बिहार

लोक आस्था का महापर्व पर बांस के बने सूप डाला का है पौराणिक महत्व

Shantanu Roy
28 Oct 2022 6:06 PM GMT
लोक आस्था का महापर्व पर बांस के बने सूप डाला का है पौराणिक महत्व
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अररिया। प्रकृति को पूरी तरह समर्पित लोक आस्था का महापर्व छठ पर भी आधुनिकता हावी होने लगी है। बांस की बनी वस्तुओं का अपना अलग ही महत्व है छठ पर्व में। धर्म और शास्त्र के अनुसार समाज के निचले तबके के लोगों के द्वारा निर्मित नए कच्चे बांस से बने सूपों एवं डाला के इस्तेमाल की बात छठ पर्व के लिए कही गई है।किंतु समय परिवर्तन के साथ ही लोग अब इस पर्व पर आधुनिकता का चादर उड़ते हुए धातु से बने सूपों एवं डाला के इस्तेमाल को प्राथमिकता देने लगे हैं। बाजार भी अब पीतल से बने सूपों से सजने लगी है।
बाजारों में दर्जनों में पीतल के बर्तनों की दुकान सजी हैं। सूपों एवं डाला का निर्माण कर रहें राजेश, राजू , महेंद्र,जीतू, सुरेश, दिलिप आदि का कहना है एक दिन में बड़े मेहनत के बाद दो से तीन डाला का निर्माण होता है। पूरा परिवार इस कार्य में लगे रहते हैं। बांस के पतले पतले कमाचीयों को निकाल कर धूप में सुखाना पड़ता है एक बांस में दो डाला का निर्माण होता है। मंहगाई के कारण सुप और डाला की मांग बहुत कम है। सरकारी सुविधाएं नहीं मिलने के कारण इस पेशे से अब लोग विमुख होने लगें हैं। छठ पर्व में परंपरा और पवित्रता का काफी ख्याल रखा जाता है।
नहाने खाई के साथ शुरू होने वाले छठ पर में अस्ताचलगामी सूर्य एवं उदीयमान सूर्य को व्रती पानी में खड़ा हो कर हाथ में फलों,पकवान आदि से सजे सूपों के साथ खड़े हो कर भगवान भास्कर को अर्घ्य देते हैं।सूर्य देव को सूपों के साथ अर्घ्य देने की परंपरा काफी पौराणिक है।अनुसूचित जाति जनजाति द्वारा निर्मित सूप के इस्तेमाल के पीछे हमारी सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।सनातन धर्म और सामाजिक मान्यता के अनुसार बांस के बने सामानों के इस्तेमाल से समाज के अति पिछड़े वर्गों को आगे लाने के साथ साथ आर्थिक सबलता प्रदान करना है।वहीं बांस की बनी सूपों व डाला को शुद्ध मान जाता है। किन्तु वर्तमान समय मेंं पवित्रता के साथ सूप निर्माण करने वाले इस जाति की स्थिति केंद्र व राज्य सरकार की उपेक्षा से बद से बद्तर है।
केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाए जाने वाले लाभकारी योजनाओं के बावजूद इन लोगो को कोई सरकारी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है।दिन रात मेहनत कर बनाई गई सूपों की कीमत बाजार में नहीं मिलने से यह समाज काफी उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।अररिया जिला भंगी संर्धष समिति के संयोजक सुरज कुमार सोनू ने कहा आज बांस की कीमत 150 से 200 है दिन भर मेहनत के बाद पांच से सात सूपों का निर्माण हो पाता है,सरकार को इस कला को लघु उद्योग का दर्जा देना चाहिए।ताकि इस काम के लिए लोगों को आर्थिक सहायता मिल सकें।
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