छत्तीसगढ़

बस्तर दशहरा पर्व की हुई शुरुआत, पाटजात्रा का विधान पूरा किया

Shantanu Roy
17 July 2023 1:34 PM GMT
बस्तर दशहरा पर्व की हुई शुरुआत, पाटजात्रा का विधान पूरा किया
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बस्तर। बस्तर में हर वर्ष की तरह इस साल भी दशहरे का आगाज आज हरेली अमावस को पाट जात्रा की रस्म के साथ हुआ। प्रथम रस्म के तौर पर परंपरानुसार राजमहल से भेजे गए पूजन सामाग्री से पाटजात्रा का विधान पूरा किया गया। रथ निर्माण की पहली लकड़ी को ठुरलु खोटला कहा जाता है। दशहरे के लिए तैयार किए जाने वाले रथ की पहली लकड़ी दंतेश्वरी मंदिर के सामने ग्राम बिलौरी से लाई जाती है, जहाँ कारीगरों एवं ग्रामीणों के द्वारा मांझी, चालाकी, मेंबरीन व अन्य सदस्यों की मौजूदगी में पूजा विधान सम्पन्न किया जाता है।


छत्तीसगढ़ के बस्तर में इसकी शुरुआत हरेली पर्व पर पाट जात्रा रस्म के साथ हो गई है। दंतेश्वरी मंदिर के सामने सोमवार को ग्राम बिलौरी से पहुंची ठुरलु खोटला का विधि विधान से पूजा की गई। दुनिया में सबसे लंबे अवधि तक मनाया जाने वाला बस्तर दशहरा इस बार 75 दिन का नहीं, बल्कि दो महीने का अधिमास होने के कारण 107 दिन में संपन्न होगा। खास बात यह है कि इस दशहरे में न तो भगवान राम होते हैं और न ही रावण का वध होता है। बल्कि यह पर्व देवी मां को समर्पित है। बस्तर दशहरा के दौरान रथ यात्रा निकलती है। इन रथों पर देवी मां सवार होती हैं। रथ निर्माण की पहली लकड़ी को स्थानीय बोली में ठुरलु खोटला और टीका पाटा कहते हैं। हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) की पूजा की जाती है। जिसे पाट जात्रा रस्म कहते हैं। इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई की रस्म पूरी करते हैं। इसके साथ ही रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी शहर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

बस्तर दशहरे के लिए तैयार किए जाने वाली रथ निर्माण की पहली लकड़ी दंतेश्वरी मंदिर के सामने ग्राम बिलौरी से जगदलपुर पहुंच चुकी है। रथ निर्माण करने वाले कारीगरों एवं ग्रामीणों के द्वारा मांझी चालाकी, मेंबरीन के साथ जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी में पूजा विधान एवं बकरे की बलि के साथ पाट जात्रा की रस्म संपन्न होगी। बस्तर दशहरा 1408 ई से आज तक बड़े ही उत्साह एवं धूमधाम से जगदलपुर शहर में मनाया जा रहा है। इसमें पूरे बस्तर के लाखों आदिवासी सम्मिलित होते हैं। इस पर्व की रस्म 75 दिन पूर्व पाट जात्रा से प्रारंभ हो जाती है। इसमें दो मंजिला रथ खींचा जाता है। जिसमें मां दंतेश्वरी का छत्र सवार रहता है।

दंतेवाड़ा से हर वर्ष माईजी की डोली दशहरा में सम्मिलित होने आती है। झारउमरगांव और बेड़ाउमरगांव के करीब दो सौ ग्रामीण रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते हैं और 10 दिनों में पारंपरिक औजार से इसे बनाते हैं। इसमें लगने वाले कील और लोहे की पट्टियां भी पारंपरिक रुप से स्थानीय लोहार सीरासार भवन में तैयार करते है। बस्तर दशहरा में दो अलग-अलग रथ चलते है। चार पहियों वाला रथ को फूल रथ तथा आठ पहिए वाला रथ को विजय रथ कहते हैं। लोक साहित्यकार रुद्रनारायण पानीग्राही बताते हैं कि फूल रथ प्रतिवर्ष द्वितीय से सप्तमी तक छह दिन और विजय रथ विजयादशमी व एकादशी के दिन भीतर रैनी तथा बाहर रैनी के रूप में दो दिन खींचा जाता है।

बस्तर दशहरा की शुरुआत राजा पुरुषोत्तम देव के शासनकाल में हुई थी। उन्हें जगन्नाथ पुरी में रथपति की उपाधि के साथ 16 पहियों वाला रथ प्रदान किया गया था। 16 पहियों वाला रथ पहली बार वर्ष 1410 में बड़ेडोंगर खींचा गया था। महाराजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नााथ के भक्त थे। इसलिए उन्होंने 16 पहियों वाले रथ से चार पहिया अलग कर गोंचा रथ बनवाया। जिसका परिचालन गोंचा पर्व में किया जाता है। इस तरह 12 पहियों वाला दशहरा रथ कुल 200 साल तक खींचा गया। बस्तर के आदिवासियों की आराधना देवी मां दंतेश्वरी के दर्शन करने के लिए हर साल देशी और विदेशी भक्त व पर्यटक पहुंचते हैं। बस्तर दशहरा के एतिहासिक तथ्य के अनुसार वर्ष 1408 में बस्तर के काकतीय शासक पुरुषोत्तम देव को 16 पहियों वाला विशाल रथ भेंट किया गया था। इस तरह बस्तर में 615 सालों से दशहरा मनाया जा रहा है। राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथ पुरी से वरदान में मिले 16 चक्कों के रथ को बांट दिया था। उन्होंने सबसे पहले रथ के चार चक्कों को भगवान जगन्नाथ को समर्पित किया और बाकी के बचे हुए 12 चक्कों को दंतेश्वरी माई को अर्पित कर बस्तर दशहरा एक बस्तर गाँचा पर्व मनाने की परंपरा का श्रीगणेश किया था, तब से लेकर अब तक यह परंपरा चली आ रही है।
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