छत्तीसगढ़

जनता से रिश्ता के स्थापना दिवस के अवसर पर पिछले दिनों परिचर्चा आयोजित की गई

Nilmani Pal
14 Aug 2024 5:40 AM GMT
जनता से रिश्ता के स्थापना दिवस के अवसर पर पिछले दिनों परिचर्चा आयोजित की गई
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प्रिंट और सोशल मीडिया: वर्तमान परिदृश्य में चुनौतियाँ

जनता से रिश्ता के प्रधान संपादक पप्पू फरिश्ता संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि आज जिस तेजी के साथ मीडिया, पत्रकारिता के स्वरूप अलग- अलग देखने को मिल रही, उसी तेजी के साथ कई नई चुनौतियां भी है। मेरा मानना है कि आज के डिजिटल युग में, मीडिया का परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। सूचना का प्रवाह जितना तेज़ हो गया है, उतनी ही तेजी से मीडिया को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इन चुनौतियों ने न केवल मीडिया की भूमिका और जिम्मेदारियों पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं, बल्कि इसके भविष्य को भी प्रभावित कर रहे हैं।


फेक न्यूज़ और गलत जानकारी: इंटरनेट और सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच ने सूचनाओं के आदान-प्रदान को आसान बना दिया है। हालांकि, इसके साथ ही फेक न्यूज़ और गलत जानकारी का प्रसार भी एक बड़ी समस्या बन गई है। कुछ लोग जानबूझकर भ्रामक सूचनाएँ फैलाते हैं, जो समाज में भ्रम और अशांति पैदा कर सकती हैं। इस चुनौती का सामना करने के लिए मीडिया संगठनों को सत्यापन और तथ्य-जांच के तरीकों में सुधार करना होगा।

राजनीतिक और विचारधारात्मक ध्रुवीकरण: मीडिया का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक और विचारधारात्मक ध्रुवीकरण में फंसता जा रहा है। कई मीडिया संस्थान अपनी रिपोर्टिंग में निष्पक्षता और संतुलन को बनाए रखने में असफल हो रहे हैं। इससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है और जनसामान्य के बीच गलतफहमियाँ पैदा हो रही हैं। निष्पक्ष और जिम्मेदार पत्रकारिता की कमी, समाज के स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती है।


आर्थिक दबाव और डिजिटल ट्रांज़िशन: डिजिटल मीडिया की बढ़ती लोकप्रियता ने पारंपरिक मीडिया जैसे प्रिंट और ब्रॉडकास्टिंग के लिए आर्थिक दबाव बढ़ा दिया है। विज्ञापन राजस्व में गिरावट और पाठकों/दर्शकों की संख्या में कमी ने मीडिया संस्थानों को अपने संचालन को पुनर्गठित करने के लिए मजबूर किया है। इस बदलाव ने पत्रकारिता की गुणवत्ता और उसमें निवेश को भी प्रभावित किया है।


प्रेस की स्वतंत्रता और सेंसरशिप: वैसे तो अलग-अलग समय में कई देशों में सरकारें मीडिया पर नियंत्रण और सेंसरशिप थोपने की कोशिश करती हैं। स्वतंत्र पत्रकारिता को दबाने के प्रयास मीडिया की भूमिका और उसकी शक्ति को कमजोर करते हैं। यह एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। इस चुनौती का सामना करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और मीडिया संस्थानों को एकजुट होकर काम करना होगा।

नैतिकता और पारदर्शिता: मीडिया से हमेशा उच्च नैतिक मानकों और पारदर्शिता की अपेक्षा की जाती है। हालांकि, व्यावसायिक दबाव, राजनीतिक प्रभाव, और तेजी से बदलते मीडिया परिदृश्य के कारण कई बार इन सिद्धांतों का पालन मुश्किल हो जाता है। इस चुनौती का सामना करने के लिए मीडिया संस्थानों को अपने नैतिक दिशानिर्देशों और सिद्धांतों को और सुदृढ़ करना होगा।

तकनीकी बदलाव और पत्रकारिता का भविष्य: तकनीकी प्रगति ने मीडिया उद्योग में बड़े बदलाव किए हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डेटा एनालिटिक्स, और ऑटोमेशन ने समाचार निर्माण और वितरण की प्रक्रियाओं को बदल दिया है। हालांकि, इस तकनीकी प्रगति के साथ यह चिंता भी जुड़ी है कि क्या ये बदलाव पत्रकारिता की गुणवत्ता और विश्वसनीयता को बनाए रख सकते हैं। पत्रकारों और मीडिया संगठनों को इन तकनीकी बदलावों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए अपनी मूलभूत जिम्मेदारियों को बनाए रखना होगा।

