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Shamshera: आजादी की चुकाई दुगनी कीमत, लेकिन ना अंग्रेजों से, ना मुगलों से बल्कि अपनों से

Neha Dani
22 July 2022 11:28 AM GMT
Shamshera: आजादी की चुकाई दुगनी कीमत, लेकिन ना अंग्रेजों से, ना मुगलों से बल्कि अपनों से
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कुली मूवी की तरह यहा शमशेरा के कौए साथी और उसके हजारों साथियों का भी जिक्र जरूरी है, उसके बिना तो क्लाइमैक्स भी पूरा नहीं होगा.

स्टार कास्ट: रणवीर कपूर, वाणी कपूर, रोनित रॉय, सौरभ शुक्ला, राज अर्जुन, सौरभ और संजय दत्त


निर्देशक: करण मल्होत्रा

स्टार रेटिंग: 3.5

कहां देख सकते हैं: थिएटर्स में

Shamshera Movie Review: अंग्रेजों के साथ लड़ाई में क्रांति, मर्द जैसी काल्पनिक कहानियों पर तो सच्ची कहानियों पर मणिकर्णिका और भगत सिंह जैसी तमाम फिल्में बनती आई हैं. लेकिन लगान और ठग्स ऑफ हिंदोस्तान जैसी फिल्में कुछ अलग थीं. 'लगान' में आजादी की बात ही नहीं की गई, केवल क्रिकेट मैच और लगान तक सीमित रखा गया तो 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' में इमोशंस कम और मजाक ज्यादा था. जहां आमिर की 'लगान' जहां काफी पसंद की गई, वहीं 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' बुरी तरह पिट गई. इसी दूसरी कड़ी की मूवी है शमशेरा.. क्रांति, मर्द, भगत सिंह और मणिकर्णिका की तरह यहां अंग्रेजों से लड़ाई तो है, लेकिन देश की बात नहीं होती, भारत माता की बात नहीं होती, बात होती है तो बस खमेरन की.

आजादी की चुकाई दुगनी कीमत

कहानी है खमेरन लोगों की, जो जाति है या कबीला, ढंग से स्पष्ट नहीं होता, लेकिन कहीं ना कहीं वो आदिवासी परम्पराओं से जुड़े लगते हैं. देश की नहीं बल्कि अपने लोगों की बात करते हैं. खमेरनों की लूटपाट और चोरी चकारी से परेशान होकर स्थानीय व्यापारी 5 हजार तोले का लालच देकर शुद्ध सिंह (संजय दत्त) को उनसे निपटने के काम पर लगा देते हैं. वो धोखे से उन्हें एक किले में बंद कर देता है. उनका सरदार शमशेरा (रणवीर कपूर) शुद्ध सिंह को अपने लोगों की आजादी की कीमत दोगुने सोने के तौर पर देने को तैयार हो जाता है, लेकिन दारोगा शुद्ध सिंह उसको भी धोखा देकर गोली मारकर लटका देता है, कहीं बाकी लोगों को नाम मार दे, उसकी पत्नी उसको भगोड़ा साबित कर उनके ही पत्थरों से मरवा देती है.

फौज में बनना चाहता था अफसर

उसका बेटा बल्ली (रणवीर कपूर) 'भगोड़ा की औलाद' शब्द ही सुन-सुनकर बड़ा होता है. वह अंग्रेजी फौज में अफसर बनना चाहता है, पीर बाबा (रोनित रॉय) उसे हर तरह की मुसीबत, जंग आदि से निपटने की ट्रेनिंग देता है. बल्ली बच्चों के गैंग से चोरियां भी करवाता है. लेकिन दारोगा शुद्ध सिंह उसको अफसर की परीक्षा देने को बुलाकर उसे कोड़ों से पिटवाता है तब पीर बाबा और उसकी मां, उसे उसके पिता शमशेरा की कहानी सुनाते हैं उसकी बहादुरी की कहानियां, उसको पुराने गैंग और आजादी के लिए जमा किए जा रहे सोने को छुपाने की कहानी. लोगों को दिखाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है, लेकिन जिस कुएं से कूदता है, उसमें एक सुरंग थी. फिर बल्ली पिता के गैंग से मिलकर बन जाता है शमशेरा और फिर शुरू होती हैं लूट. इसमें उसकी मदद करती है ठग्स ऑफ हिंदोस्तान की नाचने वाली सुरैया की तरह की ही किरदार सोना (वाणी कपूर).

