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उत्तम कुमार की गाड़ी बनी अटनबरो की वैनिटी वैन, अमजद खान की अदाकारी ने जीते दिल

Shiddhant Shriwas
5 Oct 2021 2:10 AM GMT
उत्तम कुमार की गाड़ी बनी अटनबरो की वैनिटी वैन, अमजद खान की अदाकारी ने जीते दिल
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कैसे एक बड़े चैनल की क्रिएटिव टीम में काम करने वाली कर्मचारी ने एक सीरियल निर्माता से साहित्यकार प्रेमचंद का बायोडाटा ये कहते हुए मांग लिया था कि कौन हैं

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मुंबई मनोरंजन जगत में अक्सर एक किस्सा सुनने को मिलता है कि कैसे एक बड़े चैनल की क्रिएटिव टीम में काम करने वाली कर्मचारी ने एक सीरियल निर्माता से साहित्यकार प्रेमचंद का बायोडाटा ये कहते हुए मांग लिया था कि कौन हैं ये लेखक, पहले तो कभी इनका नाम नहीं सुना! साहित्य और सिनेमा का साथ हिंदी सिनेमा में कभी लंबा नहीं चल पाया। प्रेमचंद जैसा जुझारू लेखक भी इस इंडस्ट्री को रास नहीं आया। ये अलग बात है उनकी लिखी कहानियों, उपन्यासों पर सिनेमा काफी अच्छा बना। सन 1977 में प्रेमचंद की लिखी कहानी पर बनी निर्देशक सत्यजीत रे की फिल्म रिलीज हुई 'शतरंज के खिलाड़ी'। 1977 में अक्तूबर महीने का पहला शुक्रवार प्रेमचंद के ही नाम रहा। और, ये कहानी इसलिए भी बतानी जरूरी है क्योंकि सत्यजीत रे ने जब बंगाल के भद्रलोक से बाहर आकर और दुनिया भर में अपने नाम का डंका बजते देख हिंदी सिनेमा में पैर रखने की कोशिश की तो कहानी तलाशी ऐसी जो उनके भद्रलोक की सी तो लगे पर हो गोपालकों (कैटल क्लास) के देस की। ये कहानी प्रेमचंद ने लिखी है एक ऐतिहासिक काल में जाकर बसाए अपने कल्पना लोक में।

सत्यजीत की अपनी बिछाई चाल

फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' की कहानी प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पर आधारित है, ये हू ब हू वही कहानी नहीं है। इसमें सत्यजीत रे ने अपनी तरफ से भी सिनेमाई स्वतंत्रता ली है। कुछ किरदार अलहदा जोड़े हैं। कुछ किस्सों के रास्ते अपनी मर्जी से मोड़े हैं।

कहानी अंग्रेजों के खिलाफ देश में हुए पहले गदर यानी 1857 की लड़ाई से ठीक साल भर पहले की कहानी है। अवध पर अभी नवाब वाजिद अली शाह का राज है। उसके दो अमीर (मंत्री) दुनिया से बेपरवाह हैं। दोनों शतरंज के खिलाड़ी हैं। शतरंज उनके लिए नशा है। उनको न अपनी फिक्र है, न वतन की फिक्र है और न ही इस बात की फिक्र है कि उनके जनानखाने में क्या हो रहा है? अंग्रेज रेजीडेंट सीने तक चढ़ आया है। वह नवाब के कला प्रेम को उसकी विलासिता बताकर उसका राजपाट कंपनी में शामिल करने को बेचैन है। लेकिन, वक्त उधर नवाब के दोनों अमीरों की बाजी पर ठहरा हुआ है...!