अंतत: मेरा मानना है कि मौजूदा समय में मीडिया को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे न केवल इसकी कार्यप्रणाली को प्रभावित कर रही हैं, बल्कि समाज पर भी गहरा असर डाल रही हैं। फेक न्यूज़, ध्रुवीकरण, आर्थिक दबाव, सेंसरशिप, नैतिकता, और तकनीकी बदलाव जैसी चुनौतियाँ मीडिया के लिए एक कठिन परीक्षा साबित हो रही हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए मीडिया को अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए, स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता की परंपरा को बनाए रखना होगा। केवल इसी तरह से मीडिया अपनी भूमिका को सही मायनों में निभा सकेगा और समाज को सही दिशा में मार्गदर्शन कर सकेगा।


मीडिया में दायित्वबोध की कमी...


जनता से रिश्ता के राज. संपादक मो. ज़ाकिर घुरसेना ने कहा कि वर्तमान समय में पत्रकार को कदम कदम पर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। कभी पत्रकारिता को समाज का आईना माना जाता है। लेकिन आज उस आईना को ही तोडऩे में तुले हुए दिख रहे हैं। पत्रकारिता के मूल्यों में लगातार गिरावट देखी जा रही है। आज सच को हर जगह दबाया जा रहा है। यही वजह है कि वैश्विक मीडिया निगरानी संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ (आर.एस.एफ.) की वार्षिक रिपोर्ट वर्ष 2023 के मुताबिक़ विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 11स्थान गिरकर 161वें स्थान पर पहुंच गया है। कुल 180 देशों में 161 वां स्थान प्राप्त करना बहुत ही सोचनीय और चिंता की बात है। जबकि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। ऐसे में लोकतंत्र की एक स्तंभ टूट रही है कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। यदि प्रेस के अस्तित्व को खतरा हुआ तो निश्चित ही इसके परिणाम भी गंभीर ही होंगे। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के टूटने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों प्रदेश के कोंटा थाने के थानेदार द्वारा खनन और रेत माफियाओ को फायदा पहुंचाने की गरज से रिपोर्टिंग करने गए चार पत्रकारों के वाहन में गांजा रखवाकर जेल भेज दिया गया। हालांकि बाद में पुलिस अधीक्षक ने उक्त थानेदार को सस्पेंड कर दिया। बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। ऐसे अधिकारी कर्मचारी बर्खास्त किए जाएं। ऐसा हिमाकत करने की हिम्मत कहाँ से आई थानेदार में, किसके इशारे पर ऐसा किया। ये हाल की घटना है और पहली घटना नही है।पिछली सरकारों में भी कई पत्रकार जेल में ठूंस दिए गए थे।भविष्य में इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे, सामाजिक व्यवस्था पर इसका प्रभाव पड़ेगा, लोकतंत्र पर भी इसका प्रभाव कहीं न कहीं नजर आएगा ही। कहां है पत्रकार सुरक्षा कानून।आज डिजीटल युग है, जिसमे एआई महत्वपूर्ण किरदार में नजऱ आ रहा है। प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में डिजीटल युग के आने से काफी परिवर्तन दिख रहा है। कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद होने के कगार पर है। आज अखबारों की कीमत बहुत कम रह गई है, वे अपने अस्तित्व के लिए जूझते नजऱ आ रहे हैं। मीडिया में नेताओ और प्रशासनिक दबाव खुले आम दिखने लगा है। सत्ताधारी दल के नेतागण पत्रकारों से बदसलूकी करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। जिसके वजह से पत्रकारों का भी झुकाव सत्ताधारी दल की ओर दिखने लगा है जो टीवी डिबेट की भाषा और समाचार पत्र में खबरों की भाषा से समझा जा सकता है। पत्रकार दबाव में नजऱ आ रहा है। देखा जाय तो आज के परिदृश्य में प्रेस डबल नाव की सवारी करता नजऱ आ रहा है, जहाँ चुनौतियों की संख्या दिन ब दिन बढ़ते ही जा रही है। इन चुनौतियों से जूझना एक पत्रकार के लिए नामुमकिन भी है क्योकि अंत में प्रेस मालिक भी सरकार के आगे नतमस्क मुद्रा में नजऱ आते हैं। पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए ये फैक्टर ही सर्वाधिक जिम्मेदार है। जो पत्रकारिता के प्रभावशाली भूमिका को भोथरा करते हैं। यही वजह है की सरकार के खिलाफ कोई लिख और बोल नहीं पा रहा है या कहने,बोलने और लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। लोकतंत्र के तीनों स्तंभ की ओर से अपेक्षित सहयोग की कमी भी इनको ऐसा करने पर मजबूर कर रही है। हमें यह बात हमेशा जेहन में रखनी चाहिए कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने में, मानवाधिकारों की सुरक्षा करने में तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचारों को उजागर करने में प्रेस की प्रभावशाली भूमिका होती है और यदि प्रेस की भूमिका पर ही कुठाराघात हो तो अंजाम क्या होगा? आरएसएफ के रिपोर्ट को गौर करें तो भारत में पत्रकारिता के गिरते स्तर का कारण भी स्पष्ट तौर यही दिखता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये भी है कि आज पत्रकारिता का उद्देश्य देश व समाज सेवा न होकर सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना हो गया है। क्योकि अधिकतर मिडिया समूहों के पास मीडिया के आलावा अन्य व्यापार भी है जिसके कारण वे सरकार के दबाव में रहते हैं या सरकार से उपकृत रहने के कारण लिखने में कोताही बरतते हैं। आज संपादक सम्पादकीय लेखन छोडक़र लाइजनिंग अधिकारी की भूमिका निभा रहा है। जो आदर्श पत्रकारिता के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता है। हालांकि हर मीडिया घराने के बारे में ऐसा कहना नाइंसाफी होगी। कुछ मिडिया घराना अभी भी हैं जो सरकार को समय समय पर आईना दिखाते रहते हैं और अपने आदर्श मूल्यों पर कायम रहते हैं। आज की पत्रकारिता में स्वार्थ अधिक नजऱ आ रहा है जिसके वजह से निष्पक्षता व निडरता की कमी दिखती है। दूसरी बात एक पत्रकार अपनी लाइन को छोड़ता नहीं खबर वह निडरता से ही लिखता है। लेकिन प्रेस मालिक के दबाव में उसे हथियार डालना पड़ता है और उसके कहे अनुसार ही खबर लिखना पड़ता है।

