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भवन-निर्माण, पर्यावरण व मजदूर

Subhi
2 Nov 2022 3:51 AM GMT
भवन-निर्माण, पर्यावरण व मजदूर
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पर्यावरण समस्या के विविध पहलू हैं जिनकी वजह से धरती के वातावरण व जलवायु में भारी बदलाव देखने को मिल रहा है। इसमे पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) ऐसा पक्ष है जिसे विकास के नाम पर प्रायः बलिदान कर दिया जाता है। लेकिन यदि गौर से देखें तो पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध बढ़ते शहरीकरण से भी है।

आदित्य चोपड़ा; पर्यावरण समस्या के विविध पहलू हैं जिनकी वजह से धरती के वातावरण व जलवायु में भारी बदलाव देखने को मिल रहा है। इसमे पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) ऐसा पक्ष है जिसे विकास के नाम पर प्रायः बलिदान कर दिया जाता है। लेकिन यदि गौर से देखें तो पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध बढ़ते शहरीकरण से भी है। शहरीकृत विकास का माडल महात्मा गांधी के आर्थिक दर्शन के ठीक विरोध में जाकर खड़ा होता है। मगर इसी भारत में गांधी की आर्थिक सोच को प्रतिगामी कहने वाले लोगों की भी कमी नहीं रही है। बापू का विकास माडल ग्राम केन्द्रित था और वह गांवों के विकास को राष्ट्रीय विकास से जोड़ कर देखते थे। किन्तु गांधी भारत की ही नहीं बल्कि विश्व की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के लिए बात बहुत पते की कह कर गये थे कि सरकार के किसी भी निर्णय की तसदीक का पैमाना लोकतन्त्र में केवल यही हो सकता है कि उसके निर्णय का समाज के सबसे गरीब आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? इस सिद्धान्त को वैसे किसी भी शासन व्यवस्था पर लागू करने में भी कोई हर्ज नहीं है। राजधानी दिल्ली में वायु का स्तर गिरते ही 'राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल' ने फैसला दे दिया कि समस्त राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अज्ञात अवधि के लिए निर्माण कार्यों पर प्रतिबन्ध लगा रहेगा। इसकी समयावधि के बारे में उसने कुछ नहीं कहा। इस फैसले का असर समाज के हिस्से पर सबसे ज्यादा पड़ेगा? जाहिर है कि भवन निर्माण कार्य में लगे मजदूरों और मिस्त्रियों पर इसकी सर्वाधिक मार पड़ेगी। निर्माण कार्य हो, ध्वस्तीकरण की कार्रवाई हो, ये मजदूर ही करते हैं। भवन निर्माण के कार्य में दिल्ली में ही लाखों ऐसे मजदूर लगे हुए हैं जो देश के दूसरे राज्यों खास तौर पर बिहार, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड इलाके से आते हैं। इसके अलावा झारखंड व छत्तीसगढ़ के मजदूरों की संख्या भी अच्छी खासी रहती है। ये दैनिक मजदूरी पर काम करके अपना भरण-पोषण करते हैं। साथ ही भवन निर्माण से जुड़े अन्य सहायक उद्योग व सहयोगी वाणिज्यिक गतिविधियां भी हैं। इनमें भी प्रायः रोजगार की तलाश में दिल्ली आने वाले नौजवान ही काम करते देखे जाते हैं जिनका वेतन बामुश्किल गुजारे लायक ही होता है। बेशक पर्यावरण एक समस्या है मगर लाखों लोगों के पेट पर लात मार कर क्या इसे नियन्त्रण में किया जा सकता है? पर्यावरण सन्तुलन महानगरों में किस वजह से बिगड़ता है, इसके मूल में जाने की जरूरत है। इस बारे में समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया और किसानों के सबसे बड़े नेता चौधरीचरण सिंह की बहुत स्पष्ट सोच थी। डा. लोहिया ने समाजवादी मंच के पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिख कर इस ओर चेतावनी दी थी और कहा था कि बड़े-बड़े शहरों को पूंजी केन्द्र बनाने से जो विकास होगा वह भारत के गांवों के लिए विनाशकारी होगा और एकांगी होगा जिसकी वजह से कई प्रकार के खतरे खड़े हो जायेंगे। इनमें एक खतरा सांस्कृतिक भी होगा। औद्योगीकरण पूरी तरह उचित है मगर इसे केवल कुछ बड़े-बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए और विकास की गति शहरों से गांवों की तरफ होनी चाहिए। किसी महानगर में बनी ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं और भवन किसी देश की प्रगति का पैमाना नहीं होती हैं बल्कि उस देश में रहने वाले लोगों की जीवन स्थिति उसकी प्रगति की पहचान होती है। भारत में आर्थिक विषमता, आर्थिक उदारीकरण के बाद बढ़ने की एक वजह यह भी है कि भौतिक विकास के जुनून में हमने पर्यावरण से लेकर पारिस्थितिकी को नजरअन्दाज किया जबकि इनके संरक्षण के लिए गांवों का विकास ही अहम शर्त होती है। मगर पर्यावरण दूषित होने का दोष भी हम किसानों पर डालने से बाज नहीं आते और पुराल या पराली जलाने के लिए उनकी आलोचना करते हैं। किसान सदियों से यही विधि अपनाकर पने खेतों की उर्वरा शक्ति का नवीनीकरण करते रहते हैं। पराली की राख मिट्टी में मिलकर जमीन की नैसर्गिक उर्वरा क्षमता में क्षरण होने से रोकती है। संपादकीय :सभी बुजुर्ग प्रदूषण से बचेंआतंकवाद की सर्वमान्य परिभाषागुजरात में नागरिक संहितासरदार पटेल और इन्दिरा गांधीक्रिकेटर बेटियों की शान बढ़ी, जय शाह की पहल को सलामनमो नमो जपती दुनियापंजाब आजादी के पहले से ही भारत का अन्न भंडार रहा है परन्तु पश्चिमी पंजाब के पाकिस्तान में चले जाने के बाद इसमें कमी आयी। भारत में बचे पूर्वी पंजाब को इस राज्य के मुख्यमन्त्री रहे स्व. प्रताप सिंह कैरों जैसे दूरदर्शी नेता की नीतियों ने पुनः अन्न का भंडार बनाया। मगर मूल सवाल महानगरों के पूंजी केन्द्र व शक्ति केन्द्र बनने से ही जुड़ा हुआ है। स्व. चौधरी चरण सिंह जब 1979 में प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने दिल्ली की रोहिणी आवास योजना के साथ एशियाई खेलों के आयोजन को भी रद्द कर दिया था। ये खेल 1982 में होने वाले थे। रोहिणी योजना को रद्द करने के पीछे उनका तर्क यह था कि दिल्ली के साथ लगे गांवों का अस्तित्व समाप्त करके हमें दिल्ली का विस्तार नहीं कर सकते। इससे कई प्रकार के असन्तुलन जन्म लेंगे। उनका स्पष्ट सिद्धान्त था कि गांवों की कीमत पर शहरों का विकास नहीं किया जा सकता है, पहले गांवों को बिजली देनी होगी, उसके बाद ही शहरों में रात को दिन में बदला जा सकता है। एशियाई खेलों पर होने वाले धन का उपयोग उन्होंने गांवों के विकास पर खर्च करने की बात कही। मगर बहुत साफ यह बात थी कि इन नेताओं की सोच में कहीं न कहीं पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संरक्षण की चिन्ता भी छिपी हुई थी। पर्यावरण पर चिन्ता करते समय हमें सबसे पहले आज भी यही सोचना होगा कि जो भी फैसला हम लेते हैं उसका असर सबसे गरीब आदमी पर क्या पड़ेगा!

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