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नए शोध का दावा: रात को काम करने वालों में बढ़ जाता है कैंसर का खतरा

Deepa Sahu
10 March 2021 3:27 AM GMT
नए शोध का दावा: रात को काम करने वालों में बढ़ जाता है कैंसर का खतरा
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दुनिया में ऐसी बहुत सी कंपनियां हैं,

जनता से रिश्ता वेबडेस्क: दुनिया में ऐसी बहुत सी कंपनियां हैं, जहां नाइट शिफ्ट यानी रात में भी काम करने का चलन है। ऐसा कहा तो जाता ही है कि नाइट शिफ्ट में काम करना सेहत के लिए नुकसानदेह होता है और इसपर कई शोध भी हो चुके हैं। अब एक नए शोध में यह दावा किया गया है कि नाइट शिफ्ट में काम करने से कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन में इस बात के नए सुराग मिले हैं कि क्यों नाइट शिफ्ट में काम करने वालों को नियमित रूप से दिन में काम करने वालों की तुलना में कुछ प्रकार के कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। निष्कर्ष बताते हैं कि नाइट शिफ्ट कुछ कैंसर से संबंधित जीनों की गतिविधि में प्राकृतिक 24 घंटे की लय को बाधित करती है, जिसकी वजह से रात में काम करने वाले लोग डीएनए की क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। साथ ही इसकी वजह से डीएनए की क्षति के मरम्मत का काम करने वाला तंत्र भी सही तरीके से काम नहीं कर पाता।

इस अध्ययन को जर्नल ऑफ पीनियल रिसर्च में प्रकाशित किया गया है। प्रयोगशाला में हुए इस शोध में स्वस्थ प्रतिभागियों को शामिल किया गया था और उन्हें सिमुलेटेड (नकली यानी दिखावे के तौर पर) नाइट शिफ्ट और डे शिफ्ट शेड्यूल में रखा गया था। हालांकि अभी इसपर और शोध किए जाने की जरूरत है, लेकिन नाइट शिफ्ट में काम करने वाले लोगों में कैंसर को रोकने और उनके इलाज में मदद करने के लिए इस खोज का इस्तेमाल किया जा सकता है।

वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ फार्मेसी एंड फार्मास्युटिकल साइंसेज के एसोसिएट प्रोफेसर और अध्ययन के सह-लेखक शोभन गड्डामीधी कहते हैं, 'इस बात के बहुत प्रमाण हैं कि नाइट शिफ्ट में काम करने वाले कर्मचारियों में कैंसर अधिक देखने को मिलता है और यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की इंटरनेशल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर ने नाइट शिफ्ट में काम करने को संभावित कार्सिनोजेनिक यानी कैंसरजनक के रूप में वर्गीकृत किया है। शोभन गड्डामीधी ने कहा, 'हालांकि, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आखिर नाइट शिफ्ट का काम ही कैंसर के खतरे को क्यों बढ़ाता है।'
शोभन गड्डामीधी और वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के अन्य वैज्ञानिकों ने पैसिफिक नॉर्थवेस्ट नेशनल लेबोरेटरी के विशेषज्ञों के साथ मिलकर यह जानने की कोशिश की कि शरीर की जैविक घड़ी (बायोलॉजिकल क्लॉक) की कैंसर में क्या संभावित भागीदारी हो सकती है। दरअसल, शरीर की जैविक घड़ी ही रात और दिन के 24 घंटे के चक्र को बनाए रखने में मदद करती है। हालांकि मस्तिष्क में एक केंद्रीय जैविक घड़ी होती है, लेकिन शरीर में लगभग हर कोशिका की अपनी अंतर्निहित घड़ी भी होती है। इस कोशिकीय घड़ी में जीन शामिल होते हैं, जिन्हें क्लॉक जीन के रूप में जाना जाता है और दिन या रात के समय के साथ उनकी गतिविधि का स्तर भिन्न होता है। शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि कैंसर से जुड़े जीन की अभिव्यक्ति लयबद्ध भी हो सकती है और नाइट शिफ्ट का काम इन जीनों की लयबद्धता को बाधित भी कर सकता है।
इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने अलग-अलग शिफ्ट में काम करने को लेकर एक प्रयोग किया, जिसमें 14 प्रतिभागियों ने वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी हेल्थ साइंसेज के स्लीप लेबोरेटरी में सात दिन बिताए। इस दौरान आधे लोगों को तीन दिन के लिए नाइट शिफ्ट में रखा गया और बाकी आधे लोगों को तीन दिन के लिए डे शिफ्ट में। जब उनकी शिफ्ट पूरी हो गई तो उनकी जांच की गई। उनके खून के नमूनों से ली गई श्वेत रक्त कोशिकाओं के विश्लेषण से पता चला कि दिन की शिफ्ट की स्थिति की तुलना में रात की शिफ्ट की स्थिति में कैंसर से जुड़े कई जीनों की लय अलग थी। विशेष रूप से, डीएनए की मरम्मत से संबंधित जीन, जो डे शिफ्ट की स्थिति में अलग-अलग लय दिखाते हैं और नाइट शिफ्ट की स्थिति में अपनी लयबद्धता खो देते हैं, यानी नाइट शिफ्ट में काम करने वाले लोगों में डीएनए की क्षति अधिक देखने को मिली। हालांकि यह शोध तो प्रयोगशाला में किया गया था, लेकिन शोधकर्ता अब वास्तविक दुनिया में भी इस प्रयोग को करने पर विचार कर रहे हैं।


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