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‘‘मेरी 16 वर्षीया बेटी युतिका को ऑटिज़म है. शुरू में इसका विकास आम बच्चों की तरह हो रहा था इसलिए हमें लगा ही नहीं था कि इसे कोई समस्या होगी. पर लगभग ढाई वर्षों तक इसने बोलना शुरू नहीं किया तो हम इसे बॉम्बे हॉस्पिटल ले गए. वहां कई मेडिकल परीक्षणों के बाद डॉक्टर ने बताया कि इसे ऑटिज़म है. पहले तो हम आश्चर्यचकित रह गए? हमने डॉक्टर से पूछा कि आख़िर यह है क्या? और हमारी बच्ची को ही क्यों हुआ? उन्होंने बताया कि यह एक न्यूरोलॉजिकल डिस्ऑर्डर है. ऐसे बच्चे भाषा ही नहीं समझ पाते, जिसके कारण वे दिए गए निर्देशों का पालन नहीं कर पाते. साथ ही वे किसी से घुल मिल भी नहीं पाते. पर ऐसे मामलों में अच्छी बात यह है कि ठीक तरह से ट्रेनिंग दी जाने पर बच्चे 80% तक सामान्य हो सकते हैं.
स्थिति तब और भी ख़राब हो गई जब युतिका की समस्या के बारे में लगातार सोचने और दुखी रहने के कारण मैं डिप्रेशन का शिकार हो गई. अगले छह महीनों तक मैं ख़ुद ही सामान्य नहीं रह पाई तो उसके लिए क्या करती? मेरे पति मुझे काउंसलिंग के लिए ले गए. काउंसलर ने मुझसे कहा यदि आप ख़ुद ही ठीक नहीं रहेंगी तो बच्ची कैसे सामान्य हो पाएगी? कई सेशन्स के बाद मैं डिप्रेशन से बाहर आ पाई. उसके बाद मैं लग गई उस मिशन में जिसका नतीजा बदली हुई युतिका है. इसे स्पीच थेरैपी की ट्रेनिंग दी जाने लगी. धीरे-धीरे इसने निर्देशों का पालन करना शुरू कर दिया. पहले हमने इसका एडमिशन सामान्य बच्चों के प्ले ग्रुप और स्कूल में करवाया था. शुरुआती दो वर्षों तक तो इसने कुछ भी नहीं सीखा, पर तीसरे वर्ष इसे पेंसिल पकड़ना और ए बी सी... लिखना आ गया. ऐसे बच्चों की सबसे बड़ी समस्या होती है कि वे लंबे समय तक एक जगह पर बैठते ही नहीं. फिर हमने इसका नाम स्पेशल बच्चों के स्कूल में लिखवाया.
इसका ट्रीटमेंट मुंबई के उपनगर विलेपार्ले स्थित समर्पण नामक संस्था में होने लगा. मैं पांच वर्षों तक इसे वहां लेकर जाती थी. वहां दूसरी मांएं भी मिलती थीं, हम सभी मांएं अपने-अपने बच्चों की परेशानियों से दुखी थीं, पर इतने लोगों को अपने साथ संघर्ष करता देख संघर्ष करने की इच्छाशक्ति दिन-ब-दिन बढ़ती गई. आज युतिका लोगों से मिलने-जुलने लगी है. वह पढ़ने में भी बहुत होशियार है. जोड़-घटाना करना सीख गई है. साथ ही वह छोटे-मोटे वाक्य भी लिखने लगी है. हां, यह बहुत अच्छी चित्रकार है. इसकी समस्या को देखते हुए पहले कोई भी ड्रॉइंग टीचर इसे अपनी क्लास में लेने के लिए तैयार नहीं थे. पर ड्रॉइंग में इसकी प्रतिभा को देखकर दक्षा पटेल नामक एक ड्रॉइंग टीचर ने इसे ड्रॉइंग सिखाने के लिए अपनी ओर से पहल की. वे हर शनिवार युतिका को ड्रॉइंग सिखाती, हमारे काफ़ी आग्रह के बावजूद उन्होंने हमसे कभी फ़ीस नहीं ली. इस दौरान मैंने सीखा बहुत कुछ, पाया उससे भी कहीं ज़्यादा और रही बात खोने की तो खोने के लिए मेरे पास था ही क्या? पहले तो युतिका कुछ भी नहीं कर पाती थी, अब दिनचर्या के काम स्वयं कर लेती है. पहले वह किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे पाती थी, अब स्कूल से आने के बाद ख़ुद ही बताती है कि वहां क्या हुआ. सारे रिश्ते पहचानती है. पढ़ाई की बात मैं पहले ही बता चुकी हूं. हां, कभी-कभी लगता है कि मैं अब पहले की तरह अपने रिश्तेदारों और मित्रों के यहां नहीं जा पाती. पर यह कोई मसला नहीं है. ऐसे बच्चों के अभिभावकों को मेरी यही सलाह है कि आमतौर पर अभिभावक अवसादग्रस्त हो जाते हैं, जैसे मैं हुई थी. पर उन्हें यह समझना चाहिए कि टेंशन लेने से कुछ नहीं होता, इससे आपका बच्चा ठीक नहीं हो सकता. आप अपने बच्चे के लिए जितना कर सकते हैं, उतना करें, क्योंकि आपके वश में इतना ही है.’’
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