता के मायने ही बदल गए है। कभी स्वतंत्रता सदेश का माध्यम रहा होगा लेकिन समय के साथ पत्रकारिता का राजनीतिकरण हो गया। गुलाम भारत में स्वतंत्रता सेनानियों को आगामी योजनाओ्ं औऱ गोपनीय बैठकों की सूचना तंत्र बना रहा । आजादी के बाद यह पीडि़त मानवता दबे कुचले शोषित लोगों की आवाज बना, फिर धीरे -धीरे टेक्नोलाजी बढऩे के साथ यह एकदम ग्लैमरस औऱ साजसज्जा के साथ रंगीन हो गया और यही से पत्रकारिता का पतन होना शुरू हो गया।
वर्तमान में प्रिंट मीडिया और व्यवसायिक दृष्टिकोण
वरिष्ठ पत्रकार रामकुमार परमार ने कहा कि एक दौर था जब समाचार पत्रों का काफी महत्व हुआ करता था और कई मौकों पर सरकार को घुटनों पर लाने की क्षमता रखते थे, लेकिन वर्तमान दौर में इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया के चलते इसका प्रभाव कुछ हद तक प्रभावित हुआ है। इसके अलावा व्यापारिक दृष्टिकोण के कारण भी इसके कार्यशैली में भी बदलाव आया है। यही कारण है कि विज्ञापन दबाव के चलते सरकार के खिलाफ जाकर कुछ लिख नहीं सकते। वहीं संपादकीय विभाग पर प्रबंधन का दखलनदाजी भी काफी बढ़ गया है। पहले तो यह माना जाता था कि न केवल लेखन एवं चटपटे समाचारों के कारण प्रसार संख्या में बढ़ोत्तरी होती है बल्कि विज्ञापन भी इन्ही के बदौलत मिलता है। वर्तमान में नजरिया अब पूररी तरह से बदल गया है।
विज्ञापनों पर निर्भरता और राजनीतिक हस्तक्षेप: बड़े समाचार पत्र और टीवी चैनल अपनी लागत निकालने के लिए सरकारी और निजी विज्ञापनों पर निर्भर हैं। उदाहरण के तौर पर,देश का कोई भी अखबार प्रतिदिन हजारों या लाखों में प्रतियां बेचता हो, लेकिन इसकी कीमत बढ़ाने के लिए प्रबंधन हजारों बार सोचता है, क्यों कि इसके चलते पाठकों की संख्या में गिरावट न आ जाए। यही कारण है कि अखबार और चैनल विज्ञापनदाताओं की प्राथमिकताओं के अनुसार अपनी रिपोर्टिंग को ढालने के लिए मजबूर हो जाते हैं। डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स तेजी से समाचार के प्राथमिक स्रोत बनते जा रहे हैं। हालांकि, इन प्लेटफॉम्र्स पर फेक न्यूज़, दुष्प्रचार और राजनीतिक ध्रुवीकरण का खतरा भी बढ़ा है।
मीडिया का ध्रुवीकरण और डिजिटल मीडिया की बढ़ती भूमिका: भारत में मीडिया का ध्रुवीकरण और इसकी स्वतंत्रता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं। समाचार एजेंसियों की भूमिका: समाचार एजेंसियां जैसे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया और एशियन न्यूज इंटरनेशनल भारत में समाचार प्रसार का बड़ा माध्यम हैं। ये एजेंसियां विभिन्न मीडिया हाउस को समाचार बेचती हैं। अगर कोई सरकार या बड़ी संस्था इन्हें नियंत्रित कर लेती है, तो वह देश की राय को प्रभावित करने से इनकार नहीं किया जा सकता। फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार: सोशल मीडिया पर बिना सत्यापन के खबरें वायरल हो जाती हैं, जिससे जनमत को प्रभावित किया जाता है। उदाहरण के तौर पर 2019 और 2024 के चुनावों में सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी और बॉट्स के माध्यम से गलत जानकारी फैलाई गई।
पत्रकारिता का भविष्य और निष्पक्षता की चुनौती: एआई और चैटजीपीटी जैसी तकनीकों के माध्यम से समाचार लेखन की प्रक्रिया तेजी से बदल रही है। इस हालात में पत्रकारिता की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए पारदर्शिता और स्वतंत्रता बनाए रखना बेहद जरूरी है।
परिचर्चा के दौरान प्रबंध संपादक पप्पू फरिश्ता, राज, संपादक ज़ाकिर घुरसेना , वरिष्ठ पत्रकार अतुल चौबे, वरिष्ठ पत्रकार राम कुमार सिंह परमार, वरिष्ठ पत्रकार कैलाश यादव, योगेश साहू, बबलू भैया, शरद, शैलेश सिंह, शांतनु रॉय, नीलमणी पाल, हेमंत, कमल, राहुल, विक्की, तुलसी, संतोषी , तारा , भारती , गुलाबी, शुभि, किरण , कविता, कल्याणी, मोनिसा , दीक्षा, मुकेषनी , माधुरी, सरिता, गुलफ्शा , अलीशा, दिया, मुस्कान, भूमिका और मीरा गुप्ता उपस्थित रहे।