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अरुणाचल प्रदेश : अरुणाचल और झारखंड के कवियों ने कविताओं से उकेरा दर्द
पूर्वोत्तर के युवा कवि तारो सिंदिक ने 'जुलूस का हिस्सा बनूं कि खड़ा रहूं हाशिये पर' और झारखंड के अनुज लुगुन की 'हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं' कविताओं पर गेयटी थियेटर का टैवर्न हॉल तालियों से गूंज उठा। मौका था अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव उन्मेष का। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त युवा कवियों ने आदिवासी जीवन की पीड़ा के सजीव चित्रण किया। पूर्वोत्तर में हिंदी साहित्य की अलख जगा रहे तारो सिंदिक ने 'हां मुझे हिंदी से प्रेम है, इसका मतलब ये नहीं कि मैं अपने पुरखों की भाषा पीछे छोड़ आया हूं' और 'उदासी में डूबा शाम का शहर' कविताएं प्रस्तुत कीं। अनुज लुगुन ने ..हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं, बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं, अभ्रक और कोयला तो थोक और खुदरा दोनों भावों से मंडियों में रोज सजाए जाते हैं' 'यहां खुले स्कूल, बारहखड़ी की जगह, बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं'
आदिवासी बगावत नहीं करते, हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है, न ही वे पत्थर फेंकने का मुहावरा जानते हैं, वे तो सिर्फ पत्थर गाड़ना जानते हैं, फिर भी वे पत्थर फेंकने के दोषी माने जाते हैं' कविता के जरिये अत्याचारों का उल्लेख किया। जानी मानी कवयित्री अनामिका ने 'नमक दुख है धरती का और उसका स्वाद भी, पृथ्वी का तीन भाग नमकीन पानी है, और आदमी का दिल नमक का पहाड़' कविता सुनाई। '..वो जो खड़े हैं न, सरकारी दफ्तर, शाही नमकदान हैं, पर सभागार तालियों से गूंज उठा। पंजाबी कवयित्री वनीता की पहाड़ी सड़क पर एकांत खड़ी हूं, पटियाला के दीपक धारीवाल ने मेरी आवाज दा टुकड़ा और गगनदीप शर्मा की कविताओं ने भी जमकर तालियां बटोरी।
उगते सूरज की भूमि से : पूर्वोत्तर का साहित्य विषय पर परिचर्चा का संचालन एन किरण कुमार ने किया। अंजली बसुमतारी, अरविंदो उजिर, एसडी ढकाल और उद्दीपना गोस्वामी ने इसमें भाग लिया। मातृ भाषा का महत्व परिचर्चा की अध्यक्षता कपिल कपूर ने की। अशोक कुमार झा, भूषण भावे, जी. उमामहेश्वरराव सहित अन्य लेखकों ने इसमें भाग लिया।
चीनी घुसपैठ का डटकर जवाब देते हैं पूर्वोत्तर के लोग
अरुणाचल के तारो सिंदिक ने अमर उजाला से बातचीत में कहा कि अरुणाचल की सीमाएं चीन से लगती हैं, अगर हमारी शक्ल दूसरे देश के लोगों से मिलती है तो हम विदेशी नहीं हो जाते। विविधता में एकता भारत की पहचान है। अरुणाचल पर सवाल उठाए जाते हैं, लेकिन चीनी घुसपैठ होने पर पूर्वोत्तर के लोग सेना की मदद को सबसे आगे होते हैं। साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार प्राप्त कर चुके तारो इटानगर महाविद्यालय में प्राध्यापक पद पर कार्यरत हैं। कार्यक्रम में वह अपनी परंपरागत पोशाक गालुक पहन कर पहुंचे।