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हम बचपन में सुनते थे,‘खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे ख़राब, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब.’ नवाब बनने के चक्कर में बच्चों को खेल-कूद से दूर रखकर भी हमारे पैरेंट्स हमें नाइन टू फ़ाइव की चक्की में पिसनेवाला नौकरीपेशा ही तो बनाया. तो क्यों ने हम अपने बच्चों को खेल-कूद से जोड़कर उनके शारीरिक और मानसिक विकास की सही नींव रखें. ऐसा विज्ञान का कहना है कि खेल-कूद में रुचि रखनेवाले बच्चों का विकास नवाब बनने के इच्छुक बच्चों की तुलना में कहीं ज़्यादा संतुलित तरीक़े से होता है. आइए, बच्चों के विकास में खेलों की भूमिका के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानते हैं. और यह भी पता करते हैं कि किस तरह बच्चों में खेलों के प्रति रुचि पैदा की जा सकती है. आख़िर खेल ही तो हैं जो बच्चों को शारीरिक रूप से मज़बूत बनाते हैं, नए दोस्त बनाने के लिए प्रेरित करते हैं, हंसी-हंसी में अनुशासन, टीम भावना सहित जूझने का जज़्बा जो देते हैं. वहीं अगर बच्चे खेलों में सफल हुए तो शोहरत और दौलत भी उनका पीछा करते हुए आपके घर पहुंच जाएगी.
नवाब बनने का नया रास्ता खेल के मैदान से गुज़रता है!
लाइफ़ लेसन्स, जो बच्चे खेल-खेल में सीखते हैं
* खेल देते हैं दोस्ती की तालीम: जो बच्चे नियमित रूप से खेलने जाते हैं वे नए दोस्त बनाना सीखते हैं. ऐसे बच्चे मोहल्ले और स्कूल के दोस्तों के बीच लोकप्रिय होते हैं. ऐसा देखा गया है कि खेलते समय बनने वाले दोस्त ज़िंदगी में लंबे समय तक साथ निभाते हैं. मैदानों पर होनेवाली दोस्ती धर्म, जाति, रूप-रंग से परे होती है. जो कि अपने आप में किसी को बेहतर इंसान बनाने के लिए काफ़ी है.
* होता है टीम भावना का विकास: खेल हमें मिल-जुलकर खेलने, हार-जीत का जश्न साथ मिलकर मनाने की प्रेरणा देते हैं. बच्चों को यह बात बिना किसी लेक्चर के समझ में आ जाती है कि साथ रहकर हम बड़े से बड़ा काम बड़ी आसानी से कर सकते हैं. अपनी ख़ुशी दूसरों से शेयर करना और दूसरों की उपलब्धि पर ख़ुश होना जैसी बेहद ज़रूरी बुनियादी बातें खेल बच्चों को सिखा देते हैं. हार-जीत को शालीनता से स्वीकार करना भी बच्चे खेल के माध्यम से सीखते हैं. सिर्फ़ अपनी टीम के साथियों की ही नहीं, प्रतिद्वंद्वियों की रिस्पेक्ट करना भी खेल ही तो सिखाते हैं.
* अनुशासन की शिक्षा खेलों से मिलती है: किसी न किसी खेल से जुड़े बच्चे दूसरों की तुलना में कहीं अधिक अनुशासित होते हैं. इतना ही नहीं वे नियमों का पालन करने, साथियों की इज़्ज़त करने, छोटों की हौसलाफ़ज़ाई में भी काफ़ी आगे होते हैं. हारने के बाद जीतने के लिए वे और अधिक मेहनत करते हैं. यह बात उन्हें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी काम आती है. वे सेल्फ़ मोटिवेटेड होते हैं.
* पढ़ाई में भी मिलती है मदद: चूंकि खेलों में भाग लेनेवाले बच्चे अनुशासित होते हैं और उनकी एकाग्रता भी औरों से बेहतर होती है, अक्सर ऐसे बच्चे पढ़ाई में भी अच्छे होते हैं. वे कॉन्सेप्ट्स को जल्दी समझते हैं. उनका दिमाग़ प्रॉब्लम सॉल्व करने का आदी हो जाता है इसलिए वे गणित जैसे विषयों में अच्छा प्रदर्शन करते हैं.
* स्ट्रेस से निपटना सीख जाते हैं बच्चे: खेलों के चलते बच्चे शारीरिक रूप से तगड़े होते हैं. पढ़ाई के अलावा दूसरी गतिविधि में अच्छा करने के कारण वे स्वाभिमानी होते हैं. शारीरिक और मानसिक रूप तंदुरुस्ती उन्हें ख़ुशमिज़ाज बना देती है. चूंकि वे मैदान पर तनाव से दो-चार होते हैं, वे स्ट्रेस से निपटना सीख जाते हैं.
* खेल सिखाते हैं ईमानदारी: जब हम खेलते हैं तब खेल भावना के साथ-साथ ईमानदारी की बुनियादी तालीम भी लेते हैं. खेलों से जुड़े बच्चे आगे चलकर अधिक भरोसेमंद और ईमानदार वयस्क बनते हैं.