शबाना बोलीं, मुझे झाड़ू लेकर खड़े रहना भी कुबूल

फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' अपने समय की बेहतरीन फिल्म है। संजीव कुमार को दिल का दौरा पड़ने और अमजद खान के सड़क दुर्घटना में घायल होने के चलते फिल्म कई बार रुकी रही लेकिन मजाल जो किसी कलाकार ने उफ तक की हो। ऐसा था सत्यजीत रे के साथ काम करने का जादू। और, सत्यजीत रे? उन्हें अपने साथ काम करने वालों की इज्जत करना आता था। छोटे से छोटा कलाकार भी उनसे वही इज्जत पाता था जैसा कि फिल्म का बड़े से बड़ा सुपरस्टार। तभी तो हर कलाकार उनके साथ काम करने को हमेशा तैयार मिलता था। शबाना आजमी से जब फिल्म के निर्माता सुरेश जिंदल ने कहा कि आपका रोल बहुत बड़ा नहीं है फिल्म में। तो उनके बोल थे, 'मुझे सत्यजीत रे की फिल्म में झाड़ू लेकर भी खड़ा रहना पड़े तो कुबूल है।

रिसर्च हो तो सत्यजीत रे जैसी

सत्यजीत रे के साथ काम करने के अनुभवों पर फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' के निर्माता सुरेश जिंदल ने एक किताब लिखी है, 'माई एडवेंचर्स विद सत्यजीत रे – द मेकिंग ऑफ शतरंज के खिलाड़ी'। इस किताब में सुरेश ने विस्तार से इस पूरी फिल्म के बनने का सिलसिला बताया है। सत्यजीत रे की ये पहली हिंदी फिल्म थी, लेकिन इसके लिए उन्होंने कोई अलग तरकीब नहीं अपनाई। उनकी तरकीब वही रही। फिल्म शुरू होने से पहले महीनों की रिसर्च। शूटिंग शुरू होने के महीनों पहले से उनकी मेज पर कितारों का ढेर लगने लगा था। नेशनल लाइब्रेरी से किताबें आ रही थीं। कंपनी स्कूल की पेटिंग्स की प्रतिकृतियां बनकर आ रही थीं। यात्रा वृतांत खंगाले जा रहे थे। हर तरह की जो भी सूचना सन 1856 की मिल सकती थी, सब सत्यजीत रे जुटा रहे थे। यहां तक कि उस वक्त के लोगों का खाना कैसा था। उठना बैठना कैसा था, गाने वे कौन से सुनते थे। सब सत्यजीत रे ने पहले से जुटा लिया था। और इस सबकी तलाश में निर्माता और निर्देशक ने उत्तरी कलकत्ता (अब कोलकाता) की ठाकुर बाड़ियों से लेकर लखनऊ की गलियों तक की खा छानी। हैदराबाद के फलकनुमा पैलेस से लेकर जयपुर के सिटी पैलेस म्यूजियम तक वे गए। लखनऊ में अमृत लाल नागर के घर पर उनकी और सत्यजीत रे की लंबी मुलाकात की भी सुरेश जिंदल ने अपनी किताब में विस्तार से चर्चा की है। इस रिसर्च का ही नतीजा रही खुद बिरजू महाराज की आवाज में फिल्म की ये पेशकश, 'कान्हा मैं तोसे हारी....'

अमजद खान के नाम पर नहीं बनी सहमति

सत्यजीत रे अड़ियल फिल्म निर्देशक कभी नहीं रहे। उनको अपनी कला का ज्ञान था और दूसरे का सम्मान भी था। 'शोले' रिलीज होने के कोई साल भर बाद यानी कि सन 76 की गर्मियों तक फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' की स्क्रिप्ट पूरी हो चुकी थी। कास्टिंग पर काम शुरू हुआ तो जो सबसे पहला नाम सत्यजीत रे के जेहन में आया, वह था सईद जाफरी का। मीर रोशन अली के किरदार में किसी दूसरे नाम पर रे ने चर्चा तक नहीं की। सुरेश जिंदल अपनी किताब में एक जगह लिखते हैं, 'फिल्म की कास्टिंग में हम दोनों ने बराबर की जिम्मेदारी ले रखी थी, लेकिन जैसा कि उनकी दूसरी फिल्मों में होता रहा, यहां भी आखिरी फैसला उन्हीं का होता था।' संजीव कुमार की कास्टिंग को लेकर भी निर्माता और निर्देशक एक राय रहे। फिल्म के कलाकारों के चयन के दौरान अगर किसी एक बड़े कलाकार को लेकर फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' के निर्माता और निर्देशक में मतांतर हुआ तो वह थे अमजद खान। कहां 'शोले' के गब्बर सिंह का गेटअप और कहां लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह। लेकिन, सत्यजीत रे का ये डर अमजद खान ने अपनी पहले दिन की शूटिंग में ही निकाल दिया। नवाबों की वेशभूषा पहनकर अमजद ठीक वैसे ही लगे जैसे नवाब वाजिद अली शाह फिल्म के निर्देशक सत्यजीत रे ने एक आदमकद तस्वीर में देखे थे।

