बिहार
संथारा से मोक्ष प्राप्त सूरज देवी को बैकुंठी पर बिठाकर निकाली गयी शोभायात्रा
Shantanu Roy
29 Aug 2022 5:47 PM GMT

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बड़ी खबर
अररिया। संथारा पर बैठी फारबिसगंज वार्ड संख्या 17 निवासी साधु मार्गी जैन समाज के प्रदीप कुमार बोथरा की धर्म पत्नी 52 वर्षीय सुरज देवी बोथरा उर्फ इचरज देवी ने रविवार कोइच्छा मृत्य के साथ अंतिम सांस ली। रविवार की संध्या 12 वें दिन उनका देहावसान हो गया।सोमवार को जैन धर्म के रिवाज के मुताबिक बैकुंठी पर बैठाकर शोभायात्रा निकाला गया। शहर भ्रमण करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्थानीय मुक्ति धाम में किया गया।इस दौरान जगह जगह श्रद्धालुओं ने दर्शन कर पुष्प वर्षा करते हुए नमन किया।बैकुंठी यात्रा के दौरान समता भवन एवं तेरापंथ भवन में उपासक विमल गुमेचा एवं उपासक राजेन्द्र लुनिया ने मंगल पाठ सुनाया ।वही पुत्र राहुल बोथरा अग्नि संस्कार किया।बैकुंठ यात्रा के दौरान जैन धर्म के महिला पुरुषों की सैकड़ों भीड़ ने धर्म से जुड़े नारे लगाए।
गौरतलब है की असाध्य रोग से ग्रसित होने के कारण ईलाज को ले डॉक्टर के जवाब देने के बाद वार्ड संख्या 17 निवासी सुरज देवी बोथरा उर्फ इचरज देवी ने खाना-पीना त्याग व देह त्याग करते संथारा ग्रहण किया था।वही श्रावक श्राविकाओं ने बताया की जैन समाज में अपने अन्तिम समय में हर श्रावक श्राविका कि ये मनोकामना होती है उनकी मृत्यु संलेखना संथारा के साथ हो। सुरज देवी ने अपनी सहमति पूरे परिवार और जैन समाज की सहमति के बाद त्रिविहार संथारा कर धर्म पाथेय पर आज 11 दिन अग्रसर थी लेकिन बारवे दिन प्राण त्याग दिए। उनके बैकुंठ की तैयारी में समाज के तमाम बुजुर्ग, युवा और महिलाएं जुटीं थी। उनके दर्शन को लोगों की भीड़ जुटी थी। पूछने पर श्रद्धालुओं ने बताया कि सूरज देवी बेहद सहनशील और शांत स्वभाव की महिला थीं। सूरज देवी साधु मार्गी समाज के आचार्य 1008 श्री रामेश आचार्य की अनन्य श्राविका है।
जैन समाज श्रावक श्राविकाओं ने बताया की जैन धर्म में सबसे पुरानी प्रथा मानी जाती है संथारा प्रथा (संलेखना)। जैन समाज में इस तरह से देह त्यागने को बहुत पवित्र कार्य माना जाता है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा भी कहा जाता है। इसका अर्थ है- जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है जिसके आधार पर साधक मृत्यु को पास देख सबकुछ त्यागकर मृत्यु का वरण करता है। जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है।
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