अच्छा है फिल्म का संगीत
इस कहानी में यही एक पेच है कि वह सेठ बनियों से भी सोना लूटेगा और खुद अंग्रेजों से भी और बाद में अंग्रेजों को ही उसे देकर अपनी आजादी लेगा. लगान की तरह ही वो पूरे देश की आजादी की बात नहीं करते, उसमें केवल लगान की बात होती थी, इसमें बस सोने की. इसलिए क्रांति की तरह कोई इमोशनल गीत नहीं है, हालांकि जो भी गाने हैं, वो कानों को अच्छे लगते हैं. ये मूवी केजीएफ से भी लुक्स में प्रभावित लगती है. केजीएफ का बड़ा हिस्सा खदानों में शूट हुआ है, सो रेत का डार्क लुक उस मूवी को अलग मुकाम पर ले जाता है, शमशेरा में तो गिनती के ही सीन बिना रेत के हैं. ऐसे में जब भी नदी के सीन आते हैं, तो आंखों को थोड़ी राहत मिलती है.

क्लाइमेक्स के लिए रची कहानी

क्लाइमेक्स के लिए डायरेक्टर ने एक और कहानी रची है, कि लंदन से क्वीन का मुकुट आएगा, जो भारत में घूमेगा. ट्रेन में से उसे लूटने का सीन स्पेशल इफैक्ट्स के साथ अच्छा बन गया है, फिर भी उसको बड़ा करने की गुंजाइश के बारे में नहीं सोचा गया. लेखक और निर्देशक का कन्फ्यूजन कई जगह दिखता है, शमशेरा यानी बल्ली को एक सीन में लार्जर दैन लाइफ दिखा दिया जाता है, जो अकेले ही चुनौती देकर घर में घुसकर लूट करता है, अंग्रेज अधिकारी को फ्री स्टाइल फाइट में हराकर आसानी से चम्पत हो जाता है तो फिर एक सीन में बिना बात के खौफ से दुबकने वाला एक निराश आदमी दिखा दिया जाता है.

नहीं होती भारत माता की बात

आजकल काला, झुंड जैसी मूवीज के जरिए हाशिए पर रही जातियों की जो बात उठाई जा रही है, उसका प्रभाव भी साफ इस मूवी पर दिखता है. नायक आजादी की लड़ाई लड़ने के बावजूद भारत या भारत माता की बात नहीं करता, नाले में गर्दन तक घुसकर साफ करते लोग, खमेरन प्राइड का बार बार जिक्र, और शुद्ध सिंह के उनके इस प्राइड का अपमान करते डायलॉग, हर सीन शुद्ध सिंह के पूरे माथे पर तिलक छापा, मंदिरों की नगरी है 'नगीना' और उसमें दूध सिंह (सौरभ शुक्ला) का डायलॉग- ''दुनियां में धर्म से बड़ा मुखौटा क्या है'', नायक का गुरू पीर बाबा को बनाना, उसके ताबीज को तबज्जों देना, नायक के साथी को घंटी चोर दिखाना, एक सीन में शायद किसी जैन साधु को पालकी से गिरते जमीन पर दिखाना, शादी के हवन कुंड को तोड़कर उसके नीचे से निकलना आदि उसी कड़ी में पिरोई जा सकती हैं. लेकिन फिर वही डायरेक्टर शंख की आवाज के साथ विलेन शुद्ध सिंह के मरने का सीन दिखाता है तो समझ नहीं आता.