रिचर्ड अटनबरो का अलबेला जवाब

फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में ऑट्र्म के किरदार के लिए रिचर्ड अटनबरो की कास्टिंग करने के लिए निर्माता और निर्देशक दोनों लंदन गए थे। मेफेयर के गेलॉर्ड रेस्तरां में दोनों की मुलाकात हुई। रे और रिचर्ड दोनों एक दूसरे को फिल्म उत्सवों में मिलते रहने की वजह से जानते थे। और, यह रिचर्ड अटनबरो ही थे जिन्होंने पहले कभी रे के साथ काम करने की इच्छा जाहिर कर रखी थी। रिचर्ड उन दिनों अपनी फिल्म 'ए ब्रिज टू फार' के संपादन में व्यस्त थे, लेकिन रे की प्रतिष्ठा ने उनको खाने की टेबल पर ला दिया था। सत्यजीत रे को पता था कि जिस कद के रिचर्ड अटनबरो हैं, उस कद का किरदार फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' का नहीं है। सत्यजीत रे उनसे कहा, 'रिचर्ड, मैं जानता हूं कि ये बहुत बड़ा रोल नहीं है, लेकिन जहां तक मेरी बात है, मैं जानता हूं कि ये रोल सिर्फ आप ही कर सकते हो।' एक निर्देशक का आभामंडल कैसे सामने वाले कलाकार को प्रभावित करता है, इसका प्रमाण उस दिन का अटनबरो का जवाब है। उन्होंने कहा, 'सत्यजीत, मैं तो तुम्हारी फिल्म में किसी टेलीफोन डायरेक्टरी का वाचन करके भी खुश ही रहूंगा।'

अदाकारों की लाजवाब कलाकारी

फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' सिनेमा का एक सबक है। ये एक ऐसी घुट्टी है जो धीरे धीरे असर करती है। फिल्म के सभी कलाकारों ने एक से बढ़कर एक बेहतरीन अदाकारी की है। संजीव कुमार तो सब कुछ चुप रहते हुए भी कैमरा ऑन होते ही अपने चेहरे की हरकतों से बोल जाते थे और सईद जाफरी की संवाद अदायगी ऐसी थी कि उसमें सत्यजीत रे भी ज्यादा दखल न देते थे। शबाना आजमी और फरीदा जलाल दोनों ने अपना असर छोड़ा और काम फारुक शेख का भी लोगों को याद रह ही जाता है। लेकिन, इन सबसे काबिले तारीफ काम फिल्म में है अमजद खान और विक्टर बनर्जी का। अमजद खान ने इसमें गब्बर से बाहर आकर जो कर दिखाया, वह इनाम का हकदार बनता है। और, विक्टर ने बंगाली होने के बावजूद जो उर्दू फिल्म में बोली है, उसका असर सिर्फ फिल्म देखकर समझा जा सकता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन की आवाज सूत्रधार के तौर पर सुनाई देती है। अगले साल के फिल्मफेयर पुरस्करों में सत्यजीत रे को इस फिल्म के लिए बेस्ट डायरेक्टर का पुरस्कार मिला। दो और पुरस्कार फिल्म ने हासिल किए, बेस्ट फिल्म का क्रिटिक्स च्वाइस अवार्ड और बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का पुरस्कार सईद जाफरी के लिए।

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