गौर करने वाली बात तो ये है कि आरएसएफ ने पिछले साल अपने सर्वेक्षण में भारत को 150वां स्थान दिया था और वर्तमान में नीचे आकर 161 वें स्थान पर पहुंच गया है। जिस प्रकार की स्थिति बन और दिख रही है कहीं यह अंतिम पायदान पर आ जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। हम दुनिया का सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश होने का दम्भ भरते हैं और उस जगह मीडिया की ऐसी स्थिति काफी चिंताजनक है। पहले मीडिया संस्थान पत्रकारिता को जूनून समझने वालों के हाथ में माना जाता था लेकिन वर्तमान परिदृश्य में यह उद्योगपति घरानो के पास है। जो अपने उद्योग धंधों की बेहतरी के लिए कुछ भी करने तैयार खड़े हैं। ऐसे में निर्भीक, निडर और सच्ची पत्रकारिता की उम्मीद करना बेमानी होगी। स्वाभाविक है कि पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों में गिरावट तो आएगी ही। मीडिया घराने को स्वतंत्र व निष्पक्ष होकर काम करना होगा टीवी डिबेट में देखने को मिल ही जाता है कि एंकर खुद राजनीतिक दल के प्रवक्ता की भूमिका में नजऱ आने लगते हैं। देखने में आ रहा है कि मीडिया में दायित्यबोध की कमी हो रही है। प्रेस चलाने के पीछे अपने उद्योग धंधों की प्रगति के लिए मीडिया घराना सच और झूठ,नैतिक और अनैतिक यह भूल जाता है जबकि मीडिया को समाज के प्रहरी के रूप में कार्य करना चाहिए।

प्रिंट मीडिया की अपनी लोकप्रियता...


