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ब्रिटेन में इन दिनों नए प्रधानमंत्री का हो रहा चुनाव, कभी राजा-रानी के इशारे पर होता था फैसला

Neha Dani
25 July 2022 4:13 AM GMT
ब्रिटेन में इन दिनों नए प्रधानमंत्री का हो रहा चुनाव, कभी राजा-रानी के इशारे पर होता था फैसला
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सिस्टम 'परफेक्ट' नहीं होता क्योंकि लोकतंत्र में परफेक्शन की खोज जनता पर 'अत्याचार' को बढ़ावा देता है।

लंदन : ब्रिटेन में नए प्रधानमंत्री (Britain PM Election) की रेस ऋषि सुनक (Rishi Sunak) और लिज ट्रस के बीच है। शुरुआत में बढ़त हासिल करने वाले सुनक अब पिछड़ते नजर आ रहे हैं। लेकिन आखिर में टोरी सदस्य क्या फैसला करते हैं ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन एक समय था जब ब्रिटेन में प्रधानमंत्री का चुनाव इतना लंबा नहीं होता था। सत्ता के शीर्ष पर वही बैठता था जिसे राजा या रानी चाहते थे। ब्रिटेन में नए प्रधानमंत्री को चुनने की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर रही है। ऐसे में यह देखना भी अहम है कि कैसे पिछले सौ वर्षों में इस प्रकिया में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है।


20वीं शताब्दी की शुरुआत में यह निर्णय देश के राजा अथवा रानी को लेना होता था। इस वजह से 1923 में लॉर्ड कर्जन, जिन्हें तत्कालीन सरकार का सबसे योग्य सदस्य माना जाता था- प्रधानमंत्री बनने की रेस से बाहर हो गए थे। किंग जॉर्ज V ने स्टेनली बाल्डविन, जिन्हें उनके विरोध 'सबसे तुच्छ व्यक्ति' कहकर पुकारते थे, को बकिंघम पैलेस आने का न्यौता दिया था। 1963 में क्वीन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री हेरोल्ड मैकमिलन की सलाह को स्वीकार करते हुए आर ए बटलर को मिल रहे व्यापक समर्थन को नजरअंदाज कर दिया और सर एलेक डगलस-होम को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया।


रेस में पिछड़ रहे हैं ऋषि सुनक
आगे चलकर हाउस ऑफ कॉमन्स में सांसदों की पसंद को स्वीकार करने के लिए रानी के विशेषाधिकार को संशोधित किया गया। हालांकि नेता के चुनाव में पार्टी के आम सदस्यों की मांगों ने सांसदों की भूमिका को बाद में कम कर दिया। कंजर्वेटिव पार्टी के आम सदस्य अब अंतिम निर्णय लेते हैं- एक प्रक्रिया जिसने यह सुनिश्चित कर दिया है कि कंजर्वेटिव पार्टी के ज्यादातर सांसदों का समर्थन मिलने के बावजूद ऋषि सुनक प्रधानमंत्री बनने की रेस में पिछड़ते नजर आ रहे हैं।

100 साल में हुआ लोकतंत्र का प्रसार
दूसरे शब्दों में कहें तो नए नेता के चुनाव में पार्टी के आम सदस्यों की भूमिका लोकतंत्र के प्रसार को दिखाती है। जाहिर है कि यह प्रक्रिया पुराने सिस्टम से बेहतर है। व्यावहारिक रूप से देखें तो इसमें कई जटिलताएं भी हैं, खासकर अगर नया लीडर मध्यावधि प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने जा रहा हो। चाहें पश्चिम का प्रधानमंत्री हो या नई दिल्ली का, पार्टी का आम सदस्य और एक सांसद अलग-अलग तरीके से नेतृत्व की क्षमताओं का आकलन करता है।


पार्टी का वफादार नहीं भूलता गलतियां
पार्टी के वफादार के लिए, जो चुनाव के समय खुद पार्टी से जुड़ता है, नेता का सबसे बड़ा गुण राजनीतिक सूझबूझ और संवाद होता है। वैचारिक नींव पर बनी पार्टियों में आदर्शों को बनाए रखने की प्रवृत्ति होती है। उदाहरण के लिए ऋषि सुनक की कम टैक्स के सिद्धांतों के खिलाफ जाने के लिए आलोचना हो रही है। पार्टी का आम कार्यकर्ता इस तरह की चीजों को कभी नहीं भूलता क्योंकि वह चमक-धमक के लालच में पार्टी में शामिल नहीं होता बल्कि पार्टी के सिद्धांत उसे लुभाते हैं।

लोकतंत्र में कुछ 'परफेक्ट' नहीं होता
वहीं संसदीय लोकतंत्र में एक औसत सांसद के लिए एक सफल नेता वही है जो बिना देरी किए फाइलों को घुमा सके। आसान शब्दों में कहें तो नेता का आंकलन करने वाले लोगों में कई महत्वपूर्ण अंतर होते हैं। ऐसे में हो सकता है कि ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी के कार्यकर्ताओं का फैसला आने वाले समय में गलत साबित हो लेकिन कोई भी सिस्टम 'परफेक्ट' नहीं होता क्योंकि लोकतंत्र में परफेक्शन की खोज जनता पर 'अत्याचार' को बढ़ावा देता है।

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