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दुकानों पर पहुंचकर बच्चे कुछ न कुछ दिलाने की ज़िद करते ही हैं. मेरा बेटा जब ऐसी ज़िद करता था तो अक्सर मेरे पति कह दिया करते थे कि यदि तुमने ज़्यादा ज़िद की तो तुम्हें यहीं छोड़कर मैं घर चला जाऊंगा. तब मेरा बेटा चार वर्ष का था. जूनियर केजी में. उस दिन मेरे पति उसे लेकर घर से सात-आठ मिनट दूर स्थित एक दुकान में कुछ ख़रीदने गए. वो कुछ और दिलाने की ज़िद करने लगा. उन्होंने बेटे को रुकने को कहा और सामान देखने में तल्लीन हो गए. तीन-चार मिनट बाद जब उन्होंने उसकी ओर ध्यान दिया तो पाया वह दुकान में नहीं है. दुकान बड़ी भी नहीं थी. घबराकर, उन्होंने उसे आसपास की दुकानों में ढूंढना शुरू किया. जब वह कहीं नहीं दिखा तो उन्होंने मुझे फ़ोन किया. सारी बात बताई और पूछा क्या बेटा घर आया है? वह घर पर नहीं आया था. मैं भी बहुत घबरा गई.
वो 15-20 मिनट जब तक वह घर नहीं पहुंचा, हम दोनों पति-पत्नी के लिए इतनी पीड़ा से भरे थे कि बयान करना मुश्क़िल है. जब वह आया तो मैंने पूछा कि आप पापा के साथ गए थे तो वहां से कहां चले गए? उसने कहा कि वो ज़िद कर रहा था और पापा अक्सर कहते हैं कि ज़िद करोगे तो मैं छोड़कर घर चला जाऊंगा. मुझे पापा नहीं दिखे तो मुझे लगा कि वो मुझे छोड़कर घर चले गए. इसलिए मैं भी घर आने लगा. पर वॉचमैन भइया ने मुझे रोड अकेले पार करने देने से मना कर दिया और एक अंकल आ रहे थे तो उनसे मुझे रोड पार करवाने को कहा. मैं वहां से घर आ गया.
हमने ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया. हम उस भले व्यक्ति को तो आज तक नहीं जानते, जिसने उसे रोड पार कराई. पर वॉचमैन के पास जाकर हमने तुरंत कृतज्ञता व्यक्त की. हमारे बच्चे की मासूमियत ने मुझे और मेरे पति को इस बात का एहसास करा दिया किया कि हमें बच्चों को इस तरह नहीं डराना चाहिए कि उनके मन में ये बातें बैठ जाएं. हमें यह सीख बहुत कड़वे ढंग से मिली, पर आप मेरे अनुभव से ज़रूर सीख लीजिए.
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