जनता के रिश्ता के सीटी चीफ अतुल्य चौबे ने कहा कि आजादी की लड़ाई तथा आधुनिक भारत के निर्माण में प्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बेशक सोशल मीडिया आज मीडिया के नए चेहरे के रूप में उभर कर सामने आया है, लेकिन प्रिंट मीडिया की आज भी उतनी ही लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता है। हमारे देश में प्रिंट मीडिया आठ प्रतिशत की दर से विकसित हो रहा है, जबकि विदेशों में स्थिति विपरीत है। उन्होंने कहा कि सभी क्षेत्रों में चुनौतियां पीढ़ी दर पीढ़ी रही हैं, लेकिन सामथ्र्य और इच्छाशक्ति से इनका समाधान कोई अपवाद नहीं है। सोशल साइट्स मीडिया व समाज दोनों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। वर्तमान में सोशल मीडिया के कारण मीडिया के क्षेत्र में बृहद बदलाव आया है, लेकिन इसके बावजूद पत्र-पत्रिकाओं का आज भी विशेष महत्व है। पुराने समय में पत्रकारिता एक मिशन थी, लेकिन अब इसके स्वरूप में बदलाव आया है। वर्तमान में सोशल मीडिया की प्रतिस्पर्धा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ है, लेकिन आग चलकर यह प्रतिस्पर्धा प्रिंट मीडिया के साथ भी हो जाएगी। सोशल मीडिया में जानकारी को तोड़-मरोड़ कर अपनी सुविधा के अनुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर परोसी जा रही जानकारी कितनी सही है, इस बात की पुष्टि करना मुश्किल है जो इसे संशय के घेरे में खड़ा करती है।

सोशल मीडिया की अपनी कोई विश्वसनीयता नहीं: सोशल मीडिया का तेजी से प्रसार हो रहा है और आज यह मीडिया प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। हालाकि सोशल मीडिया की अपनी कोई विश्वसनीयता नहीं है और न ही इस पर किसी प्रकार का नियंत्रण है, लेकिन इसकी बढ़ती लोकप्रियता के कारण इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बेशक हमारे देश में समाचार पत्रों की वृद्धि दर में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाए जाने वाले प्रेस को अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए संघर्षशील रहना होगा। विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया के जरिये झूठी सूचना का प्रसार उभरते जोखिमों में से एक है। यकीनन यह देश की प्रगति की राह में रुकावट है और ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हमारी सरकार इसमें दखल कर इस पर लगाम लगाने का प्रयास करे। केंद्र सरकार ने सूचना तकनीक कानून की धारा 79 में संशोधन के मसौदे द्वारा फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों की जवाबदेहिता तय करने का प्रयास किया था। इसके तहत आईटी कपंनियाँ फेक न्यूज की शिकायतों पर न केवल अदालत और सरकारी संस्थाओं बल्कि आम जनता के प्रति भी जवाबदेह होंगी। देश जैसे-जैसे आधुनिकीकरण के रास्ते पर बढ़ रहा है चुनौतियाँ भी बढ़ती जा रही है। ऐसे में भारत को जर्मनी जैसे उस कठोर कानून की जरूरत है जो सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री का इस्तेमाल करने वालों पर शिंकजा कसने के लिये बनाया गया था। इसके अलावा ‘सोशल मीडिया इंटेलीजेंस’ के जरिये सोशल मीडिया गतिविधियों का विश्लेषण करते रहना भी आवश्यक है। इससे आपत्तिजनक सामग्रियों को बिना देर किये हटाया जा सकेगा। सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नया आयाम दिया है। सोशल मीडिया का दुरुपयोग कई रूपों में किया जा रहा है। इसके जरिये न केवल सामाजिक और धार्मिक उन्माद फैलाया जा रहा है बल्कि राजनीतिक स्वार्थ के लिये भी गलत जानकारियाँ पहुँचाई जा रही है। इससे समाज में हिंसा को तो बढ़ावा मिलता ही है, साथ ही यह हमारी सोच को भी नियंत्रित करता है।

आज प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी डर के सोशल मीडिया के माध्यम से अपने विचार रख सकता है और उसे हजारों लोगों तक पहुँचा सकता है, परंतु सोशल मीडिया के दुरुपयोग ने इसे एक खतरनाक उपकरण के रूप में भी स्थापित कर दिया है जिसके कारण इसके विनियमन की आवश्यकता लगातार महसूस की जा रही है। अत: आवश्यक है कि निजता के अधिकार का उल्लंघन किये बिना सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये सभी पक्षों के साथ विचार-विमर्श कर नए विकल्पों की खोज की जाए, ताकि भविष्य में इसके संभावित दुष्प्रभावों से बचा जा सके।

