जनता से रिश्ता वेब्डेस्क | भारतीय सेना में जाने का देश के गांवों में रहने वाले युवाओं का एक सपना होता है। गांवों की पगडंडियों पर, पास से गुजरने वाली सड़कों पर और यहां तक कि हाईवे पर भी सूरज उगने से पहले लाखों युवा अलग अलग सूबों में दौड़ने का अभ्यास करते दिख जाते हैं। इनको कोई नहीं बताता कि सिपाही के तौर पर भर्ती होने के अलावा सेना में अधिकारी के रूप में भी भर्ती होने के तमाम तरीके हैं। इनको बस बदन पर फौज की वर्दी प्यारी होती है। फिल्म ‘फौजा’ में एक संवाद भी है, ‘दुनिया में कपड़ों का सबसे महंगा ब्रांड है एक फौजी की वर्दी। क्योंकि, इसे खरीदा नहीं जा सकता। इसके लायक बनाना पड़ता है खुद को।’ सरहदों पर देश की सुरक्षा में दिन रात डटे रहने वाले इन सिपाहियों को सामने वाले दिखने वाले दुश्मन के बारे में तो पता है, लेकिन इनके अपने गांवों की गलियों में इनके परिवारों पर घात लगाए बैठे दुश्मनों का इन्हें कहां पता होता है..?
फिल्म ‘फौजा’ साधारण तरीके से कही गई एक मार्मिक कहानी है। ‘फौजा’ यानी वह इंसान जो फौज में भर्ती नहीं हो पाया। बाप, दादा, परदादा और उसके पहले की सात पुश्तों ने वतन की रक्षा में अपना शरीर होम कर दिया। ऐसे परिवार का कोई बेटा अगर शारीरिक विकलांगता के चलते फौज में भर्ती न हो पाए तो ये दुख उसको जीवन भर सालता रहता है। फिर उसे अपने जवान हो रहे बेटे से उम्मीदें बंधती है। बेटा सुबह घर से दौड़ने के लिए निकलता है और अपने दोस्त के घर जाकर सो जाता है। बेटे से नाउम्मीद पिता खुद ही फौज में भर्ती होने निकल पड़ता है। बेटे को अक्ल आती है और वह अपनी दोस्त के संग वक्त बिताना छोड़ फौज की भर्ती के लिए खुद को तैयार करने की ठान लेता है। साथ में गांव की राजनीति भी चलती रहती है। एक लालची ठेकेदार है जिसकी नजर उस जमीन पर है जहां फौजा कपड़े सिलने की दुकान चलाता है। बेटा दुश्मनों से सरहद पर जंग लड़ रहा है। पिता गांधी प्रतिमा के नीचे खड़ा होकर जुल्म के खिलाफ आवाज उठा रहा है।
फिल्म ‘फौजा’ अभिनेता पवन मल्होत्रा ने एक तरह से अपने मजबूत कंधों पर शुरू से आखिर तक उठा रखी है। अक्सर हिंदी सिनेमा में हाशिये के किरदारों तक सीमित रह जाने वाले पवन मल्होत्रा ने इन दिनों दमदार किरदार करने का बीड़ा सा उठा रखा है। फिल्म ‘सेटर्स’ में एक दमदार किरदार निभाने के बाद अपनी सेकंड इनिंग्स में उन्होंने पहले ‘ग्रहण’ और फिर ‘टब्बर’ जैसी वेब सीरीज में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। फिल्म ‘फौजा’ में वह एक हौसलेमंद दादा से लेकर पहले एक लाचार पिता और फिर अपने बेटे की कामयाबी का ढोल बजाने वाले पिता के रूप में सामने आते हैं। दुकान पर सिलने आई वर्दी पहन फौज में भर्ती होने जा पहुंचने के दृश्य में उनका अभिनय कलेजा कचोट लेने वाला है। नगर पालिका के दफ्तर के सामने गांधी प्रतिमा के नीचे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाला दृश्य भी पवन मल्होत्रा के अभिनय के एक और रंग की बानगी दिखाता है। केसरिया पगड़ी बांधे पवन मल्होत्रा का अभिनय उनकी अपनी ही अभिनय यात्रा की लकीर फिल्म ‘फौजा’ में गाढ़ी करती दिखता है।