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...पर खेलों के ये साइड इफ़ेक्ट्स भी हो सकते हैं
अगर आप बच्चे पर किसी खेल को चुनने या ना चुनने का दबाव बनाते हैं तब हो सकता है, उसका प्रदर्शन उस खेल में उतना अच्छा न हो, जितना अपने मन से चुनने पर होता. इतना ही नहीं कई बार पैरेंट्स बच्चों पर जीतने या अच्छा प्रदर्शन करने का अनावश्यक दबाव भी डालते हैं. इससे बच्चे खेल को एन्जॉय करने के बजाय एक अलग ही तरह के प्रेशर में होते हैं. जब आप बच्चे को किसी खेल से जोड़ रहे हैं तो उससे झटपट सफलता की उम्मीद न रखें. वर्ना जिन फ़ायदों के बारे में सोचकर आपने उसे खेल से जोड़ा था, उसका बिल्कुल उल्टा ही होगा. बच्चे को पहले उस खेल को अपनाने दीजिए, उसके बाद टार्गेट सेट कीजिए. जब खेल उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएगा तो वह अपने आप अच्छा करना शुरू कर देगा. रिज़ल्ट, उपलब्धि, मेडल, अवॉर्ड जैसी बातें अपने आप हो जाएंगी. जो खेल से प्यार, अनुशासन, मेहनत और त्याग के ज़रिए आएंगी.
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खेलों की ओर बढ़ रहा है रुझान, पर यह दुविधा है बरक़रार
आप बच्चे को किसी खेल से कैसे जोड़ सकते हैं, इस बारे में हमने मार्क पुलेस, बास्केटबॉल ऑपरेशन्स टीम लीडर, एनबीए अकैडमी इंडिया से बातचीत की. चूंकि वे बास्केटबॉल से जुड़े हुए हैं तो उन्होंने हमें इस खेल के नज़रिए से बाक़ी खेलों के बारे में बताया.
रिलायंस फ़ाउंडेशन के जूनियर एनबीए प्रोग्राम को देख रहे मार्क पुलेस कहते हैं,‘‘खेलों में भाग लेने के कई सारे फ़ायदे हैं. जैसे-वे सामाजिक रूप से अधिक ज़िम्मेदार बनते हैं. टीमवर्क की अहमियत समझते हैं और विविधता में विश्सास करते हैं. स्वास्थ्य और फ़िटनेस के प्रति अधिक जागरूक होते हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि उनके जीवन का कुछ लक्ष्य है, जिसके लिए मेहनत करनी है. दरअस्ल खेल बच्चों को हेल्दी लाइफ़स्टाइल अपनाने में मदद करते हैं. यह देखना सुखद है कि अब भारत में पैरेंट्स, टीचर्स और बच्चों का खेलों के प्रति नज़रिया बदला है.’’
मार्क पुलेस के अनुसार इस बदले हुए हालात में पैरेंट्स और बच्चों के सामने, जो सबसे बड़ी चुनौती आ रही है, वह है यह समझने की दुविधा कि कौन-सा खेल बेहतर रहेगा? टीम स्पोर्ट्स या अकेले खेले जाने वाला खेल? दोनों में क्या सही है, क्या ग़लत है कहा नहीं जा सकता. यह इस बात पर निर्भर करता है कि बच्चा किस तरह के खेल को अधिक एन्जॉय कर रहा है. कुछ बच्चे कई खेलों की बुनियादी बातें कम समय में और अच्छी तरह से सीख जाते हैं. ऐसे में खेल चुनने की दुविधा बढ़ जाती है. ऐसे में उन्हें उस खेल को चुनना चाहिए, जिसे खेलते हुए वे एन्जॉय करते हैं. इससे उस खेल में सफल होने की संभावना बढ़ जाती है.
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सही खेल चुनने के कुछ पैरामीटर्स, जिनसे बन सकती है बात
अलग-अलग खेल की अलग-अलग शारीरिक ज़रूरतें होती हैं. जैसे-कुछ खेलों के लिए अच्छी हाइट चाहिए होती है, कुछ के लिए फ़्लैक्सिबिलिटी, कुछ के लिए शारीरिक ताक़त, तो कुछ के लिए मानसिक मज़बूती की दरकार होती है. इसलिए खेल चुनने से पहले इन बातों पर भी ग़ौर करना चाहिए. स्कूल के पीटी टीचर की राय ले सकते हैं. वे मैदान पर बच्चों की गतिविधि पर नज़र बनाए रखते हैं. पर सौ बात की एक बात यह है कि बच्चे की रुचि किस खेल में है, उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
बच्चों की ट्रेनिंग जल्द से जल्द शुरू करनी चाहिए. ज़्यादातर खेलों के लिए ट्रेनिंग पांच वर्ष की उम्र से शुरू होती है. छोटी उम्र से बुनियादी ट्रेनिंग लेने से आगे चलकर सफल होने की संभावना बढ़ जाती है, क्योंकि उनके पास सीखने और असफल होने के लिए अधिक समय होता है. उनपर झटपट सफल होने का प्रेशर नहीं होता.
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