फोर्थ पिलर ऑफ डेमोक्रेसी: भारत में पत्रकारिता के विकास की कहानी बेहद दिलचस्प रही


जनता से रिश्ता के समाचार संपादक कैलाश यादव ने कहा कि हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस यानी वल्र्ड प्रेस फ्रीडम डे मनाया जाता है। यह दिन लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया को समर्पित है, जिसे अंग्रेजी में फोर्थ पिलर ऑफ डेमोक्रेसी भी कहते हैं। यह दिन उन पत्रकारों और समाचार संस्थानों को समर्पित है, जो कई खतरों का सामना करते हुए भी सच के लिए लड़ रहे हैं। 3 मई को हर साल विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। यह दिन लोगों को मीडिया के महत्व से रूबरू करवाने और सच सामने लाने के लिए कई चुनौतियों का सामना कर रहे पत्रकारों को सम्मानित करने के मकसद से यह दिन मनाया जाता है। आइए इस मौके पर आपको बताते हैं यह भारत की आजादी की आवाज उठाने वाला अखबार ही था। जिसके माध्यम से देश वासियों के मन में देश प्रेम कि अलख जगाई गई थी। जहां तक दुनिया के पहले अखबार का प्रश्न है तो उसकी शुरुआत यूरोप से ही हुई. हालांकि दुनिया में पत्रकारिता का इतिहास कई स्तररों पर विभाजित है. कोई इसे रोम से मानता है, तो वहीं कोई इसे 15वीं शताब्दीक में जर्मनी के गुटनबर्ग की प्रिंटिंग मशीन की शुरुआत से मानता है. दरअसल, 16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, व्या पारी योहन कारोलूस ने रईस ग्राहकों को सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था. बाद में उसने छापे की मशीन खरीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापा. उस समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन. यही विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है. जहां तक भारत में पत्रकारिता का सवाल है तो भारत में पत्रकारिता की शुरुआत एक ब्रिटिश व्य ििक्त ने की थी. दरअसल भारत में 29 जनवरी, 1780 को भारत के पहले अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ था. इस अखबार की नींव रखने वाला आयरिशमैन जेम्स अगस्ट्न हिक्की था. देश के इस पहले अखबार को हिक्की ने कोलकाता से निकाला, इसका नाम रखा ‘बंगाल गजट’.अंग्रेजी में निकाले गए इस अखबार को ‘द कलकत्ता जनरल ऐडवरटाइजर’ और ‘हिक्कीज गजट’ के नाम से भी जाना जाता है. हिंदी के प्रथम समाचार पत्र का प्रकाशन 30 मई, सन् 1826 में कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था. इस अखबार के संपादक जुगलकिशोर शुक्?ल या कुछ अभिलेखों में इनका नाम युगल किसोर शुक्ल भी मिलता है, थे. उन्हों2ने ही सन् 1826 ई. में कलकता के कोलू टोला मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से उदंतमार्तंड निकाला. हिंदी के लिए यह बड़ी ही गौरव की बात थी कि उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकल रहे थे, लेकिन हिंदी में एक भी पत्र नहीं था. ऐसे में उदंत मार्तड के प्रकाशन ने पूरे देश को भाषा के एक नए सूत्र में पिरोने की नींव डाली।

कुल 79 अंक हुए प्रकाशित

यह पत्र हर मंगलवार पुस्तक के आकार में छपता था. इसके कुल 79 अंक ही प्रकाशित हुए. 30 मई 1826 को शुरू हुआ यह अखबार 4 दिसंबर 1827 को यह अखबार बंद हो गया. इस अखबार की असयम मौत का कारण आर्थिकी था. इतिहासकारों के मुताबिक कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को तो डाक आदि की सुविधा दी थी, लेकिन उदंत मार्तंड को यह सुविधा नहीं मिली. इसका कारण इस अखबार का बेबाक रवैया था. वह सरकार का माउथपीस बनकर काम नहीं करता था.

खफा थी ब्रिटिश सरकार

ब्रिटिश सरकार इस अखबार के रवैए से बेहद खफा थी. लिहाजा इसे कोई भी सरकारी मदद नहीं मिलती थी, जबकि मिशनरी अखबारों पर सरकार का हाथ था. हिंदुस्तानियों के भविष्य की चिंता करने वाले इस अखबार के साथ दूसरी बड़ी दिक्कत अपने ही लोगों द्वारा मदद का भी न मिलना था या कहें तब देशवासियों में इतनी जागरूकता नहीं थी कि वह अखबार की ताकत को समझकर खुद फंड करें. उस समय भी देश में ऐसे धन्नासेठ थे जो इसे आर्थिक मदद कर बचना सकते थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसके बावजूद उद्दंत मार्तंड के संपादक यानी जुगुल किशोर को अपने पत्रकारीय सिद्धांतों व सरोकारों से समझौता कुबूल नहीं था. उन्हें इसका बंद हो जाना कुबूल था, लेकिन हिदुस्तान की दुश्मन सरकार का का पि_ू बनकर उसकी दी रियायतों के दम पर लंबी उम्र पाना गवारा नहीं था।

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