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जानें भारत के लिए कितना खतरनाक है तुर्की और चीन का साथ होना

Gulabi
21 Dec 2020 2:23 PM GMT
जानें भारत के लिए कितना खतरनाक है तुर्की और चीन का साथ होना
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जानें भारत के लिए कितनी खतरनाक है तुर्की और चीन का साथ होना

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत के खिलाफ तुर्की और पाकिस्तान की जुगलबंदी जगजाहिर है. भारत के खिलाफ पाकिस्तान के हर एजेंडे को तुर्की ने हाल के दिनों में समर्थन किया है. पाकिस्तान को अब तक भारत के खिलाफ हर मोर्चे पर चीन से मदद मिलती थी लेकिन अब तुर्की से भी मिल रही है. अब भारत के लिए टेंशन और बढ़ सकती है क्योंकि तुर्की और चीन की दोस्ती भी बढ़ रही है. चीन और तुर्की के हित मध्य-पूर्व में साझे हैं इसलिए भी करीबी बढ़ रही है लेकिन इस जुगलबंदी में रूस भी शामिल है. हाल ही में, रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव ने कहा था कि पश्चिम के देश भारत को चीन के खिलाफ मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं. मतलब रूस भी नहीं चाहता है कि चीन के खिलाफ कोई वैश्विक गोलबंदी खड़ी हो और उसमें भारत हो.


चीन और रूस तो पहले से ही करीब थे लेकिन अब इस गठजोड़ में पाकिस्तान और तुर्की भी शामिल हो गए हैं. पाकिस्तानी सेना के साथ रूस सैन्य अभ्यास कर रहा है और वहां एलएनजी पाइपलाइन भी बना रहा है. तुर्की और रूस के बीच सैन्य सहयोग लगातार बढ़ रहा है. चीन और तुर्की के बीच भी रणनीतिक साझेदारी बढ़ रही है. ऐसे में भारत के लिए टेंशन बढ़ना लाजिमी है.
एक वक्त था जब तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दवान चीन में वीगर मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार को लेकर बेहद मुखर हुआ करते थे. वीगर मुसलमान की अधिकतम आबादी चीन के शिनजियांग प्रांत में रहती है और उनकी भाषा टर्किश है. वीगर मुसलमानों के मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर चीन की कम्युनिस्ट सरकार की तीखी आलोचना होती रही है. तुर्की भी इन आलोचकों में से एक था. एर्दवान साल 2019 में तुर्की के प्रधानमंत्री थे. तब उन्होंने कहा था कि चीन में वीगर मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, वो सीधे तौर पर नरसंहार है. तुर्की केवल अपने बयानों में ही वीगर मुसलमानों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा था बल्कि चीन से भागे कई वीगर मुसलमानों को एक सुरक्षित पनाह भी देता था.


लेकिन अचानक से तुर्की के रुख में बदलाव देखने को मिला. साल 2016 में तुर्की ने पिछले 15 सालों से अपने यहां रह रहे एक वीगर एक्टिविस्ट अब्दुल कादिर यापकान को गिरफ्तार कर लिया और प्रत्यर्पण के लिए कार्रवाई शुरू कर दी. साल 2017 में तुर्की और चीन ने किसी भी एक देश के कानून के दायरे में आने वाले अपराध को लेकर प्रत्यर्पण के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. साल 2019 से लेकर अब तक, सैकड़ों वीगर मुसलमानों को गिरफ्तार किया जा चुका है और उन्हें प्रत्यर्पण केंद्र भेज दिया गया है. तुर्की के राष्ट्रपति एर्दवान भी अब वीगर मुसलमानों को लेकर खामोशी अख्तियार किए नजर आते हैं.

एर्दवान इस्लामिक दुनिया के नेतृत्व की भूमिका में आने की महत्वाकांक्षा रखते हैं और मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों को लेकर कोई भी मौका अपने हाथ से नहीं जाने देते हैं. कश्मीर को लेकर भी एर्दवान लगातार बयानबाजी करते रहते हैं और पाकिस्तान को खुलकर समर्थन करते हैं. लेकिन वीगर मुसलमानों को लेकर एर्दवान चुप हैं तो इसकी वजह बिल्कुल साफ है. एर्दवान अब चीन से नजदीकी बढ़ा रहे हैं और वे इस मुद्दे पर बोलकर चीन को नाराज नहीं करना चाहते हैं.

19 दिसंबर को तुर्की और चीन के बीच पहली ट्रेन भी चली है. ये मालगाड़ी तुर्की से सामान लेकर चीन पहुंची है. इसे भी दोनों देशों के संबंधों में ऐतिहासिक कदम करार दिया जा रहा है. ये ट्रेन 4 दिसंबर को इंस्तांबुल से चली थी और जॉर्जिया, अजरबैजान, कैस्पियन सागर और कजाकिस्तान से गुजरते हुए कुल 8693 किमी की दूरी तय करके चीन के शियान शहर पहुची. रविवार को यानी 20 दिसंबर को हॉन्ग कॉन्ग और तुर्की ने भी एक समझौता किया है जिसके तहत तुर्की के लोगों को हॉन्ग कॉन्ग के जहाजों में काम करने की अनुमति होगी. स्वास्थ्य क्षेत्र में भी चीन और तुर्की के बीच सहयोग बढ़ा है. इसी सप्ताह, चीन की कोरोना वायरस की सिनोवैक वैक्सीन की 30 लाख खुराक तुर्की पहुंचेगी. तुर्की ने चीनी वैक्सीन की 50 मिलियन डोज की खरीद के लिए चीन के साथ एक समझौता किया है.

