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दुनिया में ऐसे ख़ुशनसीब लोग बहुत कम हैं, जिनकी ऑफ़िस लाइफ़ टेंशनफ्री हो, ज़्यादातर लोगों के लिए तो ऑफ़िस पागल कर देनेवाली जगह साबित होती है. बजट में कटौती के चलते पहले ही वर्क फ़ोर्स ज़रूरत की तुलना में कम ही थी, सो काम का एक्स्ट्रा प्रेशर झेलने की आदत-सी पड़ गई थी. अब मंदी के इस माहौल में नौकरी बचाने की चुनौती भी जुड़ गई है. काम का दबाव और नौकरी छिनने का डर धीरे-धीरे मानसिक तनाव में बदल जाता है. अगर यह सच है कि तनाव बढ़ रहा है, तो यह भी उतना ही सच है कि तनाव को ढोते हुए लंबे समय तक चल पाना मुमक़िन नहीं है. तो आइए सीखें, मंदी के दौर में मानसिक संतुलन बनाए रखने का हुनर.
पहली सीख: मुश्क़िल से मुश्क़िल घड़ी में भी आपा न खोएं
यह पुरानी कहावत और मानी बात है कि जब बुरा वक़्त होता है तो चीज़ें आपके सोचे अनुसार नहीं होतीं. मंदी भी प्रोफ़ेशनल लाइफ़ का बुरा ही तो है. तो यह मानकर चलिए कि चीज़ें आपकी योजना के अनुसार नहीं होनेवाली हैं. जिस दिन आप अपने दिमाग़ में यह बात अच्छे से बैठा लेंगे कि मुश्क़िल समय में कोई योजना काम नहीं करती, उसी दिन से बात-बातपर आपका चिड़चिड़ाना या निराश होना बंद हो जाएगा.
अब आपा नहीं खोना है को इस तरह न लें कि आपके साथ जो कुछ भी होगा, उसे बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लेंगे. आपको अपना दिमाग़ ठंडा रखते हुए उन चीज़ों/परिस्थितियों से निपटने की रणनीति तैयार रखनी है, जिनके ग़लत होने की आशंका हो. दिमाग़ ठंडा रखने का मतलब है कोई भी प्रतिक्रिया देने से पहले स्थिति का ठीक से आकलन कल लें. कई बार हम लोग उत्तेजित होकर प्रतिक्रिया दे देते हैं, जिसके चलते बेवजह कलीग्स से संबंध ख़राब कर लेते हैं. मंदी के लिए न तो आप दोषी हैं और न ही आपका कलीग, फिर एक-दूसरे पर चिल्लाकर क्या मिलनेवाला है. हां, एक बात याद रखें, जिस तरह अच्छा समय बीत जाता है, उसी तरह मंदी का दौर भी चला जाएगा.
दूसरी सीख: ज़रूरत से ज़्यादा न सोचें
दूसरे जानवरों से इंसान को जो चीज़ अलहदा बनाती है वह है उसकी सोचने की क्षमता. लेकिन मंदी के दौर में हमारी यह क्षमता परेशानी का सबब बन सकती है. ज़ाहिर है मौजूदा स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, पर उस बारे में बार-बार सोचकर आप बेवजह ख़ुद पर प्रेशर बना लेते हैं. पैसा, नौकरी, परिवार की चिंता स्वाभाविक है, पर यह समय है ख़ुद को कंपोज़्ड और शांत रखने का.
यदि बहुत कोशिश करने के बाद भी आप चिंता के भंवर से न निकल पा रहे हों तो अकेले-अकेले घुटने के बजाय अपनों से बात करें. जिस किसी भी बात करके आपको अच्छा लगता हो, मसलन-अपने पैरेंट्स, जीवनसाथी, दोस्त या ऑफ़िस के कलीग आदि, उससे बात करें. अपनी चिंता का पिटारा उसके सामने खोलकर रख दें. यक़ीन मानिए ऐसा करने के बाद काफ़ी हल्का महसूस करेंगे. चिंता को भगाने का यह काफ़ी पुराना और आज़माया हुआ नुस्ख़ा है. अगर अपनों से बात करने के बावजूद चिंता के बादल न छंट रहे हों तो किसी काउंसलर की मदद लें. कहने का सार यह है कि अपनी सोच को डायवर्ट करना है, अब इसे कैसे करना है आप डिसाइड करें.
तीसरी सीख: ब्रेक लेना भी बुरा सौदा नहीं है
यदि आप लंबे समय से सबैटिकल (अध्ययन अवकाश) के बारे में सोच रहे थे तो जाने-अनजाने मंदी ने आपको वह मौक़ा दे ही दिया है कि आप काम से कुछ समय के लिए ब्रेक लेकर अपनी स्किल्स को अपडेट कर सकें. वैसे भी जॉब करते हुए, लगातार इसकी चिंता में घुले जाने के बजाय, नौकरी छोड़कर कुछ नया सीखना फ़ायदे का सौदा है. मंदी का चक्र पूरा होने के बाद जब मार्केट में नौकरी की बहार आएगी, तब आप अपने पुराने अनुभव और नई स्किल्स के साथ बेहतर कंडिडेट होंगे.
सबैटिकल के दौरान आप उस दूसरे क्षेत्र से संबंधित आवश्यक कौशल भी सीख सकते हैं, जो क्षेत्र आपको लंबे समय से आकर्षित कर रहा था. यानी मंदी आपके सामने करियर का नया विकल्प भी खोलनेवाली है.
चौथी सीख: ख़ुद पर भरोसा बनाए रखें
चीज़ें कितनी ही बुरी क्यों न हो जाएं, वे आपको तब तक प्रभावित नहीं कर सकतीं, जब तक आप उनको ऐसा करने की अनुमति नहीं देते. हम किसी को भी ख़ुद पर हावी होने का मौक़ा तब देते हैं, जब अपने आप को कमज़ोर महसूस करते हैं. यहां कमज़ोर महसूस करने का मतलब है अपने आप पर से भरोसा डगमगाना. जिस पल से आप अपनी क़ाबिलियत पर शक करना शुरू करते हैं, आप ख़ुद को कमज़ोर मानने लगते हैं. आपसे आपकी नौकरी छीनी जा सकती है, पर आपका ज्ञान आपसे कोई नहीं छीन सकता. इस बात को दिमाग़ में बिठाकर आप मुश्क़िल घड़ी में ख़ुद को संयत कर सकते हैं. अपनी क्षमता पर भरोसा आपको दोबारा उठ खड़े होने और मंदी के दुश्चक्र से लड़ने के लिए ज़रूरी हिम्मत प्रदान करेगा.
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