जनता से रिश्ता वेबडेस्क | यह देश संतों का देश है। संतों पर इस देश के लोगों की अटूट श्रद्धा भी रही है। उन पर एक विश्वास होता है आमजन का कि वह कुछ गलत नहीं करेंगे। ठीक वैसे ही जैसे अपने परिवार में सगे संबंधियों पर एक विश्वास होता है। फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ के उपसंहार का एक दृश्य है जिसमें वकील सोलंकी अदालत के सामने अपनी जिरह का आखिरी हिस्सा पूरा कर रहे हैं। वह शंकर और पार्वती के संवाद का दृष्टांत देते हुए बताते हैं कि पाप, अति पाप और महापाप क्या है? रावण ने सीता का अपहरण किया, यह अति पाप है। इसका प्रायश्चित हो सकता है। लेकिन, उसने साधु वेश में एक महिला का अपहरण किया, यह महापाप है और शिव पार्वती संवाद के मुताबिक इसके लिए कोई क्षमा नहीं है। यह विश्वास को भंग करने का अपराध है। समाज या परिवार जिन पर आंख मूंदकर विश्वास करता हो, वे जब इस विश्वास का अनुचित लाभ उठाकर किसी बहू या बेटी पर हाथ डालें, तो उसकी सजा सिर्फ मृत्युदंड है।
फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ को बनाना साहस का काम है। निर्माता विनोद भानुशाली ने जब से टी सीरीज से अलग होकर अपना अलग काम शुरू किया है, वह लगातार ऐसी कहानियां चुन रहे हैं, जिनकी तरफ मुंबई के आम फिल्म निर्माताओं को ध्यान कम ही जाता है। इस बार उन्होंने कहानी चुनी है उन पूनमचंद सोलंकी के साहस की जिन्होंने देश के सबसे चर्चित मामलों में से एक में एक नाबालिग की तरफ से पैरवी की और लाखों अनुयायियों वाले एक बाबा को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया। पांच साल तक चले इस मुकदमे के दौरान उनको हतोत्साहित करने के, धमकाने के और देश के दिग्गज वकीलों के आभामंडल के सामने हाशिये पर धकेलने की हुई कोशिशें, इस फिल्म का हिस्सा हैं। एक साधारण सा सेशंस कोर्ट (सत्र न्यायालय) का वकील जो इन दिग्गज वकीलों की नजीरें पढ़ पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ाता रहा है, इनके साथ फोटो खिंचाने, इनके साथ बैठने तक को एक उपलब्धि मानता है। वही वकील जब अपनी मुवक्किल के लिए इनके सामने अकाट्य तर्क रखता है तो यह हिंदी सिनेमा का एक ऐसा कोर्ट रूम ड्रामा बनता है जिसे देखना इस कालखंड में सबसे जरूरी है।
अंधभक्त माता पिता अपनी बच्ची की तबीयत खराब होने पर उसे अपने ‘श्रद्धेय’ बाबा के पास लेकर जाते हैं। बाबा उस बच्ची का मान मर्दन करता है। माता पिता अपनी बच्ची को न्याय दिलाने के लिए कानून का सहारा लेते हैं। सरकारी वकील इस मामले का करोड़ों मे सौदा करने की फेर में होता है तो कुछ कर्तव्यनिष्ठ पुलिसकर्मी उसकी मदद को आगे आते हैं और सुझाते हैं एक ऐसे वकील का नाम, जिसकी ईमानदारी पर पुलिस को भी भरोसा है। फिल्म में अधिकतर इस वकील को सोलंकी कहकर ही संबोधित किया गया है, लेकिन एक दृश्य में उनका नाम आता है, पूनम चंद। पूनम चंद सोलंकी ने जिस बाबा के खिलाफ पॉक्सो एक्ट के तहत ये केस लड़ा, उसे जीवित रहने तक आजीवन कारावास की सजा हुई और ये पूरा मामला कानून के छात्रों के लिए एक ऐसा दृष्टांत साबित हुआ, जिसकी मिसाल आने वाले वर्षों में बार बार दी जाती रहेंगी।