चौतरफा संकट में घिरे तुर्की को फिलहाल चीन का ही सहारा नजर आ रहा है. तुर्की की अर्थव्यवस्था और एर्दवान की सत्ता दोनों ही खतरे में हैं. तुर्की की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस महामारी की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुई है. तुर्की की अर्थव्यवस्था मुख्यतः पर्यटन पर ही निर्भर है और महामारी की मार सबसे ज्यादा इसी सेक्टर ने झेली. तुर्की का विदेशी मुद्रा भंडार सिकुड़ता जा रहा है, व्यापार घाटा बढ़ा है और तुर्की की मुद्रा लीरा की हालत बद से बदतर हुई है. एर्दवान के शासनकाल में तुर्की लोकतंत्र से तानाशाही की तरफ भी बढ़ रहा है. तुर्की लिबरल डेमोक्रेसी इंडेक्स में नीचे से 20वें पायदान पर है. उसकी पोजिशन चीन के आस-पास ही है.

पश्चिम एशिया और यूरोप में चीन की पैठ बनाने की चाहत एर्दवान के लिए लाइफलाइन की तरह बनकर आई है. दोनों देशों के बीच बढ़ता सहयोग इसका सबूत है. साल 2016 से लेकर अब तक दोनों देशों ने करीब 10 द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं. इनमें स्वास्थ्य से लेकर परमाणु ऊर्जा से भी जुड़े समझौते शामिल हैं. रूस के बाद, चीन तुर्की से सबसे ज्यादा आयात करने वाला देश है. चीन ने साल 2016 से लेकर साल 2019 के बीच तुर्की में करीब 3 अरब डॉलर का निवेश किया है और अगले साल तक इसे दोगुना करने का लक्ष्य है.

इस मुश्किल वक्त में चीन से आ रहा निवेश एर्दवान के लिए बहुत ही अहमियत रखता है. जब साल 2018 में लीरा की मुद्रा में 40 फीसदी की गिरावट आई तो चीन के सरकारी बैंक ने ऊर्जा क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए 3.6 अरब डॉलर कर्ज दिया था. जून 2019 में जब इस्तांबुल में स्थानीय चुनाव में एर्दवान कमजोर पड़ रहे थे, उसी वक्त चीन के केंद्रीय बैंक ने एक पुराने समझौते का नवीनीकरण करते हुए 1 अरब डॉलर की आर्थिक मदद दी थी. इस साल भी जब कोरोना वायरस की महामारी की वजह से एर्दवान की लोकप्रियता में भारी गिरावट हुई और तुर्की विदेशी मुद्रा भंडार निचले स्तर पर था, चीन मदद के लिए आगे आया. बीजिंग ने व्यापारिक भुगतान के लिए तुर्की कंपनियों को चीनी मुद्रा युआन के इस्तेमाल की इजाजत दी है.

चीन की बेल्ट ऐंड रोड परियोजना से तुर्की को फ़ायदा हो रहा है तो दूसरी तरफ, बीजिंग को इस परियोजना के तहत भूमध्यसागर में पैर जमाने का मौका मिल रहा है. तुर्की ने चीन की मदद से पूर्वी इलाके में कार्स से लेकर तब्लीसी, जॉर्जिया और अजरबैजान से होते हुए कैस्पियन सागर तक एक रेल रोड का निर्माण किया है. इस साल, चीन की एक्सपोर्ट ऐंड क्रेडिट इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ने तुर्की में बीआरआई परियोजनाओं में 5 अरब डॉलर का निवेश करने का वादा किया है. हालांकि, इस फंड को लेकर पारदर्शिता नहीं बरती जा रही है जिससे लोगों के मन में आशंका है कि तुर्की इस कर्ज का भुगतान कर भी पाएगा या नहीं.

चीन की हुवावे कंपनी जिसे अमेरिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा करार दिया है, तुर्की के बाजार में इसकी हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है. साल 2017 में तुर्की के बाजार में इसकी 3 फीसदी की हिस्सेदारी थी जो साल 2019 में बढ़कर 30 फीसदी तक पहुंच गई है. चीन और तुर्की दोनों को ही गहराते रिश्तों से फायदा है. तुर्की चीन के लिए रणनीतिक रूप से काफी अहमियत रखता है. NATO का सदस्य तुर्की, ऊर्जा, रक्षा, तकनीक और टेलिकॉम्युनिकेशन का बड़ा बाजार है. तुर्की तीनों महाद्वीपों एशिया, यूरोप और अफ्रीका को जोड़ता है. वहीं, तुर्की और एर्दवान के लिए, चीन भारी-भरकम निवेश का स्रोत है जो उसकी गिरती अर्थव्यवस्था के बावजूद विकास कार्य को जारी रखने में मदद कर रहा है.

चीन की वजह से एर्दवान को पश्चिमी देशों के दबदबे वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों से मदद भी नहीं मांगनी पड़ रही है. अगर तुर्की अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद लेता है तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था में कई तरह के सुधार लाने होंगे. जाहिर है कि एर्दवान तुर्की की अर्थव्यवस्था पर अपने नियंत्रण को किसी भी सूरत में कमजोर नहीं करना चाहते हैं.


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