इतनी मेहनत के बाद भी मॉडल लगीं वाणी

डायलॉग्स में पीयूष मिश्रा की छाप साफ दिखती है- सौरभ शुक्ला की गाती लाइनें, और लौंडे व चचा जैसे शब्द के इस्तेमाल, मानो डायरेक्टर 1870 के जंगलियों से भी मुम्बइया भाषा बुलवाना चाहता है. कितनी भी मेहनत के बावजूद वाणी कपूर मॉर्डन मॉडल जैसी ही लगती हैं, बोली मे भी. लेकिन रोनित रॉय, राज अर्जुन और सौरभ शुक्ला ने अपनी छाप छोड़ी है. रणवीर कपूर के लिए फिर ये एक बड़ी मूवी है. उन्होंने खुद भी काफी मेहनत की, काफी पैसा खर्च किया गया है, एक एक सीन को शूट करने में, सैट डिजाइन करने में, कर्णप्रिय म्यूजिक बनाने में, एक्शन सींस शूट करने में और स्पेशल इफैक्ट्स में की गई मेहनत साफ दिखती है. मूवी केजीएफ जैसी तो नहीं लेकिन फिर भी काफी शानदार दिखती है.

कन्फ्यूज करती है मूवी

मूवी आपको कई जगह कन्फ्यूज तो करती है, लेकिन बोर नहीं करती, बांधकर रखती है. इसमें संजय दत्त का जिक्र भी जरुरी है. उन्होंने हालिया आई अपनी सभी मूवीज यानी केजीएफ2 और पृथ्वीराज चौहान से काफी बेहतर अभिनय इस मूवी में किया है, हालांकि ये उनके रोल को तबज्जो देने की वजह से भी है. आजादी के बाद आई मूवीज में से मुगल आदि को विलेन के तौर पर दिखाना लगभग बंद हो गया था, लगान और मंगल पांडेय जैसी मूवीज में एक दो किरदार अच्छे अंग्रेजों को आने लगे थे, लेकिन लगता है इस मूवी में अंग्रेजों को सारे आरोपों से ही बरी कर दिया गया है. बल्कि इशारा किया गया है कि अंग्रेजों के नाम पर हमारे अपने लोग हम पर अत्याचार कर रहे थे. ऐसे में इस मूवी को नए युग की शुरूआत के तौर पर देखा जा सकता है.

भारतीय लोगों को दिखाया विलेन

आजकल यशराज फिल्म्स ऐसे तमाम प्रयोगों में जुटी है, हृतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ की मूवी 'वॉर' में मुख्य आतंकी को मुस्लिम की जगह हिंदू दिखाकर नया प्रयोग किया गया था, उसी तरह 'शमशेरा' में भी अंग्रेजों को अच्छा और मुख्य विलेन भारतीय दिखाया गया है. हालांकि फिल्म के शुरूआत में ही जयचंद और विभीषण की बात करके ये इशारा दे दिया गया है कि उन्हीं की बात होगी, यानी दारोगा और व्यापारियों की. शुद्ध सिंह 25 साल बाद भी दारोगा का दारोगा ही बना रहता है और क्यों हीरो उसे बार बार मारने का मौका होने के बावजूद छोड़ता रहता है, जमता नहीं. रेत की आंधी में सौरभ शुक्ला से मिलने का सीन, किले का आखिरी ड्रोन से लिया गया विहंगम दृश्य, ट्रेन के साथ दौड़ते घोड़े का सीन नकली जैसे लगते हैं.

हर सीन में दिखी डायरेक्टर की मेहनत

वाबजूद इसके इस मूवी से आप निराश नहीं होते, डायरेक्टर की मेहनत हर एक सीन, हर एक डायलॉग, हर एक गाने में दिखती है. कलाकार सारे मंझे हुए हैं, लगभग हर मोर्चे पर मूवी आपको प्रभावित करती है. थोड़ा लोचा कहानी में हो सकता, क्योंकि थोड़ा नयापन है, आजादी हो और भारत की बात ना हो, आजादी की लड़ाई हो और अंग्रेज विलेन ना हों, तो ये एक्सपेरीमेंट जिसको नएपन के नाम पर पसंद आया, उसको मजा आएगा और जिसको नहीं आएगा, बहुत ज्यादा निराश तो वह भी नहीं होगा. हां.. कुली मूवी की तरह यहा शमशेरा के कौए साथी और उसके हजारों साथियों का भी जिक्र जरूरी है, उसके बिना तो क्लाइमैक्स भी पूरा नहीं होगा.


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