मुख्यमंत्री हिमंता ने असमिया साहित्यकार अतुलानंद गोस्वामी के निधन पर किया शोक व्यक्त
असम न्यूज़: 'नामघरिया' और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता पुस्तक 'सेने जरी गठी' सहित असमिया साहित्य को समृद्ध करने वाली अनेक पुस्तकों के रचयिता अतुलानंद गोस्वामी के निधन की खबर से गहरा सदमा पहुंचा है। बता दें कि असमिया साहित्य और सामाजिक जीवन के क्षेत्र में उनका बहुत योगदान रहा है। हिमंता ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि यह मुझे हमेशा याद रहेगा। ईश्वर से महान लेखक की दिवंगत आत्मा की शांति और इस दु:ख की कामना करते हुए परिवार को समय पर गहरी संवेदनाएं प्रेषित कर रहा हूं। ओम शांति
अतुलानंद गोस्वामी असमिया भाषा के विख्यात साहित्यकार: जानकारी के लिए बता दें कि अतुलानंद गोस्वामी असमिया भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कहानी–संग्रह चिनेह जोरिर गांथी के लिये उन्हें सन् 2006 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की शृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को असमी, असमिया अथवा आसामी कहा जाता है। असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है। भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है और बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है।
गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है, पर सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से भी हुई है। यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया। शंकर देव (1449-1568) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा। सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं।
इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है। अपने प्रदेश में भी असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है।